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ज्यादातर श्रद्धालू भारतीय नियमित रूप से या त्यौहारों जैसे विशेष अवसरों पर उपवास रखते हैं। इस प्रकार वे दिन भर कुछ भी नहीं खाते। पूरे दिन में मात्र एक बार ही कुछ विशेष प्रकार का भोजन, फल का ही आहार करते हैं।
उपवास एक संस्कृत शब्द है जो कि दो प्रमुख शब्दों के जोड़ से बना है - उप “नज़दीक”+ वास “रहना”। इस प्रकार से उपवास का अर्थ है ईश्वर के नज़दीक मानसिक व अध्यात्मिक रूप से रहना। अब यह प्रश्न उठता है कि उपवास का भोजन से क्या सम्बन्ध है?
हम मनुष्यों का बहुत सारा समय खाने के बारे में सोचने, उसकी तैय्यारी करने और उसको बनाने और खाने के बाद पचाने में जाता है। कुछ ऐसे भी भोजन हैं जो दिमाग की गति को क्षीण करने का भी कार्य करते हैं। तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति इस पूरी क्रिया में एक दिन का समय लेता है। जब वह या तो बहुत ही हल्का खाना खाता है या खाता ही नहीं है तब वह अपना समय व ऊर्जा दोनों की बचत करता है। इससे व्यक्ति का दिमाग सतर्क और शुद्ध होता है और वह खाना बनाने और खाने के विचार से दूर रहता है जिससे वह उत्तम विचार और ईश्वर के समीप रहता है। यह एक स्वयं द्वारा अपनाया गया विचार होता है तथा व्यक्ति इससे अनुशासित और आनंदित रहता है।
इसके अलावा व्यक्ति के शरीर को एक विराम मिलता है और वह अपने कार्य को पुनः तीव्र गति से शुरू करता है। शरीर की पाचन क्रिया के लिए भी उपवास का अपना एक महत्व है।
हम अपनी इन्द्रियों को जितना बढ़ाते हैं वो उतना ही और बढ़ने की मांग करती हैं। उपवास हमारी इंद्रियों पर नियंत्रण करने, अपनी इच्छाओं को उजागर करने और हमारे दिमाग का मार्गदर्शन करने में मदद करता है। उपवास ऐसा होना चाहिए जो शरीर को कमजोर न करे और शरीर चिड़चिड़ा ना हो अन्यथा उपवास का कोई महत्व नहीं रह जाता है।
भगवद् गीता हमें उचित खाने के लिए आग्रह करती है - न तो बहुत कम और न ही बहुत ज्यादा युक्त-अहार और सरल, शुद्ध और स्वस्थ भोजन (एक सात्विक आहार) खाने के लिए। जब हम उपवास न करते हों तब भी हमें इसका पालन करना चाहिए।
1. इन इंडियन कल्चर व्हाई डू वी... – स्वामिनी विमलानान्दा, राधिका कृष्णकुमार
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