पवित्र कुरान की विभिन्‍न हस्‍तलिपियां

द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
16-05-2019 10:30 AM
पवित्र कुरान की विभिन्‍न हस्‍तलिपियां

रमज़ान का पवित्र माह प्रारंभ हो गया है, इसके साथ ही विश्‍व भर में कुरान की विभिन्‍न हस्‍तलिपियों की प्रतियों की झलक सामने आने लगी है. विश्‍व के विभिन्‍न संग्रहालयों में कुरान के सबसे छोटे, सबसे बड़े, नये पुराने सभी प्रतियों को संग्रहित करके रखा गया है, जो हमें पुस्‍तक कला और हस्‍लिपियों के क्रमिक विकास के बारे में बताते हैं. सातवीं शताब्‍दी में इस्‍लाम धर्म के उद्भव के साथ अरबी लिपि को गति मिली। इस्‍लाम धर्म के पवित्र ग्रन्‍थ कुरान के प्रत्‍येक अक्षर को अरबी लिपि में बड़ी ही खूबसूरती से लिखा गया है। वास्‍तव में इस्‍लाम धर्म मानवीय चित्रों या छवियों को कुरान में प्रयोग करने की अनुमति नहीं देता, इसलिए लिपियां स्‍वतः ही कुरान की आभूषण बन गयीं। ईरान अपनी हस्‍तलिपियों के लिए प्रसिद्ध है।

7वीं से 11वीं शताब्दी के मध्‍य मैथिली, कुफिक, पूर्वी कुफिक और मग़रिबी इत्‍यादि लिपियों में कुरान की नकल प्रारंभ हो गयी, जो कि सबसे प्राचीन लिपियां थीं। यह लिपियां काफी कोणीय और घसीट में लिखी जाने वाली थी, इसलिए हर कोई कुरान की नकल हेतु इनका उपयोग नहीं कर सक‍ता था।

कुफिक लिपि : 7वीं - 12वीं सदी (मध्य पूर्व, अफ्रीका)
कुफिक लिपि पहली औपचारिक सुलेख शैली थी तथा इसका नाम इराक के कुफा शहर के नाम पर रखा गया। छोटे ऊर्ध्वाधर और लंबे क्षैतिज घसीट लेख इस लिपि की विशेषता है, हालांकि इसमें किसी भी प्रकार के उच्चारण-चिन्‍ह (जो व्यंजन के बीच अंतर करने और स्वरों को निरूपित करने के लिए उपयोग किये जाते थे) का प्रयोग नहीं किया गया था। 11वीं सदी के हस्‍तलिपि बड़ी चादर (sheet) लिखने में सक्षम थे। हैदराबाद के सालार जंग संग्रहालय (एसजेएम) में नौवीं शताब्दी में लघु कुरान (31 पृष्‍ठों की 2 से 3 सेमी. छोटी) को रखा गया है, जो कुफिक लिपि में लिखि गयी है तथा इस तरह की दुनिया में मात्र दो ही कुरान है एक ईरान में तथा दूसरी हैदराबाद के संग्रहालय में।

मग़रिबी लिपि, 11वीं शताब्दी, स्पेन
मग़रिब लिपि में लयबद्ध प्रभाव उत्‍पन्‍न करने के लिए इसे लाइन के नीचे गहरे, आकर्षक घुमावदार पतले हल्‍के अक्षरों में लिखा जाता था। इस लिपि में लाल, हरे, नीले या पीले और सुनहरे रंग से उच्चारण-चिह्नों को सजाया गया। इस लिपि को लिखने के लिए उच्‍च गुणवत्‍ता वाले गुलाबी रंग के पृष्‍ठों का उपयोग किया गया।

मुहाक़ाक़ लिपि, 1300 ई.वी
यह लिपि अपने लम्बे, पतले, सुडौल खड़े और व्यापक उपरैखिय घसीट लेख के लिए प्रसिद्ध थी। क्षैतिज-ऊर्ध्वाधर अक्षरों के संयोजन ने इसे इस्लामी दुनिया में लोकप्रिय और व्‍यापक रूप से उपयोग होने वाली लिपि बना दिया।

नस्क लिपि
ऊपर दिए गये चित्र में नस्क लिपि को दर्शाया गया है और पार्श्व में रामपुर का रज़ा पुस्तकालय दिखाई दे रहा है। इस लिपि को धात्विक स्‍याही का उपयोग करके कपड़े की चादर में लिखा गया। इस लिपि में लिखि कुरान की एक प्रति सोलर जंग संग्रहालय में संग्रहित है।

बिहारी लिपि, 1400 ई.वी
इस लिपि के विकास का श्रेय भारत को दिया जाता है। जिसे रंग बिरंगी स्‍याही से रंगीन पृष्‍ठों पर लिखा गया। इस लिपि में लिखी गयी कुरान बहुत दुर्लभ है।

भारत में हस्‍तलिपियों के विकास में रामपुर को विशेष स्‍थान प्राप्‍त है। जिसमें रामपुर के प्रसिद्ध कलाकार उस्ताद शहज़ादे ख़ान जादु रक़म, सैयद अहमद मियाँ खट्टत, क़ैसर शाह ख़ान उस्ताद रामपुरी, आदि का विशेष योगदान है। इस वंश में नवीनतम अज़रा अमीन हैं जो हस्‍तलिपियों को नई ऊंचाइयों पर ले गयी। एक गृहस्‍थ महिला होने के बावजूद भी इन्‍होंने अपने कार्य को बड़ी निपुणता से किया। शायद इसलिए ही आज इनकी कलात्‍मक हस्‍तलिपियों की पूरे देश में प्रशंसा होती है।

1774 में नवाब फ़ियाज़ुल्लाह खान द्वारा बनवाए गए रजा पुस्‍तकालय में आज सातवीं शताब्दी ईस्वी के कुछ दुर्लभ संग्रह रखे गए हैं, जिसमें कुरान की हस्‍तलिपियां भी शामिल हैं। यह पुस्‍तकालय अपने इंडो-इस्लामिक अध्ययन और कला खजाने के लिए जाना जाता है। इस पुस्तकालय में 15,000 पांडुलिपियों का एक संग्रह है, जिसमें 150 सचित्र हैं, जिनमें 4,413 ग्राफिक्स (Graphics) हैं। इसके अलावा, ताड़ के पत्तों पर 205 पांडुलिपियां, 1,000 लघु चित्र और इस्लामी सुलेख के 1,000 नमूने हैं। पुस्तकालय में 50,000 से अधिक मुद्रित पुस्तकें हैं। इसमें कला वस्तुओं और प्राचीन खगोलीय उपकरणों का विशाल संग्रह भी है। पुस्तकालय संग्रह की एक अन्य विशेषता हैलब, मक्का, मदीना, मिस्र, ईरान, अफगानिस्तान और सम्राटों और महान लोगों के शाही पुस्तकालयों से संबंधित पांडुलिपियां हैं।

संदर्भ :
1. http://www.theheritagelab.in/quran-calligraphy/#vxROQydQy7s51yIA.99
2. http://www.milligazette.com/news/13015-azra-amin-took-calligraphy-to-new-heights
3. http://www.milligazette.com/Archives/01102002/0110200294.htm

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