Machine Translation

Base Language
ENTER RAMPUR CITY PORTAL
Click to Load more

नई दिल्ली के छोटे अफ़ग़ानिस्तान ' में आनंद ले सकते हैं आप प्रसिद्ध अफ़ग़ानी व्यंजनों का

enjoy famous Afghani cuisine in Little Afghanistan of New Delhi

Rampur
26-07-2024 09:26 AM

अपने बेहतरीन स्वाद और किस्मों के लिए जाना जाने वाला अफ़ग़ानी व्यंजन दुनिया भर में काफी प्रसिद्ध है। अफ़ग़ानी व्यंजनों पर मंगोलियाई, फ़ारसी, भारतीय और भूमध्यसागरीय जैसी विभिन्न संस्कृतियों का भी प्रभाव देखा जा सकता है। चाहे शाकाहारी हो या मांसाहारी, अफ़ग़ानी व्यंजनों को हमारे देश भारत में भी खूब पसंद किया जाता है। हैदराबाद से दिल्ली तक, अफ़ग़ानी टिक्का, मलीदा, शोरबा और शीर खुरमा जैसे अफ़ग़ानी व्यंजन लोगों को खूब पसंद आते हैं। हमारे शहर रामपुर का तो अफ़गानों से गहरा नाता है। आप तो जानते ही हैं कि रामपुर को अफ़ग़ानिस्तान के रोहिल्ला पठानों द्वारा ही स्थापित किया गया था। तो, आइए इस लेख में, अफ़ग़ानी भोजन, संस्कृति, परंपराओं और भारतीय व्यंजनों पर इनके प्रभाव के बारे में जानते हैं। हम उन अफ़ग़ानी व्यंजनों के बारे में भी चर्चा करेंगे, जिनका भारत में बहुत आनंद लिया जाता है जैसे अशक, मंटू, अफ़ग़ानी नान और भी बहुत कुछ। इसके साथ ही हम यह भी देखेंगे कि नई दिल्ली के लाजपत नगर को 'छोटा अफ़ग़ानिस्तान ' क्यों कहा जाता है और यहां के कुछ सर्वश्रेष्ठ अफ़ग़ानी रेस्तरां और भोजनालयों का भी पता लगाएंगे।
अफ़ग़ानी भोजन पर ईरान, भारत और मंगोलिया का प्रभाव देखने को मिलता है। अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रीय व्यंजन काबुली पुलाव है, जिसे चावल, गाजर, किशमिश और मांस के साथ पकाया जाता है। अफ़ग़ानिस्तान में नाश्ते, दोपहर के खाने और रात के खाने के लिए कुछ पकवान निश्चित हैं, आइए जानते हैं इनके बारे में:
अफगानी नाश्ता:
🍽️ बहुत सारे अंडे, आलू, टमाटर और मिर्च जैसी सब्ज़ियों के साथ तले हुए
🍽️ रोहत, एक मीठी रोटी
🍽️ पनीर (अकेले या किशमिश के साथ)
🍽️ सैम्बोसा (समोसा), एक स्वादिष्ट पेस्ट्री जो मांस से भरी होती है,
🍽️ चाय
दोपहर का भोजन एवं रात का खाना:
अफ़ग़ानी दोपहर का भोजन और रात्रिभोज दोनों समान ही होते हैं। दोनों भोज में व्यंजनों की एक विशेष श्रृंखला शामिल की जाती है। इसमें निश्चित रूप से विभिन्न प्रकार के मांस और चावल के व्यंजन शामिल होते हैं। अधिकांश मध्य पूर्वी देशों की तरह, अफ़ग़ानी भोजन में मुख्य रूप से चावल, मांस और सब्जियों से बने 'साझा' व्यंजन देखने को मिलते हैं। सबसे ज़्यादा राष्ट्रीय व्यंजन, काबुली पुलाव को पसंद किया जाता है। मेमना कबाब बहुत लोकप्रिय है, और आमतौर पर चावल के साथ परोसा जाता है।
इसके अलावा निम्नलिखित व्यंजन विशिष्ट रूप से तैयार किए जाते हैं:
🍽️ कद्दो बौरानी - एक मीठी कद्दू की सब्ज़ी
🍽️ आलू का सलाद और बीफ कबाब
🍽️ मेम्ने और पालक का स्टू
🍽️ पालक और दही से भरी फ्लैटब्रेड
🍽️ मंटू - कीमा या प्याज़ से भरे उबले हुए पकौड़े जिनके ऊपर टमाटर या दही की चटनी डाली जाती है
🍽️ अशक - चिव्स से भरे पकौड़े और ऊपर से लहसुन दही की चटनी
सलाद
🍽️ लस्सी (एक दही पेय जो कभी-कभी नमकीन होता है। यह भोजन को पचाने में मदद करता है)
🍽️ गर्मी के दिनों में ठंडक पाने के लिए दही, पानी और पुदीने से बना पेय दूध
🍽️नान ब्रेड या फ्लैटब्रेड
मिठाई:
मिठास के लिए अफ़ग़ानिस्तान में फल बहुत खाए जाते हैं, विशेषकर अनार, मीठे खरबूजे, खुबानी, आलूबुखारा, जामुन और अंगूर। इसके अलावा मिठास के लिए, मुँह में घुल जाने वाली कुकीज़ जैसे कुल्चे-अब-ए-दंदान पसंद की जाती हैं, ज़्यादातर विशेष अवसरों पर।
अफ़ग़ानी भोज परंपराएं:
अफ़ग़ानी घरों में मेहमानों के साथ राजघरानों जैसा व्यवहार किया जाता है। यहां भोजन करने की कुछ दिलचस्प परंपराएं हैं जो निम्न प्रकार हैं:
महिलाएं और पुरुष आमतौर पर अलग-अलग भोजन करते हैं। यह इस पर निर्भर करता है कि परिवार कितना धार्मिक है।
मेहमानों को विशेष रूप से पकाए गए विशिष्ट और परिवार की क्षमता के अनुसार सबसे ज़्यादा व्यंजन परोसे जाते हैं।
रात का खाना आम तौर पर दस्तरखान पर खाया जाता है, जो फर्श पर बिछा हुआ एक मेज़पोश होता है।
आमतौर पर कटलरी का उपयोग नहीं किया जाता है और भोजन करने के लिए हाथों का उपयोग किया जाता है, विशेष रूप से दाहिने हाथ का।
एक अतिथि को हमेशा मेज़ के शीर्ष पर सम्माननीय स्थान दिया जाता है।
भारत में लोकप्रिय अफ़ग़ानी व्यंजन:
1.) काबुली पुलाव: इस पुलाव को अफ़ग़ानी व्यंजनों का ताज कहा जाता है और इसे बासमती चावल के साथ गाजर, बादाम और किशमिश जैसे ढेर सारे सूखे मेवे, हरी इलायची, दालचीनी और जायफल जैसे मीठे मसालों और आख़िर में गौमांस या मेमने के मांस का उपयोग करके बनाया जाता है।
2.) अफ़ग़ानी चिकन: यह निश्चित रूप से अफ़ग़ानी व्यंजनों के सबसे लोकप्रिय व्यंजनों में से एक है। यह हल्का मसालेदार चिकन व्यंजन है जिसका आनंद टिक्का और ग्रेवी दोनों के रूप में लिया जा सकता है। टिक्के को हरी चटनी और प्याज़ के साथ आनंद लिया जाता है। ग्रेवी ताज़ी क्रीम, दही और काजू के पेस्ट का उपयोग करके तैयार की जाती है और इसका स्वाद अविश्वसनीय होता है। इसका आनंद रुमाली रोटी और प्याज़ के छल्लों के साथ ऊपर से हरी चटनी के साथ सबसे अच्छा आता है।
3.) अफ़ग़ानी नान: अफ़ग़ान फ्लैट ब्रेड अफ़ग़ानिस्तान की रोजमर्रा की रोटी है। इसे फ़ारसी में नोनी अफ़ग़ानी, नान-ए- अफ़ग़ान, अफ़ग़ानी नान या नान-ए बारबरी भी कहा जाता है। अफ़ग़ान फ्लैटब्रेड विभिन्न आकारों में पकायी जाती है। अफ़ग़ान फ्लैटब्रेड आमतौर पर या तो गेहूं या मैदा से बनाई जाती है।
4.) बोलानी: बोलानी अफ़ग़ानिस्तान में सबसे लोकप्रिय स्ट्रीट फूड में से एक है। यह कद्दू, मसले हुए आलू, पालक, मेमने/बीफ मांस या दाल से भरी हुई एक फ्लैटब्रेड है। इस फ्लैटब्रेड का आनंद मलाईदार पुदीने के साथ लिया जा सकता है।
5.) मलीदा: यह ईद और नौरोज़ जैसे विभिन्न त्योहारों पर तैयार की जाने वाली एक पारंपरिक मिठाई है। इस डिश को बनाने के लिए मैदा, यीस्ट, बेकिंग सोडा और थोड़े से तेल का इस्तेमाल किया जाता है. फिर इस ब्रेड को ग्राइंडर जार में पीसकर बारीक ब्रेडक्रंब बनाया जाता है। इसके बाद, इन ब्रेडक्रंब को चीनी और इलायची पाउडर के साथ तेल में पकाया जाता है और आम तौर पर चाय के साथ परोसा जाता है।
6.) शोरवा: इसे सूप के नाम से भी जाना जाता है, यह धीमी गति से पकाया जाने वाला व्यंजन है और सर्दियों के लिए एकदम सही है। यह अफ़ग़ानी व्यंजन आलू, बीन्स और मेमने/बीफ मांस का उपयोग करके बनाया जाता है। अक्सर, शोरवा को पारंपरिक अफ़ग़ानी मसालों के साथ प्याज़, टमाटर, धनिया के साथ स्वादिष्ट बनाया जाता है और रोटी के साथ इसका आनंद लिया जाता है।
7.) मंटू: मंटू बिल्कुल मोमो की तरह होता है, लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि ये ढेर सारे अफ़ग़ानी मसालों के साथ बनाया जाता है। यह एक उबली हुई पकौड़ी के सामान होता है जिसमें मसालेदार कीमा बनाया हुआ मेमने का मांस भरा होता है। इन पकौड़ों को ज्यादातर टमाटर-दही डिप या खट्टी पनीर सॉस के साथ परोसा जाता है।
8.) कोरमा: सभाओं में मुख्य व्यंजन के रूप में लोकप्रिय यह व्यंजन प्याज़ -टमाटर आधारित स्टू है और इसे पहले प्याज़ भूनकर और बाद में टमाटर डालकर बनाया जाता है। इस ग्रेवी में कई तरह की सब्ज़ियाँ और मसाले डालकर पकाए जाते हैं | अंत में, पकवान का मुख्य घटक, जो आमतौर पर मांस होता है, जोड़ा जाता है।
9.) शीर खुरमा: यह अफ़ग़ानिस्तान की लोकप्रिय मिठाइयों में से एक है और बहुत सारे मेवे, दूध, खजूर और चीनी से बना सेवई का हलवा है। यह मिठाई समृद्ध और मलाईदार है और इसमें गुलाब जल का स्वाद भी होता है।
क्या आप जानते हैं कि दक्षिणी दिल्ली के लाजपत नगर इलाके को 'लिटिल अफ़ग़ानिस्तान ' के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यहां लगभग 100 अफ़ग़ान शरणार्थी परिवारों का समूह रहता है, जिनके द्वारा लगभग दर्जन भर भोजनालय चलाए जाते हैं। इन भोजनालयों के गर्म मिट्टी के ओवन से गरम कबाब और ताज़ी पकी हुई ब्रेड की मनमोहक सुगंध आती है। मटन बड़े बर्तनों में पकाया जाता है, जबकि स्थानीय नानवाई, या सड़क पर बेकरी वाले, आटादार अफ़ग़ान नान बेचने का एक तेज़ व्यवसाय करते हैं।
हाल के वर्षों में, यहां बड़े बड़े रेस्तरां का प्रसार भी देखा गया है। 1979 में सोवियत- अफ़ग़ान युद्ध शुरू होने के तुरंत बाद यहां प्रवासियों का आना शुरू हो गया था। 2001 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण करने के बाद यहां और भी अधिक लोग आने लगे। इनमें से अधिकांश विस्थापित अफ़ग़ान अब दिल्ली के मध्यवर्गीय क्षेत्रों जैसे लाजपत नगर, भोगल और में बस गए हैं।
यहां के भोजनालय सर्वोत्कृष्ट अफ़ग़ान भोजन, जैसे कि राजमा, काली फलियों से बनी करी, काबुली पुलाव, बोलानी, या भरवां फ्लैटब्रेड, बैंगन और टमाटर से बना एक व्यंजन बोरानी, साथ ही नान, रोगानी और लवासा जैसे कबाब और ब्रेड प्रस्तुत करते हैं। यहां के कुछ प्रसिद्ध रेस्तरां, जहां आप अफ़ग़ानी व्यंजनों का आनंद ले सकते हैं निम्नलिखित हैं:
1.काबुल दिल्ली रेस्तरां - मांस प्रेमियों के लिए एक बेहतरीन जगह है। लेकिन साथ ही यह रेस्तरां दर्शाता है कि अफ़ग़ानी व्यंजन न केवल मांस उन्मुख व्यंजन हैं, बल्कि अपने ग्राहकों को शानदार शाकाहारी विकल्प भी प्रदान करते हैं, वह भी किफायती कीमत पर।
2. अफ़ग़ान दरबार रेस्तरां- यह आपके आगामी पारिवारिक रात्रिभोज के लिए एकदम सही विकल्प है, जो किशमिश के साथ मुंह में पानी ला देने वाला मेमना पुलाव जैसे प्रामाणिक अफ़ग़ानी व्यंजन परोसता है। आपको उनके स्वादिष्ट कबाब और नान भी पसंद आएंगे।
3. मज़ार- मज़ार पारंपरिक शैली में अफ़ग़ानी व्यंजन बनाने वाला एक उत्तम डाइनिंग रेस्तरां है, जिसमें पारंपरिक अफ़ग़ानी व्यंजनों का स्वागत किया जा सकता है। यह रेस्तरां न केवल स्वाद में बल्कि इतिहास में भी समृद्ध है।
4. चोपान कबाब- अपने मनोरम आतिथ्य के लिए प्रसिद्ध, यह रेस्तरां आपको अपने शानदार अफ़ग़ानी व्यंजनों के साथ पाक कला का आनंद प्रदान करता है जो इतिहास और स्वाद से समृद्ध है । उनके कुछ बेहतरीन व्यंजन जैसे कोरमा-ए-गोश्त, जिगर कबाब और ज़ेरेश्क पुलाव बा मोर्ग हैं।
5. नूशे जून - नूशे जून आपके लिए विभिन्न प्रकार के कबाब थाली और पुलाव के साथ प्रामाणिक ईरानी स्वाद प्रस्तुत करता है। यहां का मांस कोमल, रसदार और शानदार और स्वादिष्ट स्वादों से भरपूर है, जो ईरानी ब्रेड के साथ अच्छी तरह से मेल खाता है और फ़ारसी स्वादों की विशिष्टता को प्रदर्शित करता है। रेस्तरां का उद्देश्य राजधानी के लोगों के लिए भोजन के रूप में ईरानी संस्कृति और परंपराओं को लाना है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/f8hxxtfm
https://tinyurl.com/k5m58j35
https://tinyurl.com/6acvc26t
https://tinyurl.com/4dpn5yht

चित्र संदर्भ
1. काबुली पुलाव को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. कोफ़्ता (मीटबॉल) और मकई के साथ चावल को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. नान को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. चोपन कबाब को संदर्भित करता एक चित्रण (Needpix)
5. काबुली पुलाव को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. अफ़ग़ानी चिकन को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
7. अफ़ग़ानी नान को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
8. बोलानी को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
9. मलीदा को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
10. शोरवा को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
11. मंटू को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
12. कोरमा को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
13. शीर खुरमा को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
14. काबुल में अफ़गान भोजन की एक मेज को दर्शाता चित्रण (wikimedia)

https://www.prarang.in/Rampur/24072610730





जोंक की भांति मेज़बान पौधों का पोषण चूस लेते हैं, परजीवी पौधे

Like leeches parasitic plants suck nutrients from the host plants

Rampur
25-07-2024 09:44 AM

आपने "दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चालाने" वाली कहावत ज़रूर सुनी होगी। इस कहावत का अर्थ होता है, किसी दूसरे व्यक्ति को ढाल बनाकर अपना काम निकलवा लेना। लेकिन मज़े की बात यह है कि इंसान तो इंसान, 'परजीवी' पौधे भी इस कहावत को ज्यों की त्यों सही साबित कर देते हैं। आज हम इन्हीं परजीवी पौधों के बारे में जानेंगे जो दूसरे पौधों का खून (पोषण) चूस कर अपनी ठाठ करते हैं।
“परजीवी पौधे (Parasitic Plants), अपने पूरे या आंशिक पोषण के लिए दूसरे मेज़बान पौधे (host plants) पर निर्भर होते हैं, लेकिन इसके बदले में वह मेज़बान पौधों को कुछ भी नहीं देते। इसके स्पष्ट तौर पर समझने के लिए आप जोंक (Leech) का उदाहरण ले सकते हैं, जो इंसानों के शरीर पर चिपककर इंसानों का खून चूस लेती है, लेकिन इसके बदले में इंसानों को कुछ भी नहीं देती। कुछ मामलों में तो परजीवी पौधा, मेजबान पौधे को गंभीर रूप से नुकसान भी पहुँचा सकता है। परजीवी पौधों की सभी प्रजातियाँ एंजियोस्पर्म होती हैं (Angiosperms) यानी इन पोंधों की सभी प्रजातियों में फूल उगते हैं।
हालांकि जिम्नोस्पर्म (Gymnosperm) यानी गैर-फूल वाले पौधों की एक प्रजाति, पैरासिटैक्सस उस्ता (Parasitaxus usta), को भी परजीवी माना जाता है। लेकिन यह वास्तव में एक माइकोहेटेरोट्रॉफ़ (Mycoheterotroph) हो सकता है, जिसका अर्थ है कि यह अपना पोषण कवक (Fungus) से प्राप्त करता है। आमतौर पर परजीवी पौधों की प्रजातियों के फूल अक्सर गैर-परजीवी पौधों के ही समान होते हैं। लेकिन इसमें से विशाल रेफ्लेशिया फूल (Rafflesia flower) और विचित्र, मांसल हाइडनोरा पुष्पगुच्छ (Hydnora inflorescence) जैसे कुछ उल्लेखनीय अपवाद भी होते हैं, जिनकी आकृति बहुत ही विचित्र होती है। ये आलसी पौधे प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) के माध्यम से अपना भोजन बनाने के बजाय, अन्य पौधों से अपना भोजन और पानी निचोड़ते हैं।
परजीवी पौधे अपने मेज़बान पौधे के भीतर प्रवेश करने या उनसे जुड़ने के लिए "हौस्टोरियम (haustorium)" नामक संरचना का उपयोग करते हैं। यह विशेष अंग दो पौधों के बीच एक संबंध बनाता है, जिसका उपयोग परजीवी पौधे , मेजबान पौधे से पोषण को निकालने के लिए करते हैं। "रैफ्लेसिया (Rafflesia)" और "थर्बर का स्टेमसकर (Thurber's stemsucker)", जैसे कुछ परजीवी, पौधे के भीतर बढ़ते हैं और इनके केवल फूल बाहर निकलते हैं, जबकि अन्य अपने हस्टोरिया को बाहरी रूप से जोड़ते हैं। परजीवी पौधे कई अलग-अलग प्रकार के वातावरणों जैसे कि वर्षावन, घास के मैदान और यहाँ तक कि रेगिस्तान भी पनप सकते हैं!
अंटार्कटिका और उत्तरी ध्रुव (Antarctica and North Pole) जैसे पृथ्वी के सबसे ठंडे स्थानों को छोड़कर परजीवी पौधे लगभग हर जगह पाए जाते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि सभी परजीवी पौधे गैर-परजीवी प्रजातियों (non-parasitic species) से विकसित हुए हैं। हालांकि कुछ पौधों को "हेमिपैरासाइट्स (hemiparasites)" के रूप में जाना जाता है और वे प्रकाश संश्लेषण कर सकते हैं, लेकिन अपने मेजबान से भी पानी और पोषण खींचते हैं। वहीँ अन्य परजीवी पौधे, जिन्हें "होलोपैरासाइट्स" के रूप में जाना जाता है, प्रकाश संश्लेषण नहीं कर सकते हैं और भोजन के लिए पूरी तरह से अपने मेज़बान पर निर्भर रहते हैं।
आइये अब परजीवी पौधों के कुछ उदाहरण देखते हैं:
☘︎ कुस्कटा (Cuscuta): कुस्कटा को आमतौर पर "डोडर (Dodder)" के रूप में भी जाना जाता है। इसकी कोई जड़ या पत्तियां नहीं होती हैं। इनके बजाय इन्हें इनके पीले या नारंगी तने से पहचाना जा सकता है, जो "मॉर्निंग ग्लोरी (Morning Glory)" परिवार से संबंधित होने के कारण रेशेदार, बालों जैसे दिखते हैं। कुस्कटा एक बहुत ही आक्रामक परजीवी होता है, जो अपने मेज़बान पौधे के पोषक तत्वों को निचोड़कर रख देता है। चूंकि कुस्कटा एक अनिवार्य परजीवी (Obligate Parasite) है, इसलिए यह बिना मेज़बान के जीवित भी नहीं रह सकता। इन पौधों को पनपने के 5-10 दिनों के भीतर एक मेज़बान ढूँढ़ना पड़ता है ।
☘︎ मिस्टलेटो (Mistletoe): मिस्टलेटो, सांतालेल्स क्रम (Santalales order) के पौधों का एक समूह है, जो दुनिया भर में पाया जाता है। मिस्टलेटो की केवल कुछ प्रजातियाँ ही परजीवी होती हैं। इसका बीज एक चिपचिपे पदार्थ से ढका होता है जो इसे अपने नए मेज़बान से चिपकने में मदद करता है।
☘︎ ऑस्ट्रेलियाई क्रिसमस ट्री (न्यूत्सिया फ्लोरिबुंडा) (Australian Christmas Tree (Nuytsia floribunda)): ऑस्ट्रेलियाई क्रिसमस ट्री (न्यूत्सिया फ्लोरिबुंडा) प्रकाश संश्लेषण कर सकता है, लेकिन कभी-कभी अपने पड़ोसी पौधों से पानी चुरा लेता है। यह अतिरिक्त पानी इसे शुष्क मौसम में भी बढ़ने और फूलने में मदद करता है। यह पेड़ कई दूसरे पौधों की जड़ों से जुड़कर अपने पानी की निरंतर आपूर्ति करता रहता है। यह अपने हौस्टोरिया (haustoria) में गिलोटिन (guillotine) जैसी संरचना के साथ मेज़बान के ज़ाइलम वाहिकाओं (xylem vessels) (जड़ों से पत्तियों तक पानी और खनिजों को ले जाने वाला ऊतक) को काटकर ऐसा करता है।
☘︎ भारतीय पेंटब्रश या कैस्टिलेजा (Indian Paintbrush or Castilleja): भारतीय पेंटब्रश, जिसे कैस्टिलेजा के नाम से भी जाना जाता है, आंशिक परजीवी का एक आकर्षक उदाहरण है। जहाँ अन्य परजीवी पौधों के विपरीत जो अपने सभी पोषक तत्वों के लिए पूरी तरह से अपने मेज़बान पर निर्भर होते हैं, वहीँ भारतीय पेंटब्रश थोड़ा अधिक आत्मनिर्भर होता है। भारतीय पेंटब्रश वास्तव में अपने जीवित रहने के लिए आवश्यक कुछ पोषक तत्वों का उत्पादन स्वयं कर सकता है। हालाँकि, इसके पास एक चतुर चाल भी है - यह अपनी जड़ों को तब तक फैलाता है जब तक कि वे आस-पास के पौधों की जड़ों तक नहीं पहुँच जाते और उनसे जुड़ नहीं जाते। एक बार जब यह उस कनेक्शन को बना लेता है, तो भारतीय पेंटब्रश अपने मेज़बान पौधे से पानी और खनिज चुराना शुरू कर सकता है। भारतीय पेंटब्रश की सबसे विशिष्ट विशेषताओं में से एक इसके चमकीले, आकर्षक फूल भी हैं। कैस्टिलेजा जीनस में लगभग 200 विभिन्न प्रजातियाँ हैं, और वे रेगिस्तान से लेकर घास के मैदानों तक विभिन्न वातावरणों में पाए जा सकते हैं। भारतीय पेंटब्रश के फूल हमिंगबर्ड (Hummingbird) को बहुत पसंद होते हैं। इसके फूलों में अन्य पक्षियों के आराम करने के लिए कोई जगह नहीं होती है, लेकिन हमिंगबर्ड मिठास निकालते समय मंडराती रह सकती हैं।
☘︎ विशाल पद्म (रैफ्लेसिया अर्नोल्डी) (Corpse Flower (Rafflesia arnoldii)): विशाल पद्म, को वैज्ञानिक रूप से रैफ्लेसिया अर्नोल्डी (Rafflesia arnoldii) के नाम से भी जाना जाता है। इस परजीवी पौधे में दुनिया का सबसे बड़ा फूल उगता है। ये विशाल फूल एक मीटर (3 फीट से अधिक) तक बढ़ सकते हैं और इनका वज़न 11 किलोग्राम (24 पाउंड) तक हो सकता है। लेकिन यह फूल काफी बदबूदार भी होता है। यह फूल अपनी भयानक, सड़ी हुई मांस की गंध के लिए प्रसिद्ध है। यह दुर्गंध उन मक्खियों को आकर्षित करती है जो विशाल पद्म को परागित करती हैं। अधिकांश पौधों के विपरीत, विशाल पद्म अपना भोजन बनाने के लिए प्रकाश संश्लेषण नहीं कर सकता है। इसके बजाय, यह आस-पास की टेट्रास्टिग्मा लताओं की जड़ों से पोषक तत्व चुराता है। यह परजीवी जीवनशैली विशाल पद्म को अपनी सारी ऊर्जा उन विशाल, बदबूदार फूलों के उत्पादन में लगाने की अनुमति देती है।
हालांकि ऐसा नहीं है कि परजीवी पौधे पूरी तरह से अपने मेज़बान पौंधों से पोषण ही निचोड़ते हैं। अच्छे बुरे इंसानों की तरह इनके भी कुछ लाभ होते हैं।
वास्तव में, कई परजीवी पौधों का प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र और मानव समाज दोनों पर सकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। जैसे:
:𓇢𓆸 जटिल संबंध: जब कोई परजीवी पौधा कई मेज़बान पौधों से जुड़ता है, तो वह एक ऐसा नेटवर्क बना सकता है जो इन मेज़बानों के बीच व्यवस्थित संकेतों को स्थानांतरित करने की अनुमति देता है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है।
𓇢𓆸 कीस्टोन प्रजातियाँ (Keystone Species): परजीवी पौधे कई पारिस्थितिकी तंत्रों में कीस्टोन प्रजाति के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते पाए गए हैं। यह प्रमुख प्रजातियों की वृद्धि को नियंत्रित करके, जैव विविधता को संतुलित रख सकते हैं।
𓇢𓆸 पोषक चक्रण: परजीवी पौधे, पोषक चक्रण को बढ़ा सकते हैं और शाकाहारी और परागणकों जैसे अन्य जीवों को संसाधन प्रदान कर सकते हैं। इससे पारिस्थितिकी तंत्र में व्यापक प्रभाव पड़ सकता है।
𓇢𓆸 मानवीय उपयोग: परजीवी पौधों का उपयोग दुनिया भर में औषधीय और सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए किया जाता रहा है। कुछ प्रजातियाँ खाने योग्य फल भी प्रदान करती हैं।
भले ही परजीवी पौधे कई लाभ प्रदान करते हैं, लेकिन इनका इस्तेमाल और उत्पादन हमेशा सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए। अनियंत्रित प्रसार और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान के जोखिम से बचाने के लिए उन्हें उनकी मूल भौगोलिक सीमा के बाहर फैलने से रोकना जरूरी है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/25yt3729
https://tinyurl.com/27vl6x4j
https://tinyurl.com/27f4h87u
https://tinyurl.com/yymjz5zh

चित्र संदर्भ
1. परजीवी पौधे को दर्शाता चित्रण (flickr)
2. पाकिस्तान में, बबूल के पेड़ पर पाए जाने वाले स्टेम होलोपैरासाइट, कुस्कटा को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. परजीवी कवक को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. कुस्कटा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. मिस्टलेटो को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. ऑस्ट्रेलियाई क्रिसमस ट्री को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
7. भारतीय पेंटब्रश या कैस्टिलेजा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
8. विशाल पद्म को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
9. एक व्यक्ति के समक्ष विशाल पद्म को दर्शाता चित्रण (wikimedia)

https://www.prarang.in/Rampur/24072510734





रामपुर नहीं, परंतु भारत के उत्तरी हिमालयी क्षेत्रों को सुशोभित करते हैं, शंकुधारी वन

Not Rampur but coniferous forests adorn the northern Himalayan regions of India

Rampur
24-07-2024 09:45 AM

क्या आप जानते हैं कि, हमारा रामपुर शहर समुद्र तल से 288 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जो इसे शंकुधारी पौधों (Conifer Plants) के उगने के लिए अनुपयुक्त बनाता है। शंकुधारी, सदाबहार पेड़ होते हैं, और उनकी पत्तियां सुई के आकार की होती हैं। भारत में शंकुधारी वन, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन जंगलों में देवदार, चीड़ और स्प्रूस जैसी प्रजातियां देखने को मिलती हैं। 2,084 मीटर की ऊंचाई पर स्थित, नैनीताल भारत के सबसे खूबसूरत देवदार पेड़ों का घर है। इस लेख में आज हम शंकुधारी पेड़ों के बारे में जानेंगे। वे भारत और हिमालयी क्षेत्र में कितनी ऊंचाई तक बढ़ सकते हैं, और पूरे भारत में उनके वितरण के बारे में भी जानेंगे। इसके अतिरिक्त, हम यह देखेंगे कि, शंकुधारी वृक्ष जलवायु व पर्यावरण के लिए किस प्रकार लाभदायक हैं। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि, तराई क्षेत्र क्या है, और यह इतना महत्वपूर्ण क्यों है।
भारत में शंकुधारी वन, विशिष्ट और मनोरम रूप से वितरित है। भौगोलिक तौर पर, ये मुख्य रूप से उत्तरी और उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में केंद्रित हैं। ये जंगल हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे राज्यों में पाए जाते हैं। विशाल हिमालय में बसे शंकुधारी पेड़ों के ये क्षेत्र, अद्वितीय पारिस्थितिक क्षेत्र को प्रदर्शित करते हैं। भारत में , अधिक ऊंचाई – समुद्र तल से 1,500 से 3,000 मीटर – पर स्थित ये क्षेत्र, शंकुधारी वनस्पतियों के लिए आश्रय स्थल बनाते हैं।
ऊंचाई व ठंडी जलवायु इन वनों के विकास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कुरकुरी पहाड़ी हवा और तापमान में मौसमी बदलाव, इन क्षेत्रों में पाई जाने वाली विशिष्ट शंकुधारी प्रजातियों की वृद्धि और स्थिरता में योगदान करते हैं।
शंकुधारी वनों का पारिस्थितिक क्षेत्र, 3,000 से 4,000 मीटर की ऊंचाई तक, 27,500 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र तक फैला है। यह नेपाल में गंडकी नदी से लेकर, पूर्व में भूटान और अरुणाचल प्रदेश एवं तिब्बत तक फैला हुआ है।
पूर्वी हिमालय को बंगाल की खाड़ी के मानसून से वर्षा मिलती है, इसलिए, यह पश्चिम की तुलना में अधिक गीला है, और इसकी वृक्षरेखा अधिक(पश्चिमी हिमालय में 3,000 मीटर की तुलना में 4,500 मीटर) है।
नीचे शंकुधारी वनों के मुख्य जलवायु व पर्यावरण संबंधी लाभों को सूचीबद्ध किया गया है:
१.कार्बन डाइऑक्साइड निस्पंदन: शंकुधारी पेड़ों की एक उल्लेखनीय विशेषता, पूरे वर्ष अपनी सुइनुमा पत्तियों को बनाए रखने की क्षमता है। यह पर्णपाती पेड़ों से भिन्न है, जो पतझड़ और सर्दियों में अपने पत्ते गिरा देते हैं। इनकी निरंतर पत्तियां, उन्हें जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में एक अनूठा लाभ देती हैं। ठंड के महीनों के दौरान, जब कई अन्य पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं, शंकुधारी पेड़ सक्रिय रूप से वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं। जबकि, पर्णपाती पेड़ शीतकालीन अवकाश लेते हैं, शंकुधारी वृक्ष अथक रूप से हमारी हवा को शुद्ध करना जारी रखते हैं।
२.जलवायु-अनुकूलता: विकास के दौरान, शंकुधारी पेड़ों ने ठंडी और शुष्क जलवायु में पनपने की क्षमता विकसित की है। आम तौर पर, शंकुधारी पेड़ अन्य पेड़ों की तुलना में अधिक अनुकूली होते हैं। उनकी पत्तियां और गहरी जड़ प्रणाली, उन्हें पानी को कुशलतापूर्वक बनाए रखने और उपयोग करने में सक्षम बनाती है, जिससे वे सूखे की अवधि के लिए प्रतिरोधी बन जाते हैं। इसके अलावा, उनकी मोटी छाल और राल युक्त तना, ठंड और कठोर मौसम की स्थिति के खिलाफ अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करते हैं। जबकि, पर्णपाती पेड़ अक्सर प्रतिकूल बाहरी प्रभावों से खुद को बचाने के लिए अपने पत्ते गिरा देते हैं, शंकुधारी पेड़ तत्वों का सामना करते हैं और बढ़ते रहते हैं।
३.राल का उत्पादन: राल उत्पादन कई शंकुधारी प्रजातियों की एक आकर्षक विशेषता है। पेड़ की छाल से टपकने वाला यह चिपचिपा पदार्थ, शंकुवृक्ष के जीवित रहने की रणनीतियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सबसे पहले, राल पानी को बनाए रखने में सहायता करता है। यह एक अवरोधक के रूप में कार्य करता है, जिससे, पेड़ की बहुमूल्य नमी की हानि कम हो जाती है। दूसरीतरफ़, राल कीटों और कीड़ों के खिलाफ एक प्राकृतिक निवारक के रूप में भी कार्य करता है। राल की चिपचिपी प्रकृति, पेड़ की तरफ़ आने वाले कीड़ों को फंसा सकती है, जबकि, कुछ राल की रासायनिक संरचना कीड़ों को दूर भगा या मार भी सकती है।
दूसरी ओर, तराई क्षेत्र, समतल व जलोढ़ भूमि का एक क्षेत्र है, जो नेपाल-भारत सीमा के साथ-साथ हिमालय की निचली श्रेणियों के समानांतर फैला हुआ है। प्राचीन दलदली भूमि का यह क्षेत्र, पश्चिम में यमुना नदी से पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी तक फैला हुआ है। भारत में, यह गंगा के मैदान का उत्तरी विस्तार है, जो समुद्र तल से लगभग 300 मीटर ऊपर शुरू होता है। यह पूर्व से पश्चिम तक, लगभग 800 किलोमीटर और उत्तर से दक्षिण तक लगभग 30-40 किलोमीटर तक फैला हुआ है। जबकि, इस क्षेत्र की औसत ऊंचाई 750 मीटर से कम है। तराई की समतल भूमि का निर्माण गाद, मिट्टी, रेत, कंकड़ और बजरी के तलों से बनी गंगा के जलोढ़ से हुआ है।
भारत में तराई क्षेत्र का विस्तार हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल राज्यों में है। इसके उत्तरी किनारे पर, कई झरने हैं, जो कई धाराएं बनाते हैं, जिनमें महत्वपूर्ण घाघरा नदी भी शामिल है, जो तराई क्षेत्र को काटती है। यही धाराएं तराई के दलदली रूप के लिए ज़िम्मेदार है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/2z7pjrw3
https://tinyurl.com/bdh38ahm
https://tinyurl.com/2bed5n96
https://tinyurl.com/4s87hth5

चित्र संदर्भ
1. शंकुधारी वन को दर्शाता चित्रण (pxhere)
2. देवदार के पेड़ों को दर्शाता चित्रण (Rawpixel)
3. शंकुधारी वनों की प्रदर्शनी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. शीतोष्ण शंकुधारी वन के विस्तार को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. नैनीताल के जंगल को संदर्भित करता एक चित्रण (PixaHive)

https://www.prarang.in/Rampur/24072410738





इत्र की महक को और बढ़ा देती हैं, इत्र की शानदार बोतलें

the fragrance of perfumes is increased even more by their wonderful bottles

Rampur
23-07-2024 09:30 AM

रामपुर के बाजारों से गुजरने पर, यहाँ के स्वादिष्ट पकवानों के साथ-साथ प्राकृतिक इत्र की दुकानों से आनेवाली मनमोहक सुगंध को नज़रअंदाज़ करना बहुत मुश्किल हो जाता है। रामपुर की प्रसिद्ध इमारतों और व्यंजनों की भांति ही ‘इत्र’ का इतिहास भी बहुत पुराना माना जाता है। यदि आप खुद पर नियंत्रण करके इत्र की खुशबू को नज़रअंदाज़ कर भी दें तो आप यहाँ की दुकानों में सजाई गई इत्र की शानदार बोतलों को नज़रअंदाज़ नहीं कर पाएंगे। आज हम इत्र की इन्हीं शानदार बोतलों के ऐतिहासिक सफ़र पर चलेंगे। दुनिया की सबसे पुरानी ज्ञात इत्र की बोतलें प्राचीन मिस्र से मिली हैं, जिनका इतिहास लगभग 1000 ईसा पूर्व का है। मिस्र के लोग दैनिक रूप से या खासकर अपने धार्मिक समारोहों के दौरान बहुत सारी सुगंधों का इस्तेमाल करते थे। जब उन्होंने कांच का आविष्कार किया, तो वे अक्सर इसका इस्तेमाल इत्र की बोतलें बनाने के लिए करते थे।
प्राचीन ग्रीस में समय के साथ इत्र के पात्रों का फैशन फैल गया। यूनानियों ने मिट्टी और कांच जैसी कई अलग-अलग सामग्रियों से इत्र की विशेष बोतलें बनाईं! उनकी इत्र की बोतलें चप्पल, पक्षी, जानवर और मानव सिर जैसे सभी तरह के आकार में आती थीं।
बाद में, रोमनों को भी इत्र बहुत पसंद आया। उन्होंने देखा कि इसमें लोगों को आकर्षित करने की विशेष शक्ति है। इत्र की बोतलों का एक लंबा और पुराना इतिहास रहा है। सबसे पुरानी इत्र की बोतलें प्राचीन मिस्र में मिलती हैं, वे मिट्टी या लकड़ी से बनी होती थीं। जैसे-जैसे इत्र दुनिया भर में लोकप्रिय होता गया, वैसे-वैसे इत्र की बोतलें भी अधिक सजावटी होती गईं। रोमनों ने कीमती पत्थरों और सुंदर कांच से इत्र की बोतलें बनाईं। प्राचीन यूनानियों ने जानवरों और गोले के आकार में इत्र की बोतलें बनाईं। 18वीं शताब्दी में, इत्र की बोतलें चीनी मिट्टी के बरतन, चांदी, तांबे और सफेद कांच जैसी कई सामग्रियों से बनाई जाती थीं। इनके आकार उस समय की प्रचलित कला से प्रभावित होते थे। इत्र रखने के लिए तामचीनी का भी उपयोग किया जाता था, और लोग इस पर विस्तृत ग्रामीण इलाकों के दृश्य चित्रित करते थे।
इत्र और परफ्यूम कई अलग-अलग खुशबू में आते हैं। लेकिन परफ्यूम की बोतलें भी कई अलग-अलग आकार और साइज़ में आती हैं। बोतल का आकार और साइज़ सिर्फ़ डिज़ाइन का हिस्सा नहीं है। वास्तव में यह अलग-अलग अवसरों पर खरीदारों को आकर्षित करने के लिए एक रणनीतिक विकल्प है।
उदाहरण के तौर पर:
1. अंडाकार और क्लासिक आकार: ये बोतलें सुंदर और ऐतिहासिक लुक देती हैं। ऐसे ब्रांड जो बुजुर्ग लोगों या पुराने ज़माने की चीज़ें पसंद करने वाले लोगों को आकर्षित करना चाहते हैं, वे इन आकारों को चुन सकते हैं। शनेल नंबर 5 (Chanel No. 5) की बोतल इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण है। यह डिज़ाइन सरल और सुंदर है, और लोगों को यह लंबे समय से पसंद है।
2. अनोखे और अभिनव आकार: ये बोतलें युवा, अधिक साहसी लोगों को आकर्षित करती हैं। इस तरह की बोतलें आमतौर पर अजीब या अमूर्त आकार की होती हैं। जो लोग कुछ "अलग" चाहते हैं, उन्हें ये बोतलें जरूर पसंद आएंगी।
3. परिवहन के अनुकूल आकार की छोटी बोतलें: ये बोतलें छोटी और व्यावहारिक होती हैं। ये खासतौर पर उन लोगों को आकर्षित करती हैं, जो हमेशा घूमते फिरते रहते हैं। इसके अलावा एक छोटा सैंपल साइज़ आपको नया परफ्यूम खरीदने से पहले उसे आज़माने का मौका भी देता है। इन बोतलों की खासियत है कि इन्हें आसानी से ले जाया जा सकता है।
4. बड़ी और आलीशान बोतलें: कुछ बोतलें (खास तौर पर महंगे परफ्यूम ब्रांड) की बड़ी, भारी और फैंसी होती हैं। वे लोगों के ड्रेसर पर रखने के लिए स्टेटमेंट पीस (statement piece) का काम करती हैं।
आज, कुछ सबसे प्रसिद्ध और पहचानी जाने वाली इत्र की बोतलों में प्रतिष्ठित शनेल नंबर 5 (Chanel No. 5) और एलिजाबेथ टेलर (Elizabeth Taylor) की व्हाइट डायमंड्स (White Diamonds) शामिल हैं। हालाँकि, लोग डिपार्टमेंट स्टोर या ऑनलाइन शॉपिंग (online shopping) के अस्तित्व में आने से बहुत पहले से इत्र की बोतलें बना रहे हैं।
प्राचीन काल से ही लोगों ने सुगंधित तेल रखने के लिए इत्र की अनोखी बोतलें बनाई हैं। ये बोतलें कई सजावटी आकृतियों और डिज़ाइनों में आती हैं, और संग्रहालयों ने उनमें से कुछ को प्रदर्शित भी किया है।
प्राचीन चीनी राजवंशों से लेकर 17वीं सदी के यूरोप तक, इत्र की बोतलों को पूरे इतिहास में कई अलग-अलग डिज़ाइन दिए गए हैं।
6वीं शताब्दी ईसा पूर्व: प्राचीन ग्रीस में, लोग इत्र रखने के लिए अलाबास्ट्रॉन (alabastron) नामक छोटी बोतलों का इस्तेमाल करते थे। 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व के एक अलाबास्ट्रॉन (alabastron) में एक महिला को कुत्ते के साथ दिखाया गया है।
4वीं शताब्दी ईसा पूर्व: प्राचीन यूनानियों ने इत्र या तेल रखने के लिए एरीबॉलोज़ (aryballos) का भी इस्तेमाल किया।
1750-1800: फ्रांस में 1700 के दशक में, लोगों ने किताबों के आकार की परफ्यूम की बोतलें बनाईं।
18वीं सदी: 18वीं सदी के चीन में, लोगों ने इत्र या धूपबत्ती रखने के लिए जेड को ट्यूबों (tubes) में उकेरा।
1800 के दशक: 1800 के आसपास, लोगों ने प्रिंस रीजेंट (Prince Regent) का प्रतिनिधित्व करने वाले सल्फाइड (एक प्रकार का ग्लास) के साथ हीरे की नक्काशी वाली खुशबू वाली बोतलें बनाईं। उन्होंने 1800 के दशक में फ्रांस में फिलिग्री मिल्क ग्लास (filigree milk glass) के साथ परफ्यूम की बोतलें और ट्रे भी बनाईं।
19वीं सदी: 1800 के दशक में, लोगों ने कई तरह की परफ्यूम की बोतलें बनाईं:
- बोहेमियन ग्लास सेंट बोतलें (Bohemian glass scent bottles)
- लुनेविले में बैकारेट ग्लासहाउस (Baccarat Glasshouse) द्वारा बनाई गई स्टॉपर वाली परफ्यूम की बोतलें
- सेंट पीटर्सबर्ग में फैबरगे वर्कशॉप (Fabergé workshop) द्वारा बनाई गई छोटी परफ्यूम की बोतलें
1921: 1921 में, कोको चैनल ने प्रसिद्ध शनेल नंबर 5 (Chanel No. 5) परफ्यूम की बोतल बनाई। इस प्रतिष्ठित बोतल को 2013 में पेरिस के पैलेस डी टोक्यो कला संग्रहालय (Palais de Tokyo art museum) में एक प्रदर्शनी में भी प्रदर्शित किया गया।

संदर्भ
https://tinyurl.com/2288rvrh
https://tinyurl.com/26zaqly6
https://tinyurl.com/24yccxfc
https://tinyurl.com/27lemqty

चित्र संदर्भ
1. इत्र की सुंदर बोतलों को दर्शाता एक चित्रण (Rawpixel)
2. प्राचीन ग्रीस में प्रचलित इत्र की बोतलों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. रोमन इत्र की बोतल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. शनेल नंबर 5 बोतल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. वाइट डायमंड्स परफ़्यूम को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. प्राचीन ग्रीस में, इत्र रखने के लिए, अलाबास्ट्रॉन नामक इस्तेमाल होने वाली एक छोटी बोतल को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
7. 18वीं सदी की इत्र की बोतल को दर्शाता एक चित्रण (PICRYL)

https://www.prarang.in/Rampur/24072310750





जानते हैं मध्यकालीन कश्मीर में लोहरा शासन से लेकर शाह मीर शासन में कैसे परिवर्तन आए

Know how changes came in medieval Kashmir from Lohra rule to Shah Mir rule

Rampur
22-07-2024 09:38 AM

क्या आप जानते हैं कि कश्मीर में हिंदू धर्म का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है! कश्मीर में सूर्य देवता को समर्पित मार्तंड सूर्य मंदिर और भगवान शिव को समर्पित शंकराचार्य मंदिर जैसे धार्मिक स्थल यहाँ पर हिंदू साम्राज्यों के वैभव का बखान करते हैं। कश्मीर पर शासन करने वाले कई हिंदू राजवंशो में से एक लोहारा राजवंश भी था। इन शासकों ने कश्मीर में मंदिरों के निर्माण और हिंदू संस्कृति और शिक्षा को बढ़ावा देने में बहुत बड़ा योगदान दिया। लेकिन इसी राजवंश के शासकों ने कुछ ऐसी गलतियाँ भी की जिनकी वजह से कश्मीर से हिंदू राजवंश ही विलुप्त हो गया!
लोहारा राजवंश, खासा जनजाति के हिंदू शासक थे, जिन्होंने 1003 से लेकर 1320 ई. तक भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में कश्मीर पर शासन किया था। लोहारा परिवार की राजकुमारी और राजा सिंहराज की बेटी दिद्दा ने कश्मीर के राजा क्षेमगुप्त से विवाह किया था। इसके बाद उन दोनों द्वारा शासित क्षेत्र एक हो गए। संग्रामराज को लोहारा राजवंश का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने महमूद ग़ज़नी के कई हमलों से कश्मीर की रक्षा की और शासक त्रिलोचनपाल को मुस्लिम आक्रमणों से लड़ने में मदद की।
सामग्रराज के बेटे जयसिंह 1128 में विद्रोह के बाद राजा बने। जयसिंह बहुत शक्तिशाली नहीं थे, लेकिन उन्होंने 1155 तक अपने शासनकाल के दौरान शांति और कुछ आर्थिक सुधार भी किये। उनके शासन काल में उनके समक्ष कई चुनौतियाँ थी, लेकिन वे कूटनीति और चलाकी से इन चुनौतियों से निपटने में कामयाब रहे। उन्होंने युद्धों में नष्ट हुए कई मंदिरों का पुनर्निर्माण किया, जिस कारण उन्हें "कश्मीर का अंतिम महान हिंदू शासक" कहा जाने लगा।
जयसिंह के पुत्र परमानुका और पोते वन्तिदेव (1165-72 तक शासन किया) ने उनके कदमों का अनुसरण किया। वन्तिदेव को लोहारा राजवंश का अंतिम शासक माना जाता है।
लोहारा राजवंश की कुछ प्रमुख उपलब्धियां निम्नवत दी गई हैं:
1. कश्मीर में लोहारा वंश के शासनकाल के दौरान कई मंदिर और मठ बनाए गए। इस राजवंश में बौद्ध और हिंदू दोनों धर्मों का पालन किया जाता था।
3. 1033 ई. में रानी दिद्दा की मृत्यु के बाद, उनके भाई के बेटे, राजा संग्रामराज लोहारा राजवंश के शासक बने।
4. लोहारा का किला, जिसे अपनी ऊंचाई और ताकत के लिए जाना जाता है, ने हमेशा मुस्लिम आक्रमणों से राज्य की रक्षा की।
5. कश्मीर के इतिहास में राजा हर्ष को एक महत्वपूर्ण और बहादुर राजा माना जाता है। वे विदेशी भाषाओं में निपुण, एक अच्छे कवि और संगीत और विलासिता के प्रेमी थे। उन्होंने कश्मीरी लोगों को नए फैशन, आभूषण और कपडो से परिचित कराया। हालाँकि, बाद में राजा हर्ष अपने ही बड़े भाई के साथ संघर्ष के कारण मारे गए।
6. राजा हर्ष के बाद जयसिंह (1128-55 ई.) शासक बने। चल रहे गृहयुद्ध के कारण उन्हें भी शांति स्थापित करने में कठिनाई हुई। उन्होंने लगभग 27 वर्षों तक शासन किया और मंदिरों और अन्य स्मारकों की मरम्मत की।
7. उनके बाद (1155 - 1339 ई.) कश्मीर राज्य पर कमज़ोर राजाओं का शासन रहा। अंततः 14वीं शताब्दी ई. में मंगोलों ने घाटी पर आक्रमण किया और राज्य का आकार छोटा हो गया।
8. गृहयुद्ध और फूट ने हिंदुओं को कमज़ोर कर दिया और राज्य की सीमाएँ और भी कम हो गईं और इस प्रकार अंततः कश्मीर से हिंदू शासकों का अस्तित्व ही मिट गया।
इसके बाद स्वात (आदिवासी) क्षेत्र से आने वाले शाह मीर ने कश्मीर पर विजय प्राप्त की और घाटी पर शासन किया। इतिहासकारों के अनुसार, कश्मीर में शाह मीर ने शाह मीर वंश की स्थापना की। हालांकि कुछ फ़ारसी इतिहास शाह मीर को स्वात के शासकों के वंशज के रूप में वर्णित करते हैं। लेकिन, 15वीं शताब्दी के कश्मीरी इतिहासकार जोनराजा, जिन्होंने शाह मीर के वंशज बुद्धशाह के शासन के दौरान लिखा था, कहते हैं कि शम्सुद्दीन शाह मीर अपने कबीले के साथ पंचगहवारा नामक स्थान से कश्मीर आए थे।
शम्सुद्दीन शाह मीर ने 1339 में कश्मीर में एक राजवंश की स्थापना की जो 225 वर्षों से अधिक समय तक चला। उनके शासनकाल के दौरान कश्मीर में इस्लाम एक प्रमुख धर्म बन गया।
शाह मीर वंश ने बड़ी ही तीव्र गीत से अपनी शक्ति में वृद्धि की। शाह मीर ने एक स्थायी सेना और एक मानक कर प्रणाली जैसे महत्वपूर्ण तत्वों की शुरुआत की।
सबसे उल्लेखनीय शासकों में से एक ज़ैनुल आबिदीन थे, जिन्हें अपने सुशासन और न्याय की भावना के लिए जाना जाता है। उनके शासन के दौरान, कश्मीर में वास्तुकला, शिल्प, व्यापार और कला, विशेष रूप से संगीत जैसी कलाएं खूब फली फूली।
शाह मीर वंश के कुछ महत्वपूर्ण शासकों एवं उनकी उपलब्धियों की सूची निम्नवत दी गई है:
शम्सुद्दीन शाह मीर (1339 - 1342 ई.): शम्सुद्दीन शाह मीर, शाह मीर राजवंश के संस्थापक और कश्मीर के शासक थे। वे राजा सुहादेव (1301-1320) के समय कश्मीर आए थे। सुहादेव और उनके भाई उदयनदेव की मृत्यु के बाद, शाह मीर कोटा रानी से विवाह करना चाहते थे, लेकिन रानी ने मना कर दिया। वे 1339 तक पाँच महीने तक शासन करती रहीं। कोटा रानी की मृत्यु के बाद, शाह मीर राजा बने और शाह मीर राजवंश की शुरुआत की, जो 1561 तक चला।
सुल्तान शिहाब-उद-दीन (1354 - 1373 ई.): सुल्तान शिहाब-उद-दीन 1354 से 1373 ई. तक शाह मीर राजवंश के एक अच्छे शासक रहे। उन्होंने अपने राज्य को और मज़बूत बनाया। उन्हें "मध्यकालीन कश्मीर का ललितादित्य" कहा जाता है। उन्होंने कई अभियानों का नेतृत्व किया और सिंध, काबुल, ग़ज़नी, दर्दिस्तान, गिलगित, बलूचिस्तान और लद्दाख सहित कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।
सिकंदर शाह (1389 - 1413 ई.): सिकंदर शाह अन्य धर्मों के प्रति दयालु नहीं थे । उन्होनें गैर-मुसलमानों पर कर लगाया और हिंदुओं तथा अन्य धर्म के लोगों को इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया। उन्हें "बुत-शिकन" कहा जाता था क्योंकि उन्होनें मूर्तियों को नष्ट किया था। सुल्तान ने आदेश दिया कि सभी हिंदू, खासकर ब्राह्मण, मुसलमान बन जाएँ या उसका राज्य छोड़ दें। सिकंदर शाह की मृत्यु के बाद, उनके बेटे अली शाह (1413-1419 ई.) राजा बने। फिर सिकंदर शाह के भाई, शाह खान, "ज़ैनुल अबिदीन" के रूप में राजा बने।
ज़ैनुल अबिदीन (1420 - 1470 ई.): कश्मीरी ज़ैन-उल-अबिदीन को "बुद शाह" कहते हैं, जिसका अर्थ महान सुल्तान होता है। वह एक दयालु, खुले विचारों वाले और बुद्धिमान शासक था। उन्होंने उन सभी लोगों को भी अनुमति दी जिन्हें मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया गया था कि वे फिर से हिंदू बन जाएँ। उन्होंने हिंदुओं के पुस्तकालय और ज़मीन भी वापस कर दीं । हिंदुओं का सम्मान करने के लिए, उन्होंने उन पर कर एवं , गायों की हत्या बंद कर दी और सती (विधवा को जलाना) को फिर से जीवन जीने की अनुमति दे दी।
सुल्तान बहुत बड़े विद्वान थे। वह फ़ारसी, कश्मीरी, संस्कृत और तिब्बती बोल सकते थे । उन्होंने संस्कृत और फ़ारसी विद्वानों का समर्थन किया और उसने महाभारत और कल्हण की राजतरंगिणी का फ़ारसी में अनुवाद किया। ज़ैनुल अबिदीन को कश्मीर की अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने की बहुत परवाह थी। उन्होंने वुलर झील में ज़ैना लंक नामक एक कृत्रिम द्वीप बनाया, जहाँ उन्होंने अपना महल और मस्जिद बनाई। उन्होंने ज़ैनापुर, ज़ैनाकुट और ज़ैनागीर शहरों की भी शुरुआत की। उन्होंने श्रीनगर में पहला लकड़ी का पुल भी बनाया, जिसे ज़ैना कदल कहा जाता है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/264qrdrh
https://tinyurl.com/26j99kst
https://tinyurl.com/29u7ws68

चित्र संदर्भ
1. लोहारा वंश के समय गरुड़ ऊपर भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की 11 वीं शताब्दी की प्रतिमा को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. 10वीं सदी का अंत और 11वीं सदी की शुरुआत में लोहारा राजवंश द्वारा निर्मित बोधिसत्व सुगतिसमदर्शन-लोकेश्वर प्रतिमा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. हर्षदेव के शासनकाल में निर्मित सिक्के को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. शाह मीर की कब्र को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. श्रीनगर में ज़ैन-उल-अबिदीन की माँ के मकबरा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)

https://www.prarang.in/Rampur/24072210739





आइए देखें, हमारे रामपुर शहर के कुछ पुराने और दुर्लभ चलचित्र

see some old and rare movies of our Rampur city

Rampur
21-07-2024 09:02 AM

हमारा शहर रामपुर अंग्रेजी शासन के दौरान देश की मशहूर रियासतों में से एक था। इस शहर की स्थापना 1774 में नवाब  फ़ैज़ुल्लाह खान द्वारा की गई थी। इससे पहले यहां कठेर नाम का जंगल हुआ करता था और राजा राम सिंह जोकि कठेरिया राजपूत थेवह कुछ लोगों के साथ जंगल में एक छोटे से हिस्से में निवास किया करते थे। जब नवाब  फ़ैज़ुल्लाह खान रामपुर आए तो दोनों में शिष्टाचार मुलाकात हुई और समझौता हुआ। इसके बाद इसको रामपुर स्टेट के नाम से जाना जाने लगा। शहर बसाने के कुछ समय बाद ही नवाब   फ़ैज़ुल्लाह खान ने मदरसा आलिया, जिसे ओरिएंटल कॉलेज भी कहा जाता है, की स्थापना की। धीरे-धीरे यहां अन्य प्रसिद्ध इमारतों और ऐतिहासिक स्थलों का निर्माण हुआजिनमें रज़ा लाइब्रेरीगांधी समाधिनवाब रेलवे स्टेशनहामिद इंटर कॉलेज रज़ा डिग्री कॉलेज ज़िला  जेललखीबाग कोठीबेनज़ीर कोठीबिलासपुर का भाखड़ा बांध आदि प्रसिद्ध हैं। यहां की ऐतिहासिक इमारतें, रामपुर के गौरवशाली इतिहास को बयां करती हैं। तो आइए, आज हम हमारे शहर रामपुर की 1927 में ब्रिटिश  फ़िल्म निर्माता रोजर डुमास (Roger Dumasद्वारा बनाई गई एक दुर्लभ वीडियो रिकॉर्डिंग का आनंद  लेंगेतथा  देखेंगे कि लगभग सौ साल में हमारे शहर में तब से लेकर अब तक क्या-क्या परिवर्तन हुए हैं।





संदर्भ:

https://tinyurl.com/8b4xjptn

https://tinyurl.com/29b48n9e 

https://tinyurl.com/4hjhj2b3 


https://www.prarang.in/Rampur/24072110743





Enter into a one-stop shop for all digital needs of the citys citizens(in their own language)

Click Here 





City Map

Back