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भारत की सबसे खूबसूरत परंपराओं में से एक,चबूतरा है, जो अब गुजरात के गांवों के प्रवेश द्वार या
केंद्र में और राजस्थान और महाराष्ट्र के कुछ स्थानों को छोड़कर भारत के प्रत्येक हिस्से से लगभग
गायब हो चुकी है। चबूतरा शीर्ष पर एक अष्टकोणीय या पंचकोणीय आकार के बाड़ों के साथ एक
टावर (Tower) जैसी संरचना है।इसके छत पर कई छेद होते हैं, जिनमें पक्षी अपना घोंसला बना
सकते हैं। इस संरचना के अंदर पक्षी, ज्यादातर अब कबूतर रहते हैं और प्रजनन करते हैं। यह
संरचना एक स्तंभ द्वारा समर्थित होती है। संरचना के आधार पर एक बैठने का स्थान होता है जहां
ग्रामीण बैठकर बात कर सकते हैं। इसका उद्देश्य पक्षियों के बारे में अधिक जानना और उनके बीच
मौजूद दूरी को दूर करना है। आमतौर पर चबूतरे का निर्माण खिलाने और आराम करने के लिए
किया जाता है। ऐसे चबूतराओं का बाड़ा शंक्वाकार गुंबद और खिड़कियों के साथ एक अष्टकोणीय घर
की तरह बनाया जाता है। जिसे एक-डांडिया चबूतरे के रूप में जाना जाता है, यह अनिवार्य रूप से
एक गुंबद से ढकी हुई एक ऊंची समतल भूमि है और 5-6 फीट ऊंचे खंभे पर लगाया जाता है।
समतल भूमि पर पक्षियों के लिए पानी का एक बर्तन और कुछ खाना रखा जाता है।कुछ चबूतरे एक
कमरे जितने बड़े हो सकते हैं। पत्थर और ईंटों से निर्मित ऊंचे चबूतरे होते हैं जो छोटे आकार की
गौरैयों, मैना और कबूतरों से लेकर बड़े आकार के मोर जैसे विभिन्न प्रकार के पक्षियों को आश्रय
प्रदान करते हैं।
गुजराती चबूतरा शब्द कबूतर से लिया गया है। जिसका सामान्य अर्थ कबूतरों के लिए बुर्ज हो सकता
है। खेती और व्यापारिक समुदायों द्वारा पक्षियों को खाना खिलाना हमेशा शुभ माना गया है, और
यह वास्तव में है, क्योंकि पक्षी खेतों के कीड़ों को खाते हैं और पौधों और पेड़ों के बीज फैलाते हैं।
आज भी हम में से कई लोगों ने देखा होगा कि ग्रामीणों द्वारा सुबह उठते ही छोटी सी पोटली में
चबूतरे में रखने के लिए अनाज लेकर आते हैं। कच्छ में चबूतरे उन गांवों में पाए जाते हैं जहां
मिस्त्री, शिल्पकार रहते हैं। गुजरात के बाहर सबसे प्रसिद्ध चबूतरा रेलवे स्टेशन के ठीक बाहर
रायगढ़, छत्तीसगढ़ में है, जिसे 1900 में एक रेलवे ठेकेदार और उद्यमी, जो कच्छ के एक मिस्त्री भी
थे, द्वारा निर्मित किया गया था, क्योंकि उनका मानना था कि उनके सफल व्यापार के पीछे पक्षियों
का हाथ था।
गुजरात के बाहर, मध्य प्रदेश और राजस्थान में चबूतरा मुख्य रूप से शाही महलों या मंदिरों में देखा
जा सकता है। यह कबूतरों के लिए नहीं बल्कि सभी प्रकार के पक्षियों के लिए हुआ करते थे। लेकिन
अब ये केवल पुरावस्तु के रूप में खड़ें हैं, और यहाँ न पक्षियों के लिए खाना डाला जाता है, बल्कि
तेज स्पीकरों की वजह से न ही स्वयं पक्षी यहाँ आना पसंद करते हैं। वहीं अहमदाबाद की गलियों में
भी अनेक प्रकार के पक्षियों के चबूतरे दिखाई देते हैं, इनकी संरचना इतनी अद्भुत है कि ये पेड़ों के
समान दिखाई देते हैं। अहमदाबाद का सबसे पुराना और सबसे अद्भुत चबूतरा करंज में है, जो लकड़ी
से बना है और माना जाता है कि यह कम से कम 140 साल पुराना है।
इस चबूतरे के निर्माण के
पीछे की कहानी यह है कि करीब 140 साल पहले एक संत डाकोर से द्वारका की यात्रा कर रहे थे,
तभी उन्हें बहुत प्यास लगी। वह भद्रा किले के द्वार के पास करंज (अहमदाबाद के पास) में रुके।
संत ने देखा कि चारों ओर बहुत कम पेड़ थे, और उनकी मनोकामना थी कि यहां एक चबूतरा हो
जहां पक्षी आएं, खाना खाएं और विश्राम करें। एक स्थानीय किराना व्यापारी, बापलाल मोदी ने संत
की बात सुनी और संत के लौटने से पहले एक चबूतरे का निर्माण करने का फैसला किया। करंज
चबूतरा एक लकड़ी की संरचना है जिसके शीर्ष पर तांबे का आवरण है।
चबूतरों के निर्माण कर पीछे के कई कारण बताए गए हैं, राजस्थान के लोगों के अनुसार पूरे भारत में
पहले कबूतरों के माध्यम से एक दूसरे को संदेश पहुँचाया जाता था। इसलिए शाही परिवारों द्वारा इन
संदेश वाहकों के आराम और खाने के स्थान के रूप में इन चबूतरों का निर्माण किया गया। वहीं
गुजरात में चबूतरों का गहरा धार्मिक महत्व है। कई समुदायों का मानना है कि पूर्वजों की आत्मा
जानवरों और पक्षियों में चली जाती है, इसलिए पक्षियों को खिलाने का अर्थ है कि वे अपने ही
परिवार के सदस्यों को खिला रहा हैं। वहीं कई गांवों में चबूतरे का निर्माण सामुदायिक सभा या
त्योहारों का उत्सव मनाने के लिए किया गया था।
चबूतरे जैसी संरचना को हम कई अन्य देशों में भी देख सकते हैं, इन्हें डवकोट (Dovecote) या
दरबा के नाम से जाना जाता है। दरबा विभिन्न आकृतियों में मुक्त खड़ी संरचना हो सकती हैं, या
एक घर या खलिहान के अंतिमभाग में निर्मित हो सकते हैं। इन्हें मुख्य रूप से पक्षियों के लिएघोंसले (आमतौर पर कबूतरों के लिए) बनाने के लिए निर्मित किया जाता है।
मध्य पूर्व और यूरोप
(Europe) में ऐतिहासिक रूप से कबूतर एक महत्वपूर्ण खाद्य स्रोत थे और उन्हें उनके अंडे और
गोबर के लिए पाला जाता था।माना जाता है कि सबसे पुराने दरबा ऊपरी मिस्र में किले जैसे दरबा
और ईरान के गुंबददार दरबा थे। इन क्षेत्रों में, किसानों द्वारा खाद के लिए कबूतरों के मल का
उपयोग किया जाता था। कबूतर के मल का उपयोग चरमशोधन और बारूद बनाने के लिए भी किया
जाता था।कुछ संस्कृतियों में, विशेष रूप से मध्यकालीन यूरोप में, दरबा एक व्यक्ति की स्थिति और
शक्ति का प्रतीक था और इसके परिणामस्वरूप इसे कानून द्वारा विनियमित कर दिया गया था और
केवल रईसों के पास यह विशेषाधिकार था, जिसे ड्रोइट डी कोलम्बियर (Droit De Colombier) के
नाम से जाना जाता है।फ़्रांस (France) और यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) में कई प्राचीन
जागीरदारों में एक दरबा अभी भी जागीर के बाड़े के एक हिस्से में या आस-पास के खेतों में मौजूद
है। उदाहरण के लिए, ब्रिटनी (Brittany), फ्रांस (France), हाउचिन (Houchin) में चेटौ डी केर्जेन
(Chateau de Kerjean), वेल्स (Wales) में बोडीसगैलन हॉल (Bodysgallen Hall) और स्कॉटलैंड
(Scotland)में मुचॉल कैसल (Muchalls Castle) और नेवार्क कैसल (Newark Castle)शामिल हैं।
संदर्भ :-
https://bit.ly/3LsQPmP
https://bit.ly/3tVPBLa
https://bit.ly/3u3bCYx
https://bit.ly/371MWqf
चित्र संदर्भ
1. चबूतरे पर बैठी चिड़िया को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. चबूतरा टावर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. अहमदाबाद, भारत में प्रदर्शित एक विशिष्ट भोजन-सह-आराम करने वाला चबुतारो। यह 120 साल पुराना है जिसको दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. नजफाबाद, ईरान में एक डवकोट को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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