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भारत जैवविविधताओं से भरा देश है, जहाँ सभी प्राणी एक दूसरे से सम्बन्धित है। परन्तु
आज विश्व में कई जानवरों और पक्षियों की प्रजातियां संकट का सामना कर रही हैं और कई
विलुप्त होने की कगार पर है। इन सब में पक्षियों की घटती जनसंख्या सबसे ज्यादा
चिन्ताजनक हैं। क्योंकि पक्षी अनेक प्रकार की पारिस्थितिकी सेवाएँ प्रदान करते हैं, और
पक्षियों की एक पीड़ित जाति है गिद्ध।
गिद्धों का प्रकृति में अतुलनीय योगदान है। अगर
गिद्ध हमारी प्रकृति का हिस्सा न हो तो हमारी दुनिया सड़े मांस का ढेर हो जाती। गिद्ध
पर्यावरण के प्राकृतिक सफाई कर्मी पक्षी होते हैं जो विशाल जीवों के शवों का भक्षण कर
पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने का कार्य करते हैं और हमे कई तरह की बीमारियों से बचाते
हैं। इस प्रकार गिद्ध वास्तव में अनेक संक्रामक रोगों का विस्तार रोकते हैं।
भारत में गिद्धों की कुल नौ प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें से 6 उत्तर प्रदेश में पायी जाती
हैं: मिस्र देशीय गिद्ध (Egyptian Vulture) (45.9%), स्लेंडर-बिल्ड (Slender Billed)
गिद्ध (25.4%), भारतीय गिद्ध (लॉन्ग बिल्ड (Long Billed)) (16.8%), सफेद पीठ वाले
गिद्ध (White-rumped Vulture) (10.3%), लाल सिर वाला गिद्ध (रेड हेडेड (Red
Headed)) (0.8%) तथा हिमालयन ग्रिफॉन (Himalayan Griffon) (0.7%)।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) इंडिया (World Wild Fund (WWF) India) ने
अंतर्राष्ट्रीय गिद्ध जागरूकता दिवस (International Vulture Awareness Day) (जो 3
सितंबर को मनाया जाता है) पर, गिद्धों की प्रत्येक प्रजाति के संरक्षण की जानकारी के साथ
भारत में गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों पर एक पोस्टर जारी किया है। गिद्धों के रंगरूप
और प्रकृति की आहार श्रृंखला में उनके तौर-तरीकों के चलते उन्हें अक्सर राक्षस के रूप में
देखा जाता है। यह भ्रम, मृत पशुओं की सड़न से पनपने वाली बीमारियों को फैलने से रोकते
हुए हमारे पर्यावरण की साफ-सफाई करने वाले इस जीव के महत्व को नजरअंदाज करता है।
गिद्धों के प्रति लोगों की जानकारी को बेहतर बनाने के लिए, हमारे देश में पाए जाने वाले
गिद्धों की नौ प्रजातियों पर प्रकाश डालते हुए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया ने ब्रिंग बैक दि वल्चर
(Bring Back the Vulture) पोस्टर का प्रकाशन किया है। गिद्धों की संख्या घटकर कम हो
गई है और देश में उनका संरक्षण अनिवार्य है। इसके चलते सरकार और कई संरक्षण
संगठनों ने नियंत्रित परिवेशों में कुछ प्रजातियों की सुरक्षा, पशुओं के उपचार में डाइक्लोफेनक
सोडियम के उपयोग पर प्रतिबंध और वनों में गिद्धों की संख्या की निगरानी जैसे कुछ
कदम उठाए हैं।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के महासचिव और सीईओ रवि सिंह ने कहा, ''भारत में गिद्धों की
प्रजातियों के प्रति जागरूकता बढ़ने से उनके संरक्षण के कार्य में सहायता मिलेगी। देश में
गिद्धों की संख्या को बचाने और बढ़ाने के कुछ प्रयास जारी हैं। इस तरह की पहल से हमें
उम्मीद है कि गिद्धों की संख्या में वृद्धि होगी और वे पारितंत्र की सेवाओं में अपना
व्यापक योगदान जारी रखेंगे।'' इस पोस्टर में ह्वाइट-रंप्ड वल्चर (चमर गिद्ध), इंडियन
लॉङ्ग-बिल्ड वल्चर (लंबी चोंच वाला भारातीय गिद्ध), स्लेंडर-बिल्ड वल्चर (पतली चोंच
वाला गिद्ध), रेड-हेडेड वल्चर (लाल सिर वाला गिद्ध/राज गिद्ध), इजिप्शन वल्चर (सफेद
गिद्ध), सिनिअरिअस वल्चर (काला/धूसर गिद्ध), बिअर्डिड वल्चर (दाढ़ी वाला गिद्ध),
हिमालयन ग्रिफन (हिमालयी ग्रिफिन) और यूरेशियन ग्रिफन (यूरेशियाई ग्रिफिन) की प्रत्येक
प्रजाति के चित्र और जानकारी के अतिरिक्त उनके संरक्षण की स्थिति शामिल है। इसमें इन
महत्वपूर्ण प्रजातियों की रक्षा के मद्देनजर बताया गया है कि हमारे पारितंत्र की सहायता वे
किस प्रकार करते हैं, हम उन्हें कैसे बचाने की कोशिश कर सकते हैं। देश भर में जमीनी
स्तर पर प्रचार-प्रसार के लिए इन पोस्टरों का प्रकाशन हिंदी, मराठी, गुजराती, मलयालम,
तेलुगु, तमिल, कन्नड़, बांग्ला और असमिया में भी किया जाएगा।
महाराष्ट्र वन विभाग और द कॉर्बेट फाउंडेशन (Corbett Foundation) ने राज्य में
पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले गिद्धों के
संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ाने लिए के लिए स्थानीय भाषाओं में पोस्टर तैयार किए।
पोस्टर को बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस (Bombay Natural History
Society (BNHS))) और सेविंग एशियाज वल्चर फ्रॉम एक्सटिंक्शन (सेव (Saving Asia’s
Vultures from Extinction (SAVE))) के परामर्श से विकसित किया गया है।
यह अभियान
भारत में गिद्धों के सामने आने वाली समस्याओं पर प्रकाश डालता है खासकर मुख्य खतरों
में से एक पशु चिकित्सा की विषाक्तता। गिद्ध आबादी में गिरावट की शुरुआत से ठीक
पहले पक्षी जिसके शिकार हो रहे थे, वह था नॉन-स्टेरॉयडल एंटी इंफ्लैमेटरी ड्रग्स
(एनएसएआईडी) डिक्लोफेनाक (Diclofenac)। पशु चिकित्सा एनल्जेसिक दवा डिक्लोफेनाक,
जिसे उपमहाद्वीप में 1980 के दशक के अंत में पशु चिकित्सा के उपयोग के लिए पेश
किया गया था, और गिद्धों द्वारा ऐसे मृत पशुधन का भक्षण किया गया जिनका उपचार
डाइक्लोफेनाक द्वारा किया गया था। प्रयोगों से पता चला कि गिद्ध डाइक्लोफेनाक के लिए
अतिसंवेदनशील थे, और एक ऐसे जानवर जिनका डाइक्लोफेनाक की सामान्य खुराक के साथ
उपचार किया गया था, के शव को खाने के थोड़े समय के अंदर ही गिद्ध गुर्दों की विफलता
के कारण मर गये।
जब 2004 में, यह पाया गया कि डाइक्लोफेनाक गिद्धों की मौत का कारण था, लेकिन तब
तक देर हो चुकी थी, और तब तक 97 प्रतिशत आबादी खो चुकी थी। उसी वर्ष, भारत
सरकार ने अन्य एजेंसियों के साथ एक गिद्ध पुनर्प्राप्ति योजना बनाई, जिसमें डाइक्लोफेनाक
के पशु चिकित्सा उपयोग पर प्रतिबंध लगाने, इसके विकल्प को खोजने और गिद्धों के लिए
संरक्षण प्रजनन केंद्र स्थापित करने की सिफारिश की गई थी। इस शोध के आधार पर,
2006 में भारत में डाइक्लोफेनाक के पशु चिकित्सा उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
लेकिन फिर भी कई लोग पशु चिकित्सा में इसका उपयोग कर रहे थे, इस दुरुपयोग को
रोकने के लिए, 2015 में, भारत सरकार ने मानव चिकित्सा में डाइक्लोफेनाक की बहु-खुराक
शीशियों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया, केंद्र ने मानव उपयोग के लिए डाइक्लोफेनाक
की शीशी के आकार को भी केवल तीन मिलीलीटर तक सीमित कर दिया। इन 30 वर्षों में
एक पशु चिकित्सा दवा के रूप में डाइक्लोफेनाक का उपयोग काफी कम हो गया है। लेकिन
अभी भी समस्याएं हैं, भारत में गिद्धों के लिए कीटनाशक प्रदूषण भी एक खतरा है।
शिकारी, हाथी, बाघ, गैंडा, हिरण और भालू जैसे जंगली पशुओं के चमड़े, दांत, कस्तूरी, सींग,
शाखायुक्त सींग और बाइल को निकालने के लिए जहरीले भोजन का सहारा लेते हैं। जब
जहरीला भोजन खा कर मरने वाले पशुओं के शवों को गिद्ध खाते हैं तो वे भी मर जाते हैं।
महाराष्ट्र वन विभाग ने राज्य में गिद्ध संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए इला फाउंडेशन (Ela
Foundation) और सह्याद्री निसर्ग मित्र (Sahyadri Nisarg Mitra ) के साथ भागीदारी की
है। प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) और मुख्य वन्यजीव वार्डन, महाराष्ट्र, सुनील लिमये
ने कहा, "पिछले कई वर्षों से, वन विभाग द्वारा आवासों की सुरक्षा और पक्षियों की सैटेलाइट
टैगिंग जैसे कई इन-सीटू संरक्षण कार्यक्रम (in-situ conservation programmes) चलाए
जा रहे हैं।
उन्होंने आगे कहा कि कोंकण, पश्चिमी महाराष्ट्र और विदर्भ क्षेत्र में अभी भी
राज्य में रहने वाले सफेद-पंख वाले, भारतीय और मिस्र के गिद्धों के लिए दीर्घकालिक
प्रजनन क्षेत्र के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक निवास स्थान है। अंतर्राष्ट्रीय गिद्ध
जागरूकता दिवस के अवसर पर, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के विभु प्रकाश, जिन्होंने इन
तीन दशकों में भारतीय गिद्धों की आबादी बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, ने कहा
“हमने हाल ही में गिद्धों की आबादी के आकलन के लिए एक सर्वेक्षण पूरा किया है। हम
आंकड़ों का विश्लेषण कर रहे हैं। एक दो महीने में परिणाम जारी कर दिया जाएगा। परिणाम
देख कर लगता है कि इनकी संख्या धीरे-धीरे ही सही परन्तु बढ़ रही है।“
भारत सरकार द्वारा बीएनएचएस के सहयोग से स्थापित आठ केंद्रों में 800 से अधिक
गिद्ध हैं। ये केंद्र पिंजौर (हरियाणा), रानी (असम), राजाभातखवा (पश्चिम बंगाल), हैदराबाद
(तेलंगाना), भोपाल (मध्य प्रदेश), जूनागढ़ (गुजरात), रांची (झारखंड) और भुवनेश्वर (ओडिशा)
में स्थित हैं। परन्तु अभी भी भारत में तेजी से कम होती गिद्धों की संख्या गंभीर चिंता का
विषय है और सरकार को इन मुर्दाखोर पक्षियों के संरक्षण के लिए तत्काल ध्यान देने की
जरूरत है ताकि पर्यावरण साफ– सुथरा बना रह सके और रेबीज और इसके जैसी अन्य
घातक बीमारियों से होने वाली मौतों से बचा जा सके।
संदर्भ:
https://bit.ly/3BMFYB2
https://bit.ly/3LQZT6q
https://bit.ly/3RmlkO2
https://bit.ly/3SAY93C
चित्र संदर्भ
1. मृत जानवर को खाते गिद्ध को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
2. भारतीय गिद्धों के झुण्ड को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. अपने घोंसले में बैठे गिद्ध को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. मरे हिरन को खाते गिद्धों को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
5. मृत पड़े गिद्धों को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
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