क्या कबूतर रेस है कबूतरों के लिए संपूर्ण रूप से सुरक्षित?

पंछीयाँ
15-05-2020 03:05 PM
क्या कबूतर रेस है कबूतरों के लिए संपूर्ण रूप से सुरक्षित?

हाई फ्लाइंग पिजिन क्लब ऑफ रामपुर (high flying pigeon club of Rampur) द्वारा संपूर्ण भारत के लिए कबूतर रेस (race) की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। हालांकि इस लोकप्रिय क्लब के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। भारत में कबूतर की रेस ने एक लोकप्रिय खेल के रूप में बहुत अधिक आकर्षण प्राप्त किया है। कबूतर पालकों और दर्शकों के लिए अप्रैल की शुरुआत वर्ष का बहुत महत्वपूर्ण समय होता है। इस समय हजारों कबूतरों के पंखों का नियमित परीक्षण किया जाता है, पक्षियों को नियमित अंतराल पर पानी पिलाया जाता है और उन्हें पौष्टिक भोजन दिया जाता है और आसमान में होने वाली दौड़ के लिए बहुत अधिक जमीनी कार्य कराया जाता है। भारत के लगभग 7000 कबूतर पालकों में से करीब आधे चेन्नई में रहते हैं, इसी वजह से इस शहर को कबूतरों की रेस का मक्का भी कहा जाता है।

अप्रैल में रेस निर्णायक मोड़ पर आ जाती है। लंबी उड़ान भरने के बाद जो कबूतर सबसे पहले वापस लौटता है, विभिन्न पुरस्कार दिए जाते हैं और उसके मालिक को भी सम्मानित किया जाता है। चेन्नई में कबूतर रेस की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले करीब दो दर्जन क्लब हैं। साथ ही इंडियन रेसिंग पिजन एसोसिएशन (The Indian Racing Pigeon Association) एक आधिकारिक निकाय है जो कबूतरों की रेस को आयोजित करता है और ये अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त भी है। वहीं इंडियन रेसिंग पिजन एसोसिएशन के अध्यक्ष इवान फिलिप के मुताबिक भारत में रेस के लिए कबूतर पालने वालों की संख्या हर साल 10 से 20 फीसदी बढ़ रही है। अब साल में दो बार रेस कराने की योजना बन रही है, ताकि युवा और बुजुर्ग कबूतरों को अलग अलग मौके दिए जाएं।

वहीं भारत के अलावा यूरोप के कुछ हिस्सों में भी कबूतरों की रेस काफी लोकप्रिय है। लेकिन शहरवार इस खेल की शुरुआत 1940 के दशक में कोलकाता और 1970 के दशक में बेंगलुरू में हुई थी और फिर 1980 में ये चेन्नई में आई थी। हालांकि कबूतरों की रेस की शुरुआत का कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि इस खेल की शुरुआत कम से कम 220 ईस्वी पूर्व में हुई होगी। 19 वीं शताब्दी के मध्य में इस खेल ने बेल्जियम में काफी लोकप्रियता हासिल कर ली थी। जनवरी से अप्रैल तक चलने वाली रेस के दौरान अलग अलग किस्म की प्रतियोगिताएं होती हैं, जिनमें हिस्सा लेने वाले कबूतर 200 से 1,400 किलोमीटर तक उड़ान भरते हैं। पहले सबसे लंबी उड़ान की सीमा 1,850 किलोमीटर थी, लेकिन कबूतरों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए, पशु अधिकार संगठनों की मांग पर इतनी लंबी उड़ान को बंद कर दिया गया। कबूतरों की रेस में कई कबूतरों को स्वास्थ्य हानि और यहाँ तक की जान जाने जैसे जोखिमों का सामना करना पड़ता है।

जहां कबूतर पालकों का मानना है कि कबूतर चाहे कुछ भी हो अपने घर वापस लौटते ही हैं। लेकिन पक्षियों के लिए यह खेल सिर्फ यातना ही है। लम्बी उड़ान की रेस के बाद 100 कबूतरों में से केवल दस ही रेस में बचते हैं। ये बचे हुए कबूतरों को उनके पालक लंबी दूरी की दौड़ में भाग दिलाते हैं। जिसके लिए कबूतरों को उनके घर से दूर ले जाया जाता है, ग्वालियर से चेन्नई की दूरी 1165 किलोमीटर है। कबूतरों को ये दूरी 68 घंटों में पूरी करनी होती है। इस दौड़ में 50% अपना रास्ता खो देते हैं और कभी कभी एक साल या उससे भी अधिक अवधि के बाद घर लौटते हैं। साथ ही कबूतरों को गंदे और छोटे पिंजरों में रखा जाता है और उन्हें केवल प्रशिक्षण और रेस के लिए बाहर निकाला जाता है। मियादी बुखार, नासूर, कोकॉइडियोसिस, ई-कोलाई, ऑर्निथोसिस, दस्त और न्यूकैसल रोग से संक्रमित होना पक्षियों में आम हैं और दूसरी ओर इन बीमार पक्षियों का इलाज नहीं किया जाता है, तुरंत मार दिया जाता है।

1400 किलोमीटर तक उड़ान भरने के लिए मजबूर होने से पहले भयावह स्थिति में आए दिन, कबूतरों के साथ भीषण दुर्व्यवहार किया जाता है। उन्हें भागने से रोकने के लिए उनके पंखों को काट दिया जाता है और सेफ्टी पिन (safety pins) के साथ बांधा जाता है। वहीं पिंजरों में कई कबूतरों को एक साथ रखा जाता है, जिस वजह से कबूतर हिल ढुल भी नहीं पाते हैं। अधीनता में रहने वाले इन कबूतरों को बाहरी दुनिया के बारे में कोई ज्ञान नहीं होता है, जिस वजह से उनकी या तो किसी वस्तु से टकराकर मृत्यु हो जाती है या भोजन खोजने में असमर्थ होने के कारण वे भूखे ही मर जाते हैं। केवल इतना नहीं कबूतरों को 3 महीने की आयु से ही प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया जाता है, परीक्षण 2 किलोमीटर की दूरी से शुरू होता है और 70 किलोमीटर तक जाता है। इस प्रशिक्षण के दौरान 60% पक्षी रास्ता भटक जाते है तो कई बाज/चील का शिकार बन जाते हैं या बिजली की तार की चपेट में आने से उनकी मृत्यु हो जाती है। वहीं जो कबूतर बच जाते हैं और रेस में भाग लेने के लिए समर्थ नहीं होते हैं उन्हें दम घोंटकर, डुबाकर, गर्दन तोड़कर, जहर देकर या शिरच्छेदन करके मार दिया जाता है। जहां प्रजनक कबूतरों को दिन में तीन बार खिलाया जाता है, वहीं रेसिंग कबूतरों को दिन में केवल एक बार खाना दिया जाता है।

अब सवाल ये उठता है कि ये कबूतर घर की ओर क्यों वापस आते हैं? कबूतर एकसंगमनी पक्षी होते हैं, इनके जोड़े अविभाज्य होते हैं और ये एक ही घौंसले को साझा करते हैं। साथ ही नर और मादा दोनों अपने चूजों को अपने कंठ में उत्पादित दूध का सेवन कराते हैं। कबूतर को उड़ाने के लिए जिस भयानक तरीके का उपयोग किया जाता है, उनमें से एक ये है कि उन्हें उनके साथी और बच्चों से अलग कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में पक्षी अपने साथी और बच्चों के लिए घर की ओर उड़ते हैं। बहुत लंबी दौड़ में, पुरुष अक्सर वापस नहीं आता है, लेकिन मादा पक्षी अपने परिवार के लिए हर संभव प्रयास करके वापस आती है, इसलिए आमतौर पर मादाओं को रेस में प्रवेश करवाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर कबूतर की मौत हो जाती है। हम लोगों को इस प्रकार की रेस से पक्षियों को होने वाली हानियों की ओर भी अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए और लोगों को इन हानियों के बारे में बताना चाहिए ताकि इस प्रकार के खेल पर रोक लगाई जा सकें या कबूतरों की सुरक्षा के लिए उपयुक्त कदम उठाए जाएं।

चित्र सन्दर्भ :
उपरोक्त सभी चित्रों के द्वारा कबूतरों की रेस को प्रदर्शित करने की कोशिश की गयी है।

संदर्भ :-
https://www.dw.com/en/pigeon-racing-season-reaches-a-high-point-in-india/a-43233986
https://en.wikipedia.org/wiki/Pigeon_racing
https://bit.ly/2WnpZGa

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