एशियाई खेल विजेता,मेरठ की पारुल चौधरी व अन्नू रानी बन गईं हैं महिला खिलाड़ियों की प्रेरणा

य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
10-10-2023 10:26 AM
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एशियाई खेल विजेता,मेरठ की पारुल चौधरी व अन्नू रानी बन गईं हैं महिला खिलाड़ियों की प्रेरणा

चीन में हाल ही में आयोजित हुए एशियाई खेलों (Asian games)में, हमारे मेरठ जिले की दो खिलाड़ियों ने भाला फेंक एवं लंबी दूरी की दौड़ में शानदार जीत दर्ज कीहै। इकलौता गांव की पारुल चौधरी एवं बहादुरपुर गांव की अन्नू रानी, क्रमशः महिलाओं की 5,000 मीटर दौड़ और भाला फेंक स्पर्धा में उनकी जीत और प्रेरणा के बारे में अपनी टिप्पणियों के लिए भी उल्लेखनीय रही हैं। एक महिला खिलाड़ी होने के कारण, समाज में उन्हें भी संबंधित चुनौतियों का सामना करना पड़ा हैं। आइए, हम उन प्राथमिक मुद्दों पर फिर से गौर करें, जिनका सामना महिलाएं तब करती हैं, जब वे हमारे समाज में पेशेवर मार्ग का गैर-पारंपरिक रास्ता अपनाती हैं। एक दूसरे से बमुश्किल 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, हमारे मेरठ जिले के उपरोक्त दो गांवों में खुशी का माहौल बना हुआ है, क्योंकि दोनों गांवोंकी बेटियों ने, महिलाओं की 5,000 मीटर दौड़ और भाला फेंक स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता है। हालांकि, उनकी यहां तक पहुंचने की यात्रा अत्यंत कठिन रही है। इन दोनों खिलाड़ियों को महिलाओं के “मर्दाना खेलों” में शामिल होने से नाराज अपने रिश्तेदारों और गांव के बुजुर्गों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है। हालांकि, अब इनकी शानदार जीत के बाद इन लोगो की विचारधारा बदल गई है और ये लोग अलग तरह से सोचते हैं और यहां तक कि, खेलों में महिलाओं को प्रोत्साहित भी कर रहे हैं।
अन्नू रानी के पिता अमरपाल सिंह जी कहते हैं कि, “अन्नू ने इस इलाके में लोगों के सोचने के तरीके को अब बदल दिया है।हालांकि, जब उसने भाला फेंकने का फैसला किया था, तो यह आसान नहीं था। लोग पहले अविश्वासी थे। कई लोग ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए, उनके ख़िलाफ़ थे, जिसे पुरुषों का क्षेत्र माना जाता है। लेकिन, हम उसके साथ खड़े रहे थे।”
पारुल चौधरी की कहानी भी कुछ ऐसी ही थी। दरअसल, उन्हें अपने गांव में इतने कठिन समय का सामना करना पड़ा कि, उन्होंने गुप्त रूप से प्रशिक्षण लिया और कई बार खेल के लिए अपने इस जुनून को त्याग देने के बारे में भी सोचा। उन्हें हर समय ताने मिलते रहते थे। अतः उन्हें आस-पड़ोस के सभी सामाजिक रिश्ते भी तोड़ने पड़े थे। वह हमेशा कहती थी कि,“मेरे गांव वाले मुझे निराश करते हैं।लेकिन, उनके कोच ने तब उन्हें यह कहकर प्रेरित किया कि, “एक दिन तुम्हें अपने गले में सोने का पदक पहनकर इन्हीं ग्रामीणों के बीच से गुजरना है!”
वही दूसरी ओर, अपनी जीत के कुछ मिनटों बाद, जब इन दोनों खिलाड़ियों से उनकी प्रेरणा के विषय में पूछा गया, तो उन्होंने मीडिया (Media) से अपने पहले साक्षात्कार के दौरान जो पहली बात कही, वह खेल और समाज के कम-सुविधा प्राप्त वर्गों के लोगों को मिलने वाली सामाजिक गतिशीलता के बारे में एक गहरी सच्चाई थी। पारुल ने कहा कि, “दौड़ के अंतिम मीटर में, मेरे दिमाग में यह विचार सबसे महत्वपूर्ण था किमुझे उत्तर प्रदेश पुलिस में‘उप पुलिस-अधीक्षक’ (Deputy Superintendent of Police (DSP) बनना है!” क्योंकि, एक खिलाड़ी के लिए, यह स्थिति, वेतन और स्थिरता के मामले में एक बड़ी छलांग है।
जबकि भाला फेंकने वाली अन्नू रानी शुरुआत में ​इस वर्ष अपने प्रदर्शन से इतनी नाखुश थी कि वह अवसाद में डूब गई थी। अन्नू, जो भारतीय रेलवे में एक अधिकारी के रूप में कार्यरत थीं, ने भी अपनी प्रेरणाओं के बारे में बताते हुए कहा“मेरे परिवार और देश को मुझसे बहुत उम्मीदें थीं। जहां देश का नाम होता है, वहां तो हम मर मिट जाते हैं...” अन्नू ने कहा। यह परिप्रेक्ष्य पारुल के बिल्कुल विपरीत है। क्योंकि,अन्नू को मुख्य रूप से उसके, ‘न्यूनता’ और विफलता के डर ने प्रेरित किया था। दरअसल, मुद्दा यह है कि, भारतीय महिला खिलाड़ी लिंग-आधारित भेदभाव और विभिन्न प्रकार के यौन उत्पीड़न के प्रति सबसे अधिक असुरक्षित हैं। खेल की दुनिया में महिला खिलाड़ियों के साथ द्वितीयक दर्जे के नागरिकों के रूप में व्यवहार किया जाता है।उन्हें खेल क्षेत्र में प्रवेश पाने के लिए घर, विद्यालय, कार्यस्थल तथा अपने पारिवारिक जीवन में भी भारी बाधाओं से लड़ने के लिए मजबूर किया जाता है। इस रास्ते में उन्हें हर तरह के उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी यह उत्पीड़न इस हद तक बढ़सकता है किउनका लिंग उनकी पहचान या उन्नति के लिए एक मुद्दा बन जाता है। मुख्य रूप से युवा महिला खिलाड़ियों के लिए, जो आमतौर पर, देश के दूर दराज एवं भीतरी इलाकों से आती हैं और अपने बुनियादी अधिकारों के बारे में जागरूक नहीं होती हैं, यह एक बड़ी समस्या है।और फिर, स्थानीय कोच से लेकर संगठन अध्यक्ष तक हर स्तर पर पुरुष, प्रभारी पितृसत्तात्मक विशेषताओं का प्रदर्शन करते हैं, जो उनके अपमान का केंद्र बनते हैं।
सूचना के अधिकार (Right to Information(RTI) आंकड़ों के अनुसार, 2010 से 2020 के बीच, भारतीय खेल प्राधिकरण को महिला यौन उत्पीड़न की 45 शिकायतें मिलीं, जिनमें से 29 शिकायतें कोचों के खिलाफ थीं।रिपोर्ट किए गए इनमें से कई मामलों में, अभियुक्तों को केवल थोड़े दंड के साथ छोड़ दिया गया है, जो स्थिति को अधिक बदतर बना देता है। कुछ मामलों का तो अंत ही नहीं हुआ और कई मामले वर्षों तक खिंचते रहे, जिनका कोई समाधान आज तक नजर नहीं आया है।
इसके अलावा भी, हमारे देश भारत में महिला खिलाड़ियों को अन्य कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। महिला खिलाड़ियों को पुरुषों की तुलना में समान अनुदान एवं बजट की कमी का सामना करना पड़ता है। इन्हें रोज़ाना लैंगिक भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है। खेल उद्योग में महिला खिलाड़ियों को अभी भी, अपने पुरुष समकक्षों के समान अवसर एवं सुविधाएं प्राप्त नहीं होती है।
विद्यालयों में शारीरिक शिक्षा की कमी तथा महाविद्यालय एवं कॉलेजों में खेल के सीमित अवसरों का मतलब है कि लड़कियों को खेल खेलने हेतु बाहर जाना पड़ता है, जो उनकी पहुंच से बाहर या अधिक खर्चीला हो सकता है।अक्सर ही, उनके घरों के पास भी, पर्याप्त खेल सुविधाओं तक पहुंच का अभाव होता है। इससे लड़कियों के लिए खेलों में संलग्न होना अधिक कठिन हो जाता है।उनके लिए, असुरक्षित माध्यम से इन सुविधाओं तक यात्रा करना या मीलों दूर एक अच्छी सुविधा तक पहुंचने के लिए किसी परिवहन साधन की कमी भी एक समस्या बन जाती है। उदाहरण के लिए, मणिपुर को हमारे देश में,‘खेल महाशक्ति’ माना जाता है, लेकिन, वहां 48% महिला खिलाड़ियों को उनके खेल के लिए अभ्यास सुविधा तक पहुंचने हेतु10 किलोमीटर से भी अधिक दूरी की यात्रा करती पड़ती हैं। खेलों में लड़कियों एवं महिलाओं को उत्पीड़न, सामाजिक अलगाव, नकारात्मक प्रदर्शन मूल्यांकन का अनुभव करना पड़ता है।सामाजिक रूप से नाजुक किशोरावस्था के दौरान, महिला खिलाड़ियों में,“समलैंगिक” कहे जाने का डर इतना प्रबल होता है कि यह कई लड़कियों को खेल से बाहर कर देता है।
महिला खिलाड़ियों के लिए, आयोजन स्थलों की सुविधाएं भी पुरुष खिलाड़ियों के जितनी अच्छी नहीं होती हैं और खेलने का समय भी इष्टतम नहीं होता है।उनके लिए,गुणवत्तापूर्ण तथा प्रशिक्षित कोचों की उपलब्धता की भी कमी होती है। या फिर कभीकभी कोच द्वारा लड़कों के खेलों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। लड़कियों के कई खेलों के लिए, उपकरणों और यहां तक कि, वर्दी को भी लड़कों के समान स्तर पर वित्त पोषित नहीं किया जाता है।
इसके साथ ही, महिलाओं के खेलों को अक्सर मीडिया में कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है, जिससे महिला खिलाड़ियों के लिए मान्यता और प्रायोजन के अवसर हासिल करना कठिन हो सकता है।इसके अलावा, महिला खिलाड़ियों को अक्सर मातृत्व और अपने खेल पेशे के बीच संतुलन बनाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/43jafs5h
https://tinyurl.com/47a25jz4
https://tinyurl.com/dxafvmdn
https://tinyurl.com/ruz5vpw7

चित्र संदर्भ
1. हवा में कूद लगाती पारुल चौधरी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. अन्नू रानी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. पारुल चौधरी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. खेत में खेलते बच्चों को दर्शाता एक चित्रण (Pexels)
5. एक साथ बैठे बच्चों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)

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