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क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
भारत के इतिहास में एक वह दौर आया जब लोग वृक्षों को बचाने हेतु स्वयं को कटवाने तक के लिए तैयार हो गये। हम यहां बात कर रहे हैं ‘चिपको आंदोलन’ की वनों को बचाने के लिए यह एक सबसे बड़ा आन्दोलन था। अक्सर लोगों की यह विचारधारा थी कि ग्रामीण लोग वनों को हानि पहुंचाते हैं इसका दोहन करते हैं किंतु चिपको आंदोलन ने संपूर्ण भारत की विचारधारा बदल दी साथ ही विश्व स्तर पर लोगों को पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूक किया।
1963 में भारत चीन युद्ध की समाप्ति के बाद उत्तर प्रदेश में विकास की वृद्धि पर बल दिया गया विशेषकर ग्रामीण हिमालयी क्षेत्रों में जहां लोग जीवन यापन हेतु मूलभूत आवश्यकताओं के लिए वनों पर निर्भर रहते थे। युद्ध के दौरान यहां बनायी गयी आंतरिक सड़कों ने विदेशी कंपनियों को इस क्षेत्र की ओर आकर्षित किया तथा इन्होंने इस क्षेत्र के वन संसाधनों की मांग की। परिणामस्वरूप यहां के ग्रामीण लोगों को वनों के उपयोग के लिए प्रतिबंधित किया जाने लगा साथ ही वनों की अंधाधुन कटाई प्रारंभ कर दी गयी जिससे कृषि पैदावार भी घटने लगी, मृदा अपरदन में वृद्धि हुयी, जल संसाधन कम हुए और आसपास के अधिकांश क्षेत्रों में बाढ़ की समस्या बढ़ गई। 1964 में पर्यावरणविद् और गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट ने स्थानीय संसाधनों का उपयोग करते हुए, ग्रामीणों के लिए छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने हेतु एक सहकारी संगठन, दशोली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना की। तीव्रता से औद्योगिक में विकास के कारण 1970 के दौरान गंभीर बाढ़ के कारण 200 लोगों की जान चली गयी, आगे चलकर डीजीएमएस द्वारा उद्योगों के विरूद्ध आवाज उठाना प्रारंभ कर दिया।
अस्सी के दशक में वाणिज्य और उद्योग में वृद्धि से वन क्षेत्र में तीव्रता की कमी आयी। वनों के संरक्षण के लिए उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखण्ड) से वनों की कटाई रोकने हेतु आंन्दोलन प्रारंभ हुआ, जो पूर्णतः अहिंसा पर आधारित था। इसकी नींव 1973 में रेणी गांव (चमोली) में पड़ी, यहां कुछ ग्रामीण महिलाओं ने इलाहाबाद की एक खेल सामग्री कंपनी को 14 वृक्षों को काटने से रोकने के लिए वृक्षों को घेर लिया और उनसे आग्रह किया यदि उन्हें वृक्ष काटने हैं, तो पहले उनसे होकर गुजरना होगा, इस मुहिम का नेतृत्व गोरा देवी द्वारा किया गया। आखिरकार वन काटने वाले ठेकेदारों को वापिस लौटना पड़ा। आगे चलकर ग्रामीणों ने फिर से साइमंड्स एजेंटों को फाटा-रामपुर के जंगलों में कटाई करने से रोका।
वनों के संरक्षण की यह मुहिम 1970 से 1980 के दशक तक पूरे भारत में फैल गयी और इसे चिपको आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा। चिपको आन्दोलन की एक मुख्य बात थी कि इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। हालांकि पुरूषों द्वारा भी इस आंदोलन का समर्थन किया गया। जिनमें सुंदरलाल बहुगुणा प्रमुख थे। बहुगुणा ने 1974 में वन नीति का विरोध करने के लिए दो सप्ताह तक उपवास किया। 1978 में, टिहरी गढ़वाल जिले में आडवाणी जंगल में, चिपको कार्यकर्ता धूम सिंह नेगी ने जंगल की नीलामी का विरोध करने के लिए उपवास किया, जबकि स्थानीय महिलाओं ने पवित्र धागे को पेड़ों के चारों ओर बांधकर इनके संरक्षण की शपथ ली। इस प्रकार समय समय पर स्थानीय लोगों द्वारा वन संरक्षण के लिए आवाज उठायी गयी। 1972 से 1979 के बीच, चिपको आंदोलन में 150 से अधिक गाँव शामिल हो गये, जिसके परिणामस्वरूप 12 बड़े विरोध प्रदर्शन हुए और उत्तराखंड में कई छोटे-मोटे टकराव भी हुए।
सुंदरलाल बहुगुणा के अथक प्रयासों से सरकार ने 15 वर्षों तक हिमालयी क्षेत्र में वनों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया। बहुगुणा इस आंदोलन में शामिल होने से पूर्व टिहरी बांध के विरोध में भी आवाज उठा रहे थे। 1989 में उन्होंने बांध से उत्पन्न खतरों पर राजनीतिक ध्यान आकर्षित करने के लिए अपनी पहली भूख हड़ताल प्रारंभ की और उसी समय चिपको आंदोलन ने हिमालय बचाओ आंदोलन को जन्म दिया। 1995 में 45 दिनों का उपवास समाप्त किया जब भारत सरकार ने टिहरी बांध परियोजना की समीक्षा का वादा किया। किंतु इसके ऊपर कोई विशेष कदम नहीं उठाये गये परिणामतः इन्होंने दूसरी बार 74 दिन का उपवास रखा अब की बार स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इस इनकी शर्तों पर गहन समीक्षा का वादा किया। इन्होंने पिघल रहे ग्लेशियर के कारण घटते गंगा के जलस्तर की ओर तत्कालीन सरकार का ध्यान आकर्षित किया। इन्होंने आने वाले सौ साल के बाद होने वाली पानी की कमी के लिये चेतावनी दी और जंगलों की सुरक्षा के लिए अभियान चलाया है। जिसने आगे चलकर ‘हिमालय बचाओ’ आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।
चिपको आंदोलन की शुरुआत स्थानीय वन संसाधनों को संरक्षण प्रदान करने के लिए की गयी थी। जिसने बाद में वैश्विक पर्यावरण संरक्षण की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित किया। चिपको ने एक गहरा संरक्षणवादी प्रभाव ग्रहण कर लिया और इस प्रक्रिया में, इसका उपयोगितावादी और विकासात्मक रुख लगातार क्षीण होने लगा।
चिपको आंदोलन की शुरुआत में लोगों ने अपने जीवन यापन की समाग्रियों को बचाने के लिए शुरु किया था। लेकिन कई लोग अब इस आंदोलन को करके पछता रहे हैं। उनका कहना है कि पहले वे ठेकेदारों से वनों को बचाने में सक्षम थे, लेकिन अब जब सरकार और वन निगम ही वनों के ठेकेदार हैं तो हम किससे लड़ें। रेणी की एक महिला का कहना है कि वो अब अपने पेट-दर्द के लिए वन की जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल तक नहीं कर सकती हैं।
संदर्भ:
1. https://bit.ly/2VP1gqY
2. https://bit.ly/2TI6CqO
3. Image Reference-My Prerna Archives/Chipko Movement history
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