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भारत के जिव्या सोमा माशे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित एक ‘वार्ली’ (Warli) चित्रकारी कलाकार हैं, जो आदिवासी समुदाय से संबंध रखते हैं और अपने अद्भुत वार्ली चित्रों के लिए काफी प्रख्यात हैं। माना जाता है कि वार्ली चित्रकारी की उत्पत्ति प्रागैतिहासिक शैलकला से हुई है। वार्ली चित्रकारी परंपराओं के बजाय रोजमर्रा की जिंदगी में सौंदर्यशास्त्र को नियत करती है। इसके अतिरिक्त, यह चित्रकारी संदेश देने के उद्देश्य के बजाय समुदाय द्वारा जश्न मनाने का एक तरीका है। वार्ली चित्रकारी में एक लाल या भूरे रंग की समतल पृष्ठभूमि पर, सर्पिल आकृतियों में मानवों और अन्य कई चीजों को दर्शाया जाता है, जो एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए चक्र में घूमते हुए प्रतीत होते हैं। विशेष रूप से, केंद्र में एक बड़े यंत्र के साथ एक आदमी की आकृति को दिखाया जाता है। प्रफुल्लित करने वाले नृत्य और भावों को देखकर कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि चित्रकारी में उत्सव का माहौल है। हालांकि वार्ली चित्रकारी में मानव आकृतियाँ यथार्थवाद से बहुत दूर होती हैं। अविश्वसनीय रूप से, वे केवल दो त्रिकोण को जोड़कर बनाई जाती है, जो एक शीर्ष पर जुड़े होते हैं, सिर के रूप में एक चक्र के साथ और हाथों और पैरों के लिए रेखाओं का सफेद चाक में प्रयोग किया जाता है। मुख्य आकृति के अलावा, आसपास झोपड़ियों, पेड़ों और कुछ और मानव आकृतियों को भी दिखाया जाता है।
वार्ली पश्चिमी भारत के कुछ शहरों में रहने वाली एक जनजाति का नाम है। व्युत्पत्ति के अनुसार, वार्ली शब्द में वारल का अर्थ भूमि का एक टुकड़ा होता है। कुछ लोगों का मानना है कि पूर्वजों द्वारा सिंचाई के लिए जंगल के बीच अपनी भूमि का एक हिस्सा (वारल) छोड़ दिया गया होगा। इसके बाद, वार्ली जनजाति अपने न्यूनतम कला रूप के लिए जानी जाने लगी। जनजातीय कला सम्मेलन के अनुसार, चित्रकारी में वृत्त का रूप सूर्य और चंद्रमा से लिया गया था। वहीं, त्रिकोण की रचना पेड़ों और पहाड़ों को देखकर की गई। अंत में, वर्ग (Square) द्वारा मुख्य देवता, जिसे पालघाट कहा जाता है, को घेरा जाता है। साथ ही वार्ली चित्रकारी में धार्मिक और पौराणिक विषयों का प्रतिनिधित्व करने के बजाय सामाजिक और प्रथागत जीवन को यादगार बनाने के लिए चित्रकारी की जाती है। वार्ली कला की प्रक्रिया में कलाकार ईंट, गेरू और टहनियों से दीवार तैयार करते हैं। वे एक प्रकार के गोंद वाले चावल की लुगदी से रंगने के लिए बांस की छोटी-छोटी छड़ियों का उपयोग करते हैं। हालाँकि, आज कलाकार चित्रफलक, कागज और ब्रश (Brush) का उपयोग करने लग गए हैं।
वार्ली चित्रकला के क्षेत्र में जिव्या सोमा माशे का नाम सबसे आगे है। माशे और उनका परिवार वार्ली कला के आजीवन समर्थक रहे थे, जिन्होंने समकालीन परिवेश में इसके रूप और सामग्री को पुनर्जीवित किया। गौरतलब है कि उन्होंने कला के विश्व मानचित्र पर जनजाति की वाद्य पहचान को पेश किया। उन्होंने न केवल महिला-उन्मुख लोक कला के सदियों पुराने अनुष्ठान को बदल दिया, बल्कि इसे समकालीनता की स्थिति में परिवर्तित कर दिया। सात वर्ष की आयु में अपनी माँ की असामयिक मृत्यु के कारण, माशे कुछ समय के लिए सदमे के कारण बोल न सके। संवाद करने के लिए, वे अक्सर धूल पर आकृतियां बनाते थे, जो स्थानीय समुदाय को काफी पसंद आने लगी। आश्चर्यजनक रूप से, इसने उनको प्रारंभिक स्थानीय पहचान प्रदान की। हालांकि वार्ली महिलाएं नियमित रूप से इस कला का अभ्यास करती थीं, लेकिन माशे ने पारंपरिक अनुष्ठान को खारिज कर अलग तरीके से अभ्यास करना जारी रखा। इसके अतिरिक्त, उन्होंने नए रूपों और रचनाओं का एक समूह विकसित किया। इसके अतिरिक्त, उनके द्वारा वार्ली चित्रकला के अभ्यास के नए स्वरूप ने समुदाय के नवोदित कलाकारों को भी प्रेरित किया गया।
उन्होंने अपनी कला के लिए भी काफी प्रसिद्धि हासिल की। भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा सराहना किए जाने के बाद, जिव्या सोमा माशे ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी निमंत्रण प्राप्त करने में गति प्राप्त की। 1975 में, भारत के एक कलाकार, भास्कर कुलकर्णी की सलाह के तहत उनकी पहली एकल प्रदर्शनी, मुंबई में ‘चेमोल्ड आर्ट गैलरी’ (Chemould Art Gallery) में आयोजित की गई थी। इसके बाद अगले ही वर्ष, उनकी पहली अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी ‘पैलेस डी कार्नोलेस’ (Palais de Carnolès), मेंटन (Menton), फ्रांस (France) में आयोजित की गई। प्रसिद्धि प्राप्त करने के बाद जिव्या सोमा माशे ने कई अंतरराष्ट्रीय फोटोग्राफरों (Photographer) और कलाकारों को आकर्षित किया, जिनमें एक अमेरिकी (American) कलाकार रिचर्ड लॉन्ग (Richard Long) और एक फ्रांसीसी (French) कला समीक्षक, संग्रहकर्ता और आयोजक हेर्वे पेरड्रिओल (Herve Perdriolle) भी शामिल थे। 2003 में, डसेलडोर्फ (Dusseldorf), जर्मनी (Germany) में म्यूज़ियम कुन्स्ट पलास्ट (Museum KunstPalast) में, रिचर्ड लॉन्ग और जिव्या सोमा माशे की एक संयुक्त प्रदर्शनी भी आयोजित की गई।
जिव्या सोमा माशे ने 1976 में जनजातीय कला के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त किया। इसके अलावा, उन्हें क्रमशः 2002 और 2009 में शिल्पी गुरु और साथ ही प्रिंस क्लॉज़ (Prince Claus) पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें वार्ली की आदिवासी कला में योगदान के लिए भारत सरकार के प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक ‘पद्म श्री’ से भी सम्मानित किया गया। दो पुस्तकें- चेमोल्ड पब्लिकेशन्स की ‘द वार लीस: ट्राइबल पेंटिंग्स एंड लेजेंड्स (The Warlis: Tribal Paintingsand Legends) और यशोधरा डालमिया द्वारा लिखित द पेंटेड वर्ल्ड ऑफ़ द वार लीस (The Painted World of the Warlis) उनके जीवन और कार्य को दर्शाती हैं। अंत तक काम करते हुए, उन्होंने 15 मई 2018 को अंतिम सांस ली और उन्हें राजकीय अंतिम संस्कार दिया गया।
संदर्भ :-
https://bit.ly/3oWbauN
https://bit.ly/44myaTZ
चित्र संदर्भ
1. भारत की वार्ली कला के दिग्गज:जिव्या सोमा माशे को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. वार्ली चित्रकारी में एक लाल या भूरे रंग की समतल पृष्ठभूमि पर, सर्पिल आकृतियों में मानवों और अन्य कई चीजों को दर्शाया जाता है, जो एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए चक्र में घूमते हुए प्रतीत होते हैं। विशेष रूप से, केंद्र में एक बड़े यंत्र के साथ एक आदमी की आकृति को दिखाया जाता है। को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. चित्रकारी करते जिव्या सोमा माशे को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. जिव्या सोमा माशे द्वारा निर्मति एक ‘वार्ली’ (Warli) चित्रकारी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. वार्ली पेंटिंग को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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