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ईसापूर्व तीसरी शती में तक़रीबन पूरा उत्तर भारत मौर्य साम्राज्य के अधीन था और दक्षिण सातवाहनों के। इनमें से अधिकतम राजा बौद्ध थे तथा इनके राजाश्रय के अन्दर बहुत सी चैत्य और विहार चट्टानों को काटकर बनाया गया था जो ज्यादातर गुफाओं आदि को खोदकर/बनाकर तैयार किये जाते थे, यह रॉक-कट (Rock-cut) वास्तुकला के नाम से प्रसिद्ध हैं। शुरुवाती दौर में यह चैत्य और विहारों की संरचना बहुत ही सरल होती थी। हौले हौले वक़्त के साथ इस प्रकार की वास्तुकला में बहुत बदलाव आये और उन्नति हुई। बौद्ध चैत्य और विहारों के साथ इस तरह से चालुक्य साम्राज्य के अंतर्गत, जो सातवाहनों के बाद आये, हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिर भी बनाए जाने लगे। जटिल और खुबसूरत सजावटी तत्व और विभिन्न रूपकों के इस्तेमाल भी इस वास्तुकला प्रकार में किया जाने लगे।
भारत की यह चट्टानों को काटकर वास्तु निर्माण करने की कला पूरे विश्व में सबसे ज्यादा विभिन्न प्रकार की है। इस तकनीक में प्राकृतिक पत्थर अथवा चट्टान की खुदाई की जाती है, जो पत्थर जरुरी नहीं होता उसे निकाल कर सिर्फ वास्तुकला तत्वों को रखा जाता है। भारत में यह वास्तुकला प्रकार बहुतायता से धार्मिक प्रकार की ही होती है।
भारत में कुल 1500 से भी ज्यादा रॉक-कट वास्तु रचनाएं हैं। इनमें से ज्यादातर गुफाएँ हैं। गुफाओं का धार्मिक अध्ययन में काफी महत्व रहा है क्यूंकि वे साधक को एकांत प्रदान करती हैं। गुफाओं में रॉक-कट वास्तुकला के पहले दो प्रकार ज्यादातर दिखाई देते हैं। एक में प्राकृतिक गुफा का इस्तेमाल करते हैं तथा दूसरे में चट्टानों को काट कर गुफाओं की खुदाई करते हैं। आगे जाकर जब यह तंत्र विकसित हुआ तब मुक्त पत्थर से भी ऐसी वास्तु संरचनाएं की जाने लगी। आगे इस में इतना विकास हुआ कि कलाकारों ने सिर्फ एक बड़े पत्थर से संपूर्ण मंदिर की निर्मिती की। यह विश्व में भी बहुत ही दुर्लभता से दिखता है।
इसकी शुरुवात हुई पल्लव राजाओं के राज्य से, चालुक्यों की इस वास्तुकला से प्रेरित हो उन्होंने भी इस रॉक-कट वास्तुकला का इस्तेमाल कर कावेरी के किनारों के नजदीक की चट्टानों में एवं मम्मलापुरम (आज का महाबलीपूरम) के अस पास में निर्माण शुरू किया। महाबलीपुरम शहर उनके साम्राज्य का महत्वपूर्ण बंदरगाह और व्यवसाय केंद्र था।
उनके शिल्पकारों एवं कारीगरों ने इस प्रकार में इतनी कुशलता प्राप्त की कि वे अब किसी भी कठिन पत्थर पर बड़ी खूबसूरती का काम करते थे। अंतिम काम देखें तो इसका बिलकुल भी अंदाज़ा ना लगता था कि कभी यह पत्थर इतना सख्त और ऊबड़-खाबड़ होगा। महाबलीपुरम के आस-पास बहुत से बड़े पत्थर होते थे जिसमें से इन्होंने खुबसूरत द्रविड़ी प्रकार के मंदिरों की निर्मिती की, एक ही पत्थर से हर चीज़ की चाहे वो मूर्ति हो या द्वारशिला का समानुपातिक निर्माण।
इनमें से थोड़े-बहुत ईंट, पत्थर एवं लकड़ी से बने मंदिरों की कभी-कभी उनसे भी ज्यादा खुबसूरत और जटिल प्रतिकृति होती थी। लकड़ी तथा ईंट पत्थर में काम करना फिर भी आसान होता है क्यूंकि उसमें काम करने की सुलभता होती है।
महाबलीपुरम में बने एकचट्टानी मंदिरों को पांडवो और गणेशजी के नाम से जाना जाता है। यह मणि कोइल प्रकार के रथ जैसे बने मंदिर हैं जो भारतीय मंदिर वास्तुकला के एकताल और द्विताल प्रकार के बने हुए हैं। यह सभी मंदिर खूबसूरती का अप्रतिम नमूना हैं एवं इनमें एक बात ख़ास है, इन पर बंगाल-उड़ीसा की वास्तुकला का प्रभाव दिखता है। द्रौपदी रथ मंदिर एक बंगाली झोपड़ी की प्रतिकृति जान पड़ता है।
इस तकनीक का शीर्षबिंदु था राष्ट्रकूटों द्वारा बनाया हुआ एल्लोरा का कैलाश मंदिर जिसे चित्र में दर्शाया गया है। आज भी इस मंदिर का कोई जोड़ नहीं है। यह मंदिर एक पहाड़ी ढलान को ऊपर से निचे तराशते हुए बनाया गया है, किसी भी चीज़ का नाप इधर का उधर नहीं हुआ है।
हौले- हौले राजनीतिक हालातों की वजह से एवं मुस्लिम साम्राज्य के आने पर यह कला लुप्त होती गयी, मुस्लिमों ने मेहराबों का इस्तेमाल कर वास्तुकला निर्माण भारत में परिचित करायी।
1. आलयम: द हिन्दू टेम्पल एन एपिटोम ऑफ़ हिन्दू कल्चर- जी वेंकटरमण रेड्डी
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Indian_rock-cut_architecture#Monolithic_rock-cut_temples
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