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सिख धर्म की स्थापना “गुरु नानक देव जी” के द्वारा की गई थी। गुरु गोबिंद सिंह जी इस धर्म के अंतिम गुरु माने जाते हैं। 1699 में बैसाखी दिवस के बाद इंसानों के गुरु बनने की परंपरा समाप्त हो गई। इसके बजाय, सिखों की पवित्र धार्मिक पुस्तक ग्रंथ साहिब को ही सिख समुदाय के लिए शाश्वत मार्गदर्शक यानी गुरु का दर्जा दे दिया गया। आइये आज बैसाखी के अवसर पर, सिख धर्म में मानव गुरुओं और मसंद की अवधारणा को और अधिक गहराई से समझने का प्रयास करते हैं। इसके अतिरिक्त, हम यह भी जानेंगे कि आज का दिन आर्य समाज और बौद्ध समुदायों के लिए भी क्यों महत्व रखता है?
1500 के दशक में, गुरु नानक देव जी द्वारा प्रसारित “समानता का विचार” बहुत तेज़ी के साथ लोकप्रिय हो रहा था। इस नई और सराहनीय अवधारणा के कारण बड़ी संख्या में लोग सिख धर्म को अपना रहे थे। नए जुड़ रहे समुदाय को प्रबंधित करने के लिए, गुरु अमर दास जी (जो गुरु नानक के बाद तीसरे नेता थे) ने इन विचारों को फ़ैलाने और अपने क्षेत्र के लोगों की मदद करने के लिए कुछ अहम् कदम उठाए।
उनके आदेश पर लोगों द्वारा दिए गए पैसे का उपयोग सामुदायिक रसोई के लिए किया जाता था और जो भी अतिरिक्त पैसा जमा होता, उसे समुदाय की जरूरतों के लिए बचाया जाता था। प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों की जिम्मेदारी अलग-अलग नेताओं को सौंप दी। इन नेताओं को “मसंद” कहा जाता था।
बाद में, पांचवें गुरु, गुरु अर्जुन देव जी को सामुदायिक रसोई, आगंतुकों के रहने के लिए स्थान और अमृतसर में विशेष परियोजनाओं के निर्माण के लिए अधिक धन की आवश्यकता आन पड़ी। इसलिए उन्होंने लोगों से इन लागतों में मदद के लिए अपनी कमाई का एक हिस्सा देने को कहा।
शुरू-शुरू में तो सब कुछ ठीक से चला, क्योंकि मसंद ठीक से काम कर रहे थे। लेकिन समय के साथ, इनमें से कुछ मसंद भ्रष्ट हो गए और खुद ही पैसे लेने लगे तथा लोगों को और अधिक धन देने के लिए मजबूर करने लगे। 1690 के दशक तक इन कृत्यों के कारण लोग बहुत परेशान हो गए और उन्होंने इस बात की जानकारी तत्कालीन सिख गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी दी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने कोई भी देर न करते हुए, भ्रष्ट मसंदों को दंडित किया और मसंद प्रथा ही बंद कर दी।
1698 में, गुरु गोबिंद सिंह ने लोगों से मसंदों से लेन-देन बंद करने के लिए कह दिया। हालांकि वे इच्छा से जो भी चढ़ावा देना चाहते थे, उसे या तो बैंकर्स ड्राफ्ट (bankers draft) के माध्यम से भेज सकते थे, या अगले वर्ष 1699 में फसल उत्सव, बैसाखी के दौरान अपने साथ ला सकते थे।
मसंदों से मुक्ति पाकर सिख समुदाय के सभी लोग बहुत प्रसन्न थे। अब वे घृणित मसंदों के अनुरक्षण के बिना भी अपने गुरु से मिलने जा सकते थे। 30 मार्च, 1699 के दिन पूरे भारत से सिख, बैसाखी मनाने के लिए आनंदपुर में एकत्र हुए। दिन की शुरुआत भक्ति गायन से हुई, जिसे कीर्तन के नाम से जाना जाता है। कार्यक्रम के दौरान, गुरु गोबिंद सिंह जी अचानक ही खड़े हुए और अपनी तलवार म्यान से बाहर खींच ली। इसके बाद उन्होंने वहां उपस्थित स्वयंसेवकों को उनकी निष्ठा दिखाने के लिए अपना सिर कटवाने का अनुरोध कर दिया। यह दृश्य देखकर वहां खड़ी भीड़ हैरान और स्तब्ध रह गई।
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा अनुरोध को दो बार दोहराने के बाद, लाहौर से आनंदपुर पहुंचें, दया राम आगे बढ़े। गुरु गोबिंद सिंह जी उन्हें पास के एक तंबू में ले गये। तंबू से वह खून से सनी तलवार लेकर बाहर निकले और दूसरे स्वयंसेवक को तंबू के भीतर आने का आग्रह किया। अगले नंबर पर रोहतक से धर्म देव आगे आए। यह प्रक्रिया तब तक दोहराई गई जब तक पांच स्वयंसेवक तंबू के भीतर नहीं चले गए।
कुछ समय बाद, गुरु गोबिंद सिंह जी पांच स्वयंसेवकों के साथ तंबू से बाहर निकले। उन्होंने अब पीले वस्त्र, नीली पगड़ी और तलवारें धारण की हुई थी। इन पांचों को पंच प्यारे नाम दिया गया। इनके नाम क्रमशः दया राम, धर्म देव, द्वारका से मोहकम चंद, जगन्नाथ पुरी से हिम्मत और बीदर से साहिब चंद थे।
इसके बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने उन्हें खालसा में शामिल करने की घोषणा की। उन्होंने पानी और पतास (चीनी के फूले) का मिश्रण तैयार किया और प्रार्थना करते समय इस मिश्रण को दोधारी तलवार से आपस में घोल दिया। अमृत के नाम से जाना जाने वाला यह मिश्रण, पाँचों स्वयंसेवकों को पीने के लिए दिया गया। उन्होंने इसे अपने बालों और आंखों पर भी छिड़का था। फिर उन्हें अपनी नई जाति, “खालसा भाईचारे” के प्रतीक के रूप में उसी बर्तन से पीने के लिए कहा गया। उन सभी ने जातिगत पहचान के अंत को दर्शाने के लिए उपनाम 'सिंह' अपना लिया। आखिर में उन सभी ने “वाहिगुरु जी का खालसा; वाहेगुरु जी की फ़तेह” (खालसा भगवान का है, जीत भगवान की है) की गर्जना की। जो लोग खालसा ब्रदरहुड में शामिल हुए, उन्होंने अपने व्यवहार में जाति, पूर्व धर्म, अंधविश्वास, वंश या पेशे की उपेक्षा करने की प्रतिज्ञा की। 1699 की इस बैसाखी और 1700 की होली के बीच, लगभग 80,000 सिखों ने खंडे-दी-पाहुल (दोधारी तलवार की दीक्षा) ली। इस प्रकार खालसा का जन्म हुआ और मसंद प्रथा का अंत हुआ।
क्या आप जानते हैं कि 1875 में आर्य समाज की स्थापना भी बैसाखी के दिन ही हुई थी। मूल रूप से यह एक हिंदु संप्रदाय है जो, मूर्ति पूजा के बजाय मार्गदर्शन के लिए हिंदू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथ वेदों में विश्वास रखता है। आर्य समाज के अलावा बौद्ध समुदाय के लोग भी बैसाखी मनाते हैं। उनके लिए, यह दिन ज्ञान और आत्मज्ञान का प्रतीक है। दरअसल सिद्धार्थ गौतम ने पुनर्जन्म के चक्र को तोड़ते हुए बैसाखी के दिन ही निर्वाण (दुख और व्यक्तिगत अस्तित्व से मुक्ति) प्राप्त किया था। भारत में सिख समुदाय द्वारा हर साल 13 अप्रैल के दिन बैसाखी मनाई जाती है। दिलचस्प बात यह है कि हर 36 साल में एक बार, इसे भारतीय सौर कैलेंडर के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए 14 अप्रैल के दिन भी मनाया जाता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/ysswbnv3
https://tinyurl.com/bdh6zp7m
https://tinyurl.com/yp5dnpfu
चित्र संदर्भ
1. खालसा की स्थापना करते गुरु गोबिंद सिंह जी को दर्शाता एक चित्रण (picryl)
2. गुरु नानक देव जी को दर्शाता एक चित्रण (garystockbridge617)
3.महाराजा रणजीत सिंह के दरबार की पेंटिंग को संदर्भित करता एक चित्रण (garystockbridge617)
4. गुरु गोबिंद सिंह जी के आह्वान को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. पांच प्यारों के साथ खालसा की स्थापना करते गुरु गोबिंद सिंह जी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. खालसा पंथ के घुड़सवारों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. आर्य समाज द्वारा हवन के आयोजन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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