रामपुर की काव्य शैली को अज़हर इनायती व मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे शायरों ने दिया आकार

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05-12-2024 09:37 AM
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रामपुर की काव्य शैली को अज़हर इनायती व मिर्ज़ा  ग़ालिब जैसे  शायरों ने दिया आकार
दिल्ली और लखनऊ के बाद, रामपुर को अक्सर ही, भारत में उर्दू शायरी का तीसरा गढ़ माना जाता है। उर्दू शायरी, पहले नवाबों के आगमन पर रामपुर आई थी। इसके अलावा, अपने युग के सबसे प्रसिद्ध उर्दू कवियों में से एक – मिर्ज़ा ग़ालिब, रामपुर के नवाब यूसुफ़ अली खान के शिक्षक थे। उर्दू शायरी के बारे में बात करते हुए, नज़्म शब्द, हमें याद आता ही है। ये एक कविता होती है जिसमें सभी अलग-अलग छंद, एक केंद्रीय अवधारणा में योगदान करते हैं। आमतौर पर कोई भी नज़्म, तुकबंदी वाले लहजे में लिखी जाती है। हालांकि, उर्दू साहित्य में, गैर तुकांत कविताओं के भी कई उदाहरण हैं। तो आइए, आज रामपुर की काव्य शैली के बारे में जानते हैं। इसके बाद, हम रामपुर में शायरी के इतिहास पर भी बात करेंगे। आगे, हम रामपुर के प्रसिद्ध समकालीन उर्दू कवि – अज़हर इनायती पर कुछ प्रकाश डालेंगे। फिर, हम मिर्ज़ा ग़ालिब और रामपुर का संबंध जानेंगे। आगे, हम एक उदाहरण की मदद से, नज़्म और गज़ल के बीच मौजूद अंतर को समझने की कोशिश करेंगे।
रामपुर काव्य शैली:
दिल्ली और लखनऊ शैलियों के बाद, रामपुर को शायरी की तीसरी शैली माना जाता है। उस समय के कई प्रमुख और प्रसिद्ध उर्दू शायर – ‘दाग़’, ‘ग़ालिब’ और ‘अमीर मीनाई’ आदि, रामपुर दरबार के संरक्षण में शामिल हुए। रामपुर के नवाब, कविता और अन्य ललित कलाओं के बहुत शौकीन थे। उन्होंने दरबार से जुड़े कवियों को पारिश्रमिक प्रदान किया। निज़ाम रामपुरी ने, शायर के रूप में बहुत नाम कमाया। इसके अलावा, शाद आरिफ़ी, रामपुर के एक और प्रसिद्ध कवि थे, जिन्होंने आधुनिक गज़ल को एक बहुत ही विशिष्ट शैली में विकसित किया।
वर्तमान में, अंतर्राष्ट्रीय कवि – ‘शहज़ादा गुलरेज़’, ‘अब्दुल वहाब सुखन’, ताहिर फ़राज़’ आदि, पूरी दुनिया में रामपुर कविता शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं।
रामपुर में शायरी का इतिहास:
उर्दू शायरी, पहले नवाबों के साथ रामपुर आई। इसकी शुरुआत, एक दरबारी कवि – कयाम चानोपुरी ने की थी। बाद में यह हिलाल रिज़वी, उस्ताद रामपुरी, बेटुक रामपुरी, शाद आरफ़ी आदि विद्वानों के साथ, भारत में शायरी की तीसरी सबसे बड़ी शैली बनकर उभरी। हालांकि, यह शैली नवाब के संरक्षण में फली-फूली, लेकिन, इसने कवियों को, खुद नवाबों और उनके चापलूसों पर कटाक्ष करने से नहीं रोका।
अज़हर इनायती का परिचय:
अज़हर इनायती, यकीनन ही, रामपुर में सबसे सम्मानित समकालीन उर्दू कवि हैं। वे महशर इनायती के शिष्य हैं, जो सबसे प्रमुख कवियों में से एक हैं, एवं रामपुर की कविता शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, संयुक्त अरब अमीरात और बड़ी भारतीय आबादी वाले अन्य देशों के कार्यक्रमों के साथ-साथ, जश्न-ए-रेख्ता जैसे राष्ट्रीय त्योहारों के लिए भी, नियमित रूप से आमंत्रित किया जाता है। वह एक लोकप्रिय यूट्यूबर भी हैं।
इनायती के अनुसार, एक कवि की भूमिका, व्यंग्य और चिंतन के माध्यम से, समाज में सुधार लाने के लिए, शब्दों को एक साधन के रूप में उपयोग करना है।
मिर्ज़ा ग़ालिब और उनका रामपुर के साथ संबंध:
मिर्ज़ा ग़ालिब का रामपुर से रिश्ता, उन वर्षों से है, जब रामपुर के युवराज – नवाब युसूफ़ अली खान, दिल्ली में छात्र थे। ग़ालिब ने, उन्हें फ़ारसी सिखाई थी। लेकिन, 1857 के विद्रोह से कुछ साल पहले तक, दोनों के बीच कोई संपर्क नहीं था। 1857 के विद्रोह के बाद, ग़ालिब, मुग़ल राजा के संरक्षण से वंचित हो गए थे और गुज़ारा करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन्होंने दिल्ली की बर्बादी पर अफ़सोस जताते हुए, उसे छोड़ने से इनकार कर दिया था।
नवाब यूसुफ़ ने, अपने कुछ दोहे ग़ालिब को भेजे और शिक्षक व छात्र का उनका रिश्ता फिर से शुरू हो गया। रज़ा लाइब्रेरी में, ग़ालिब द्वारा सुधार और टिप्पणियों के साथ, कुछ पांडुलिपियां हैं। नज़्म शायरी के रचयिता – ग़ालिब की सलाह पर ही, नवाब यूसुफ़ ने अपना उपनाम ‘यूसुफ़’ से बदलकर ‘नाज़िम’ रख लिया था।
नवाब यूसुफ़ ने, ग़ालिब को छह पत्र लिखे और उनसे 1858 से 1859 तक, रामपुर आने का आग्रह किया। हर पत्र के बाद, उन्होंने उनकी यात्रा का इंतज़ार किया। इन पत्रों का लहजा विनम्र और सम्मानजनक था। उसी समय, ग़ालिब, अपनी पेंशन फिर से शुरू करने की अपील पर, ब्रिटिश राज के फैसले का इंतज़ार कर रहे थे। जब वे अंततः अपील हार गए, तो, जनवरी 1860 में रामपुर आ गए। नवाब युसूफ़ ने, पहले ही उन्हें 1859 में एक सौ रुपये की पेंशन दे दी थी। इसे उन्होंने अपने शासनकाल के अंत तक जारी रखा, और इसे उनके उत्तराधिकारी – नवाब कल्बे अली खान ने नवीनीकृत किया।
नज़्म और गज़ल के बीच अंतर:
नज़्म और गज़ल के बीच दो बुनियादी अंतर हैं। पहला, नज़्म में, एक ही विषय होता है। दूसरी ओर, गज़ल में, प्रत्येक शेर (दोहा) स्वतंत्र होता है और यह एक संपूर्ण विचार का संक्षेपण होता है। इसका गज़ल के अन्य शेरों से, कोई लेना-देना नहीं होता है। वास्तव में, गज़ल का एक शेर, अपने आप में, दो पंक्तियों में एक संपूर्ण कविता है।
दूसरा, गज़ल को रदीफ़, क़ाफ़िया, बेहर, मतला, और मक़ता के नियमों का सख्ती से पालन करना चाहिए। जबकि, नज़्म इन नियमों का पालन कर भी सकती है, या नहीं भी |
इन नियमों को समझाने के लिए, आइए, एक उदाहरण का उपयोग करें।
“गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले,
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले’’
नियम -
1.) रदीफ़, किसी कविता की एक पंक्ति का अंतिम शब्द है (जिसे मिसरा कहा जाता है)। इसे गज़ल के पहले शेर में, समान होना चाहिए। उपरोक्त शेर में, ‘चले’ रदीफ़ है।
2.) क़ाफ़िया, रदीफ़ से पहले का शब्द होता है। यह तुकबंदी वाला शब्द होना चाहिए, लेकिन, समान नहीं होना चाहिए (जो एक रदीफ़ होना चाहिए)।
3.) बेहर का मतलब, मीटर होता है। उर्दू छंदों में अलग-अलग मीटर हो सकते हैं, लेकिन, गज़ल में, एक ही मीटर का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए।
4.) मतला, गज़ल का पहला शेर (दोहा) है, और यह बाद के शेरों से, इस मायने में अलग है कि, इसके दोनों मिसरों में रदीफ़ और क़ाफ़िया होते हैं ।
5.) मक्ता, ग़ज़ल का आखिरी शेर है और इसमें आमतौर पर, शायर का छद्म नाम (तख़ल्लुस) शामिल होता है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/2ujby2vt
https://tinyurl.com/ydcpu5bd
https://tinyurl.com/29htrk26
https://tinyurl.com/28tar5wh

चित्र संदर्भ
1. मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. मिर्ज़ा ग़ालिब के एक प्रसिद्ध शेर को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह)
3. मुंबई के नागपाड़ा इलाके में मिर्ज़ा ग़ालिब की दीवार भित्ति मूर्तिकला (Wall mural sculpture) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के एक मशहूर शेर को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह)
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