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क्या आप जानते हैं कि प्राचीन वैदिक काल में महिलाओं को भी पुरुषों के समान ही दर्जा प्राप्त था। किंतु ऐसा माना जाता है कि मुगलों के आगमन के साथ ही देश में महिलाओं की स्थिति भी डगमगाने लगी। इसके बाद के वर्षों में महिलाओं ने अपनी पहचान खो दी और उन्हें शिक्षा सहित अन्य कई गतिविधियों पर प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। लेकिन इसके बाद आगमन हुआ महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी का, जिन्होंने स्त्री शिक्षा की वकालत करने, स्कूलों की स्थापना करने और आर्य समाज रूपी आंदोलन को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
19वीं शताब्दी के दौरान भारत में महिलाओं की स्थिति सहित भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं में सुधार लाने के उद्देश्य से सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों की एक लहर का उदय हुआ। इन आंदोलनों में ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, देव समाज, सिंह सभा आंदोलन और अलीगढ़ आंदोलन इत्यादि शामिल थे। इन्ही में से एक “आर्य समाज”, जिसकी स्थापना 10 अप्रैल, 1875 को स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा की गई थी, एक पुनरुत्थानवादी आंदोलन था जिसने स्वदेशी संस्कृति को भी प्रेरित किया। हालांकि आंदोलन का प्राथमिक लक्ष्य राष्ट्रीय प्रगति था किंतु इसके नेताओं के अनुसार, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सामाजिक पुनर्निर्माण अत्यंत महत्वपूर्ण था।
आर्य समाज ने पुरुषों और महिलाओं को उनकी योग्यता, स्वभाव और कर्म के अनुसार समानता पर आधारित पूर्ण और निष्पक्ष न्याय तथा शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने पर जोर दिया। आर्य समाज ने लोगो में जागरूकता बढ़ाने और महिलाओं सहित निम्न वर्गों के उत्थान के लिए जनता के बीच शिक्षा के प्रसार पर भी ध्यान केंद्रित किया। यह वही दौर था जब महिलाओं ने समाज में अपना उच्च स्थान खो दिया था और वे अपने परिवार के पुरुष सदस्यों पर निर्भर हो गई थीं। वैज्ञानिक सिद्धांतों में विश्वास रखने वाले आर्य समाज ने अपने दस सिद्धांतों में शिक्षा के महत्व पर अत्यधिक बल दिया। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भारत के अधिकांश प्रांतों में आर्य समाजों की स्थापना की गई जिनके माध्यम से महर्षि दयानंद सरस्वती के प्रेरक संदेश जनता तक पहुंचे और लागू हुए।
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती एक खुली सामाजिक व्यवस्था में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि महिलाओं को शिक्षित करना सामाजिक शोषण की समस्या का एक कारगर समाधान और आने वाली पीढ़ियों को बेहतर बनाने की कुंजी है। हालाँकि, महिलाओं के लिए उनके द्वारा बताई गई शिक्षा की प्रकृति जाति विशिष्ट थी, सभी जाति की महिलाओं के लिए सभी प्रकार की शिक्षा उपयुक्त नहीं थी। इसके अलावा महिलाओं द्वारा केवल व्याकरण, साहित्य, चिकित्सा, अंकगणित और शिल्प का प्रारंभिक ज्ञान होने की उम्मीद की जाती थी। इस तरह के न्यूनतम ज्ञान का उद्देश्य महिलाओं को आदर्श पत्नी और मां बनने के लिए तैयार करना था।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रारंभिक दौर में लड़कियों की शिक्षा के लिए गुरुकुलों की स्थापना की गई। लेकिन माना जाता है कि स्वामी दयानंद सरस्वती लड़के और लड़कियों की सह-शिक्षा के खिलाफ थे। महिला शिक्षा ईसाई मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव के कारण धर्मांतरण गतिविधियों से भी प्रभावित थी। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए आर्य समाज ने स्त्री शिक्षा का पुरजोर समर्थन किया और लड़कियों की शिक्षा के लिए बड़ी संख्या में शिक्षण संस्थान खोले।1896 में लाला देवराज द्वारा जालंधर में एक कन्या महाविद्यालय खोला गया जहां लड़कियों को बुनियादी शिक्षा, सिलाई, कढ़ाई, चित्रकला, खाना बनाना, संगीत, कविता, खेल, अंकगणित और धार्मिक साहित्य आदि सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती थी ।इसी प्रकार देहरादून में लड़कियों की शिक्षा के लिए ‘कन्या पाठशाला’ नामक एक हाई स्कूल खोला गया ।हालाँकि, 1888 में मुंशी राम ने तलवन में एक महिला स्कूल शुरू किया किंतु महिला शिक्षकों की अयोग्यता ने उन्हें शीघ्र ही स्कूल को बंद करने के लिए मजबूर कर दिया। किंतु उन्होंने हार नहीं मानी और बाद में जब उन्हें अपनी बेटी के स्कूल में मिशनरियों द्वारा शिक्षा के द्वारा ईसाई संस्कृति का प्रचार करने की बात पता चली तो उन्होंने जालंधर में लड़कियों का स्कूल खोला ।
जालंधर में ‘आर्य कन्या पाठशाला’ के प्रबंधक लाला देव राज, स्वामी दयानंद द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर लड़कियों को शिक्षित करने में विश्वास करते थे। 1889 तक, गुजरात और भगवानपुरा के अंतर्गत आने वाले फ़िरोज़पुर आर्य समाज, ने एक सफल लड़कियों के स्कूल का आयोजन किया।
हालाँकि, महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा के सवाल ने सुधारकों को भी एक दूसरे के खिलाफ विभाजित कर दिया। 1894 में, लाला लाजपत राय ने महिला शिक्षा की सलाह पर सवाल उठाते हुए सुझाव दिया कि लड़कियों के लिए केवल प्राथमिक शिक्षा आवश्यक है।
आर्य समाज के अधिकांश अभियानों का उद्देश्य लैंगिक भेदभाव को खत्म करना था। आर्य समाज ने उत्तरी भारत में विशेष रूप से पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कीस्वामी दयानंद ने अपने काम ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में वेदों की ओर लौटने की वकालत की, क्योंकि उनका मानना था कि हिंदू समाज स्थिर और जीवाश्म हो गया था, जो अप्रासंगिक रीति-रिवाजों से आच्छादित था। इसके अलावा आर्य समाज ने महिलाओं की पूर्ण मुक्ति की वकालत की और सक्रिय रूप से उनकी स्थितियों में सुधार करने की मांग की। आर्य समाज सहित अन्य कई सुधार आंदोलनों ने भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से देश की स्वतंत्रता का मार्ग भी प्रशस्त किया।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी का मेरठ से निकट का सम्बन्ध रहा है। 1857 की क्रांति के असफल हो जाने के बाद, यहां ब्रिटिश शासन को मज़बूती से स्थापित किया गया था जिसके तहत अंग्रेजों ने परिवहन और संचार की एक विस्तृत प्रणाली को तैयार करना शुरू कर दिया था। परंतु यहां के लोगों में अभी भी स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए कुछ करने और आगे बढऩे की प्रवृत्ति विद्यमान थी। मेरठ पहले से ही आर्य समाज की गतिविधियों का महत्वूपर्ण केन्द्र बना हुआ था। स्वामी दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट (Annie Besant), स्वामी विवेकानंद और सर सैयद अहमद खान द्वारा मेरठ का दौरा किया गया था, जिसके पश्चात 1878 में आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वतीजी ने स्वयं अपने हाथों से मेरठ में आर्य समाज की आधार शिला रखी, जिसका उद्देश्य धर्मोपदेश के माध्यम से देश की उन्नति करना है।
संदर्भ
https://bit.ly/40RaMvE
https://bit.ly/40Ozyg9
https://bit.ly/43fDTu9
https://bit.ly/3Kho3H2
https://bit.ly/3KGlz6l
चित्र संदर्भ
1. स्वामी दयानंद सरस्वती और स्कूल की छात्रा को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
2. 19वीं सदी की भारतीय महिलाओं को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
3. सब्जी बेचने जाती भारतीय महिलाओं को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य समाज को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. पढाई करती भारतीय महिलाओं को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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