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गंगा बेसिन की तटवर्तीय मछलियों की आबादी दुनिया की सबसे बड़ी मत्स्यपालन आबादी का सहयोग करती है। हालांकि बड़े बांधों, बैराजों, पनबिजली परियोजनाओं, अतिक्रमण, प्रदूषण के उच्च स्तर, बड़े पैमाने पर रेत खनन, मछली संसाधनों के अत्यधिक दोहन इत्यादि के कारण मछलियों के संसाधन या स्रोत कम होते जा रहे हैं। मछलियों की निरंतर घटती संख्या के कारण मछलियां धरती पर ताजे पानी में रहने वाले कशेरुकियों के सबसे संकटग्रस्त समूहों में से एक बन गयी हैं। पिछले 40 वर्षों में ताजे पानी की आबादी में औसतन 76% की गिरावट आई है। जिसका मुख्य कारण उपरोक्त सभी कारक हैं। गंगा में मछलियों की लगभग 300 प्रजातियों के होने का अनुमान है, जिनमें सबसे पसंदीदा ताजे पानी की मछलियां जैसे कैटला (Catla), रोहू, मृगल, महसीर आदि प्रजातियां शामिल हैं, ये प्रजातियां पोटामोड्रोमस (potamodromous- मीठे पानी के अपस्ट्रीम-डाउनस्ट्रीम ग्रेडिएंट्स-along freshwater upstream-downstream gradients) के साथ प्रवास करती हैं, जिन्हें अत्यधिक प्रदूषण, और बांधों के कारण गंभीर रूप से गिरावट का सामना करना पड़ रहा है। जहाँ जल विद्युत परियोजनाओं ने पहाड़ की नदियों पर गहरा नकारात्मक प्रभाव डाला है। वहीं इसने निचली नदियों के बहाव पर भी गंभीर रूप से बड़े पैमाने पर गहरा प्रभाव डाला है।
भारत में, जलविद्युत परियोजनाएं, विशेष रूप से उच्च ऊँचाई पर चलने वाली नदी परियोजनाएँ, अक्सर प्राकृतिक तापीय व्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव डालती हैं। ये परिवर्तन न केवल हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तराखंड के उच्च-ऊंचाई वाले ठंडे-पानी में मछलियों के प्रजनन और प्रवास को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं, बल्कि परिवर्तित प्रवाह के कारण तलहटी और मैदानों में कैटफ़िश (catfish) और कार्प (carp) की निचली धाराओं वाली मछलियों को भी प्रभावित करते हैं। उनके संचयी डाउनस्ट्रीम प्रभाव (cumulative downstream effects) हर दिन मत्स्य-आधारित उपयोगों को संभावित रूप से जोखिम में डालते हैं। बांधों ने कई महत्वपूर्ण जैव विविधता और मत्स्य पालन पर विनाशकारी प्रभाव डाला है। वर्तमान में, भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा अंतर्देशीय मछली उत्पादक है। किन्तु नदियों के तटों पर मछलियों की संख्या निरंतर घटने से इस परिदृश्य के बदलने की पूरी संभावना हो सकती है. वर्तमान तटवर्तीय मछलियां प्रति किलोमीटर 0.3 टन की औसत उपज के साथ निर्वाह स्तर से नीचे है, जोकि उनकी वास्तविक क्षमता का लगभग 15% है। यह गंभीर चिंता का विषय है। भारत की नदियाँ कई कठिनाइयों का सामना कर रही है जिनमें विविध प्रदूषण, बांधों और अवरोधों का निर्माण, अत्यधिक दोहन इत्यादि शामिल हैं। ये सभी कारक नदियों और उससे सम्बंधित पारिस्थितिक तंत्रो, जलवायु परिवर्तन आदि के बीच के संबंध को नष्ट कर रहे हैं।
मछलियों की आबादी पर ध्यान दिए बिना, कृषि और बिजली क्षेत्र की पानी की मांग को पूरा करने के लिए सभी प्रमुख नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को विनियमित किया गया है जिसके परिणामस्वरूप, नदियों ने अपना चरित्र खो दिया है और मछलियों की आबादी को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है। पिछले दस वर्षों में नदियों और नदी की मछलियों ने लगातार नुकसान का सामना किया है। भारत में लगभग 5100 से अधिक बड़े बांध हैं जिनका उद्देश्य सिंचित क्षेत्रों, शहरी और औद्योगिक पानी की माँगों की पूर्ति, बाढ़ नियंत्रण और जलविद्युत परियोजनाओं में वृद्धि करना है। किन्तु इस विकास ने मछलियों की आबादी, जलवायु विनियमन, प्राकृतिक बाढ़ नियंत्रण, जैव विविधता, भूजल पुनर्भरण आदि जैसी मुख्य आवश्यकताओं को दरकिनार कर दिया है। कृष्णा, गोदावरी, महानदी, पेन्नार, नर्मदा, तापी, साबरमती, कावेरी आदि नदियों में ताजे जल के अभाव के कारण मछलियों की संख्या में तेजी से गिरावट आयी है। इस गिरावट के कारण उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल के लाखों मत्स्य पालकों की आजीविका पर भी बड़े पैमाने पर गिरावट आयी है। 10 वीं पंचवर्षीय योजना के अनुसार, गंगा नदी में प्रमुख कार्पों की औसत उपज पिछले चार दशकों के दौरान 26.62 से घटकर 2.55 किलोग्राम / हेक्टेयर/ वर्ष हो गई है। इलाहाबाद में, पैदावार साठ के दशक में 935 किलोग्राम/किमी से घटकर 2001-06 में 368 किलोग्राम/किलो हो गयी थी। इस 368 किलोग्राम/किमी में, प्रमुख कार्प्स और बड़ी कैटफ़िश (वाणिज्यिक प्रजातियों के रूप में) की संख्या बहुत कम थी। इनकी जगह विदेशी प्रजातियों में तेजी से वृद्धि हुई क्योंकि विदेशी प्रजाति निचले और अधिक स्थिर जल स्तर को पसंद करते हैं, जबकि कार्प निचले और अधिक स्थिर जल स्तर में वृद्धि नहीं कर सकते।
मछलियाँ अपने जीवन चक्र को पूरा करने के लिए पलायन करती हैं, किन्तु जल-संसाधन विकास ने नदियों के जुड़ाव और मछलियों के पलायन को बाधित कर दिया हैं, जिससे जैविक विविधता और मछलियों की आबादी को काफी नुकसान हुआ है। भंडारण और सिंचाई, सड़क और रेल परिवहन तथा पन बिजली योजनाओं के लिए लाखों बाँध, छोटे अवरोध आदि दुनिया भर की नदियों में मछलियों के प्रवास को रोकते हैं। मछली के पलायन में बाधा डालने से, ये सभी पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन उत्पन्न करते हैं तथा खाद्य सुरक्षा को भी नुकसान पहुंचाते हैं। इस समस्या को दूर करने के लिए मछली मार्गों (fishway) का निर्माण एक अच्छा उपाय हो सकता है। मछली मार्ग को उच्च (बांधों) या निम्न (सड़क क्रॉसिंग, बैराज) अवरोधों पर अपस्ट्रीम (Upstream) और डाउनस्ट्रीम (downstream) में यात्रा करने वाली मछलियों के लिए डिज़ाइन (design) किया गया था। यूरोपीय और अमेरिकी मछलियों की घटती संख्या को देखते हुए ऑस्ट्रेलिया ने मछली मार्ग के लिए शुरुआती प्रयास को प्रेरित किया। पहला ऑस्ट्रेलियाई मछली मार्ग 1913 में सिडनी के पास बनाया गया था। 1985 तक, 52 मछली मार्ग का निर्माण किया गया था किन्तु ये अधिक सफल नहीं हुए। इसके बाद इसे स्थानीय प्रजातियों के लिए डिजाइन किया गया। इसने पूर्वी राज्यों में मछली मार्ग अनुसंधान और निर्माण का विस्तार किया जिससे बेहतर परिणाम प्राप्त हुए। मछली मार्ग की बेहतर कार्यवाही के लिए नवाचार, अनुसंधान और विकास में बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता है। मछलियों की संख्या पर बांधों के प्रभाव को कम करने के लिए नदी-बेसिन पैमाने पर समस्याओं को हल करने, अवरोधों, पर्यावरणीय प्रवाह और पानी की गुणवत्ता के प्रबंधन में सुधार करने, अवरोधों को हटाने और बेहतर मछली मार्ग डिज़ाइन विकसित करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्तर पर सुधारों में तेजी लाने के लिए पुराने अवरोधों का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए और जहां आवश्यक हो उन्हें अपग्रेड (Upgrade) या हटा दिया जाना चाहिए।
सन्दर्भ :
1. https://bit.ly/38v3qSQ
2. https://bit.ly/3cz1agz
3. https://theconversation.com/we-can-have-fish-and-dams-heres-how-61424
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