धनुर्वेद: हिमांचल से मेरठ तक, तीरंदाजों को आज भी प्रदान कर रही, विद्या, कौशल व् प्रेरणा

य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
03-08-2023 10:02 AM
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धनुर्वेद: हिमांचल से मेरठ तक, तीरंदाजों को आज भी प्रदान कर रही, विद्या, कौशल व् प्रेरणा

महाभारत में महायोद्धा अर्जुन से लेकर, रामायण में प्रभु श्री राम की अधिकांश छवियों में आपको एक बड़ी समानता नजर आ जाएगी और वह है, इनके द्वारा प्रयोग किया जाने वाला अस्त्र, "धनुष।" भारत के पौराणिक शास्त्र, शक्तिशाली और साहसी योद्धाओं की वीर गाथाओं से भरे पड़े हैं। धनुष ने भारतीय इतिहास के हर कालक्रम में अहम भूमिका निभाई है। हालांकि आपको जानकर हैरानी होगी कि आज भले ही, धनुष-बाण की आवश्यकता रणक्षेत्र में नहीं पड़ती, लेकिन एक खेल के रूप में आज भी इसकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है। हमारे मेरठ से लगभग 25 किलोमीटर दूर, टिक्करी क्षेत्र में, गुरुकुल प्रभात नामक एक ऐसा आश्रम है, जहां से आज भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करने वाले तीरंदाज निकलते हैं। भारत विविधताओं का देश है, यहाँ की समृद्ध संस्कृति में प्राचीन काल से कई अलग-अलग युद्ध कौशलों का अभ्यास किया जाता आ रहा हैं। वेदों जैसे प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी इसका उल्लेख किया गया है। वेदों में मुख्य रूप से "धनुर्वेद (1700 ईसा पूर्व से 1100 ईसा पूर्व)" का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ “तीरंदाजी का विज्ञान” होता है। सिंधु घाटी सभ्यता की एक मुहर पर भी दो पुरुषों को एक दूसरे पर भाला चलाते हुए चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त, सिंधु घाटी के एक स्थान पर भाला फेंकने वाले की एक मूर्ति की खोज की गई थी।
प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय महाकाव्य महाभारत में विभिन्न हथियारों और युद्ध तकनीकों से जुड़े युद्धों का विस्तृत वर्णन मिलता है। भारत में संरचित निहत्थे युद्ध खेल के प्रारंभिक रूप को "मल्ल-युद्ध" या युद्ध-कुश्ती कहा जाता था। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व और दूसरी शताब्दी ईस्वी के बीच लिखा गया “संगम साहित्य” दक्षिण भारत में मार्शल आर्ट (Martial Arts) का लिखित प्रमाण प्रदान करता है। इस अवधि के दौरान भाले, तलवार, ढाल और धनुष जैसे विभिन्न हथियारों का इस्तेमाल किया गया था।
समय के साथ, मार्शल आर्ट ने लोकप्रियता हासिल की और केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि आम लोग भी इसका अभ्यास करने लगे। प्राचीन भारत में शैक्षणिक संस्थानों में विभिन्न जातियों के छात्रों को लड़ने की तकनीकें सिखाईं जाती थी। भारत में मुस्लिम शासन की अवधि के दौरान, भी मुगलों ने स्वदेशी युद्ध कौशलों को प्रोत्साहित किया और विभिन्न क्षेत्रों से मुगल दरबार में अपने कौशल का प्रदर्शन करने वाले सेनानियों को बुलाया जाता था। आज, भारत में मार्शल आर्ट का उपयोग केवल युद्ध के लिए नहीं किया जाता है, बल्कि प्रदर्शन, अनुष्ठान, फिटनेस (fitness) और आत्मरक्षा जैसे विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता है। भारत के पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में आज भी " थोडा (Thoda )" नामक तीरंदाजी (मार्शल आर्ट) का एक पारंपरिक खेल प्रचलित है। इसे खेलने के लिए खिलाड़ी धनुष और तीर का उपयोग करते हैं। इस खेल में नियमित तीरंदाजी की तरह केंद्र पर निशाना नहीं लगाया जाता, तीरंदाज अपने प्रतिद्वंद्वी के घुटने के नीचे के पैरों पर निशाना साधते हैं।
यह खेल "साथी" और "पाशी" नाम के दो समूहों के बीच खेला जाता है, जिन्हें प्राचीन महाभारत के पांडवों और कौरवों का वंशज माना जाता है। यह शानदार प्रतियोगिता बैसाखी दिवस पर आयोजित की जाती है। इसे देवी दुर्गा और स्थानीय माशू देवता के सम्मान में आयोजित किया जाता है। खेल के दौरान जब दो समूह मेले के मैदान में इकट्ठा होते हैं, तो वे अपनी तलवारें लहराते हुए युद्ध संगीत पर नाचते और गाते हैं। इसके बाद “पाशी समूह” एक रक्षात्मक संरचना बनाता है, जिसे "चक्रव्यूह" कहा जाता है, और “साथी समूह” उनके रक्षा कवच को तोड़ने की कोशिश करता है। यह खेल काफी रोमांचक प्रतीत होता है! तीरों की चपेट में आने से बचने के लिए रक्षकों द्वारा लगातार पैर मारना पड़ता है। इसे खेलने के लिए खिलाड़ियों को चुस्त और फुर्तीले होने की जरूरत है। इस शानदार खेल में ऊर्जावान नृत्य, कुशल तीरंदाजी और गहन प्रतिस्पर्धा का मिश्रण नजर आता है। यह एक चिह्नित मैदान में बड़े ही उत्साह और अनुशासन के साथ खेला जाता है।
यदि आपकी भी तीरंदाजी के खेल में रूचि बढ़ रही है, तो आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि हमारे मेरठ से केवल 25 किमी की दूरी पर जानीखुर्द के टीकरी स्थित गुरुकुल प्रभात आश्रम में भी धनुर्विद्या का प्रशिक्षण दिया जाता है। यहां पर शिक्षा-दीक्षा का माहौल वैदिक काल के किसी गुरुकुल की भांति ही नजर आता है। यहाँ पर प्रशिक्षण लेने वाले धनुर्धर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी भाग लेते हैं। इस गुरुकुल ने देश को दो ओलंपियन (Olympian) भी दिए हैं। साल 1993 के बाद से ही गुरुकुल प्रभात आश्रम में तीरंदाजी की ट्रेनिंग दी जा रही है। वर्ष-1997 में हुए राष्ट्रीय खेलों में आश्रम के तीरंदाजों ने व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से स्वर्ण पदक हासिल किया। इस आश्रम से प्रशिक्षण लेकर 20 तीरंदाज राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर भर भी प्रतिभाग कर चुके हैं। वर्तमान में इस आश्रम में 10 तीरंदाज प्रशिक्षण ले रहे हैं, जो कि यहां पर रोजाना सात घंटे अभ्यास करते हैं। इन सभी खिलाड़ियों का मुख्य उद्देश्य ओलंपिक में पदक हासिल करना है। खिलाड़ियों को ट्रेनिंग पूर्व खिलाड़ी देते हैं। यह आश्रम वास्तव में यहाँ प्रशिक्षण ले रहे युवाओं को शहर से दूर एक शांत वातावरण प्रदान करता है, जो कि इस खेल के लिए आदर्श माना जाता है। गुरुकुल प्रभात आश्रम में विद्यार्थियों का कक्षा छह के बाद प्रवेश होता है। इसके बाद आचार्य (MA) तक की पढ़ाई आश्रम में ही होती है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/6k7nhhxc
https://tinyurl.com/4w2cn4fv
https://tinyurl.com/3sxujj3v

चित्र संदर्भ
1. तीरंदाजी सीखते युवाओं और बच्चों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. तीर से कर्ण का गला काटते अर्जुन को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. हिमाचल प्रदेश में " थोडा" नामक तीरंदाजी (मार्शल आर्ट) के एक पारंपरिक खेल को दर्शाता चित्रण (Youtube)
4. तीरंदाजी करते युवा को दर्शाता चित्रण (wikimedia)

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