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भारत को त्योहारों का देश भी कहा जाता है। पूरे विश्व में शायद ही अन्य कोई ऐसा देश होगा, जहां लोगों को खुशियां मनाने और नाचने गाने के इतने ढेर सारे अवसर मिलते हो। इन सभी में बैसाखी भी एक बेहद प्रमुख अवसर है। बैसाखी उत्तर भारत के विभिन्न प्रांतों में हिन्दू तथा सिख समुदायों द्वारा मनाया जाने वाला एक फसल उत्सव है। पंजाब में बैसाखी रबी की फसलों के पकने का संकेत है। यह दिन विशेष रूप से ईश्वर को अच्छी फसल के लिए किसानों का आभार दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन किसान ईश्वर के प्रति धन्यवाद व्यक्त करते हैं, तथा भविष्य में भी अच्छी फसल की कामना करते हैं। 20 वी सदी की शुरुआत में हिन्दुओं तथा सिखों के द्वारा बैसाखी एक बेहद पावन पर्व के रूप में मनाया जाता था। जहां ईसाई और मुस्लिम समाज के लोग भी अपनी भरपूर भागीदारी देते थे। आज के समय में भी हिन्दू और सिखों के साथ ईसाई जन उल्लास में शामिल होते हैं। लोक नृत्य भांगड़ा आज के समारोह का सबसे खास आकर्षण होता है। भंगड़ा को परंपरागत रूप से फसलों का नाच माना जाता है।
विभिन्न रिवाजों और रस्मों के साथ बैसाखी पर्व प्रतिवर्ष 13 तथा 14 अप्रैल के बीच मनाया जाता है। जिसमें आवत पौनी (Aawat pauni) भी एक बेहद खास रिवाज है। कई वर्षों पहले तक जब फसल काटने के लिए मशीनें उपयोग में नहीं आई थी, उस समय किसान अपनी फसल काटने के लिए अपने मित्रों, रिश्तेदारों को आमंत्रित करते थे। इस परंपरा को आवत पौनी के नाम से जानते हैं। यह एक पंजाबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ “आने के लिए” अथवा “पहुँचने के लिए” होता है। कुछ दशक पहले तक यह रिवाज़ बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था। समय के साथ इसकी रौनक कुछ कम हुई, परन्तु कई जगहों पर आज भी बेहद उत्साह के साथ यह मनाया जाता है। आवत पौनी के समय समस्त मित्र, रिश्तेदार और अन्य परिवारजन एक साथ मिलकर एक जगह इकट्ठा होते हैं। साथ मिलकर ढोल बजाते है, तथा फसल काटते हैं। तथा शाम होने के बाद भांगड़ा नृत्य होता है, दोहाज
गाया जाता है। पंजाब के कई स्थानों पर बैसाखी को एक नववर्ष के तौर में मनाया जाता है। जगह-जगह शानदार मेले लगते है, तथा विभिन्न प्रकार के रीती रिवाजों को गुरुद्वारो में सम्पन्न किया जाता है। पंजाबी लोग सामूहिक नृत्य (भंगड़ा) करते हैं हर समूह में लगभग 20 लोग प्रतिभाग करते हैं। अनेक प्रकार के लोक-गीत संगीत भी गाये जाते है। वर्तमान में लाउडस्पीकर को भी शामिल किया जाता है। जो लोग आवत पौनी परंपरा में भाग लेते हैं, उन्हें दिन में 3 बार भोजन परोसा जाता है। उन्हें बेहद स्वादिष्ट फल-फूल और अन्य प्रकार के व्यंजन जैसे की खीर, कराह, सेवइयां, दूध, दही इत्यादि दिया जाता है। हालांकि आवत पौनी में ऐसे लोग शामिल नहीं होते जिन्होंने हाल के दिनों में परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु देखी हो।
मान्यता के अनुसार जब मुग़ल शाशक औरंगजेब का आतंक बढ़ता जा रहा था, तब तत्कालीन सिख गुरु गोबिंद सिंह ने परीक्षा लेने के लिए 5 आदमियों का सिर मांगा। जिसके फलस्वरूप भीड़ से पांच युवक: भाई साहिब सिंह, भाई धरम सिंह, भाई हिम्मत सिंह, भाई मोहकम सिंह और भाई दया सिंह बड़ी ही निडरता से एक-एक करके उनके पास आये। तथा अपना शीश देने का निर्णय किया। उसी स्थान पर एक तम्बू लगा था। जहां जाकर उन्हें अपने शीश का बलिदान देना था। परन्तु भीतर जाकर वे सारा मांजरा समझ गए। उनकी कर्त्तव्य निष्ठा देखकर गुरु गोविन्द सिंह ने उस दिन से उन पांच युवकों को पंच प्यारे नाम दिया। और खालसा पंथ की स्थापना की गयी। पंच प्यारे में से एक भाई धर्म सिंह जी मेरठ जिले के हस्तिनापुर के पास सैफपुर करमचंदपुर गाँव में रहा करते थे। इनका जन्म 1666 में भाई संतराम और माई साभो के घर में हुआ था। भाई धर्म सिंह ने भरी सभा में गुरूजी को अपने सर की पेशकश की, यही कारण है की ये गुरु गोबिंद सिंह के पंच प्यारों में शामिल हो गए। यह गुरु गोविन्द सिंह जी के साथ लड़ाइयों में भी गए। तथा सन् 1708 में गुरुद्वारा नानदेव साहिब में उनका देहांत हो गया
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