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रामपुर मे स्थित ईदगाह का प्रयोग यहां के लोगों द्वारा पहली नमाज करने के लिए किया जाता है। ईदगाह आमतौर पर एक सार्वजनिक स्थान होता है, जो कि शहर के बाहर ईद अल-फितर और ईद अल-अधा की नमाज के लिए आरक्षित होता है, इसका उपयोग वर्ष के अन्य समय में प्रार्थना के लिए नहीं किया जाता है। इसके अलावा रामपुर के पास विश्व भर में प्रसिद्ध मुरादाबाद का ईदगाह भी मौजूद है, जिसका प्रार्थना का मैदान बहुत बड़ा है, जिसमें बैठने की क्षमता 20,000 व्यक्तियों की है। यह मुसलमानों के लिए एक ऐतिहासिक धार्मिक स्थल है, साथ ही मुरादाबाद में रहने वाले मुस्लिम इस ईदगाह में प्रत्येक वर्ष ईद की नमाज अदा करते हैं।
हालाँकि ईदगाह एक हिन्दी शब्द है, लेकिन इसका इस्तेमाल मुसल्ला (मस्जिद के बाहर खुली जगह, या अन्य खुले मैदानों) में किया जाता है, जहाँ ईद की नमाज़ अदा की जाती है। सबसे पहली ईदगाह मदीना के बाहरी इलाके में स्थित मस्जिद अल नबावी से लगभग 1,000 फुट की दूरी पर स्थित थी। ईदगाह का उल्लेख काजी नजरूल इस्लाम की प्रसिद्ध बंगाली कविता 'ओ मोन रोमजानर ओई रोजार शेष' में भी किया गया है। वहीं ईदगाह के विषय में मुंशी प्रेमचंद द्वारा भी एक लेख अंकित है। यह प्रेमचंद के उपनाम नवाब राय के तहत लिखी गई सुप्रसिद्ध कहानियों में से एक है।
ईदगाह हामिद नामक एक चार वर्षीय अनाथ बालक की कहानी है, जो अपनी दादी अमीना के साथ रहता है। कहानी में उसके नायक हामिद ने हाल ही में अपने माता-पिता को खोया है; हालाँकि उसकी दादी उसे बताती है कि उसके पिता पैसे कमाने के लिए कहीं दूर गए हैं और उसकी माँ उसके लिए प्यारा उपहार लाने के लिए अल्लाह के पास गई है। यह हामिद को आशा से भर देता है और वहीं दूसरी ओर अमीना की गरीबी और पोते की भलाई को लेकर चिंता के बावजूद हामिद काफी खुश और सकारात्मक सोच रखने वाला बालक है।
कहानी की शुरुआत ईद की सुबह से होती है, जब हामिद अपने दोस्तों के साथ ईदगाह के लिए निकलता है। पुराने कपड़ों और काफी दयनीय हालत में हामिद अपने दोस्तों क सामने काफी निर्धन दिख रहा है और त्यौहार के लिए ईदी के रूप में उसके पास केवल तीन पैसे हैं। उसके दोस्त अपनी ईदी को झूलों, मिठाइयों और खूबसूरत मिट्टी के खिलौनों पर खर्च करते हैं और हामिद को चिढ़ाते हैं, जब वह इस क्षणिक खुशी को पैसे की बर्बादी के रूप में खारिज कर देता है। जब उसके दोस्त मेले का आनंद ले रहे होते हैं, तो वह अपने प्रलोभन पर काबू करके, एक धातु सामग्री की दुकान पर रुकता है, जहां उसे एक चिमटा नजर आता है, उस चिमटे को देख उसे अपनी दादी की याद आ जाती है कि उसकी दादी कैसे रोटियाँ पकाते समय अपनी उंगलियाँ जला लेती हैं।
जब वे गाँव वापस लौटते हैं तो हामिद के दोस्त उसके द्वारा खरीदे गए चिमटे का काफी मजाक उड़ते हैं और अपने खिलौनों के गुणों के बारे में बताने लगते हैं। हालांकि हामिद उन्हें कई चतुर तर्कों के साथ उत्तर देता है। उसके उत्तर सुनने के बाद उसके सभी दोस्तों को उस चिमटे से मोह हो जाता है और उससे स्वयं के खिलौनों के बदले बदलने का आग्रह करते हैं, जिसे हामिद मना कर देता है। कहानी एक मार्मिक दृशय पर समाप्त होती है, जब हामिद अपनी दादी को चिमटा भेंट करता है। पहले तो वह उसे मेले में खाने या पीने के लिए कुछ खरीदने के बजाय चिमटा लाने पर काफी फटकार लगाती हैं, लेकिन जब हामिद उसे यह याद दिलाता है कि कैसे उसकी उंगली रोटी बनाते वक्त जल जाती है, इस बात को सुनकर अमीना के आँखों से आँसू निकल आते हैं और वो उसे उसकी दया भाव के लिए आशीर्वाद देती है।
यह कहानी न केवल भारतीय पाठ्य पुस्तकों में दिखाई देती है, बल्कि इसका अनुकूलन नैतिक शिक्षा की पुस्तकों जैसे द जॉय ऑफ लिविंग(The Joy of Living) में भी दिखाई देता है। इस कहानी को कई नाटकों और अन्य प्रदर्शनों में रूपांतरित किया गया है। असि-ते-कार्वे येड (Asi-Te-Karave Yied) (2008), शेहजर चिल्ड्रन्स थिएटर (Shehzar Children's Theatre), श्रीनगर द्वारा कहानी का एक कश्मीरी रूपांतरण है। मुजीब खान ने इसे 'आदाब मैं प्रेमचंद हूं' की श्रृंखला के एक भाग के रूप में भी रूपांतरित किया है। राष्ट्रीय कथक संस्थान, लखनऊ ने इस कहानी को कथक प्रदर्शन में बदला है।
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