प्रत्येक मृत भाषा एक संस्कृति प्रणाली के पतन को इंगित करता है

ध्वनि 2- भाषायें
23-02-2021 11:24 AM
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प्रत्येक मृत भाषा एक संस्कृति प्रणाली के पतन को इंगित करता है
प्रत्येक व्यक्ति या समाज को अपने भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। विश्व भर में 7,000 समकालीन भाषाएं हैं और लगभग 3,000 'लुप्तप्राय' मानी जाने वाली भाषाएं मौजूद है। इस से अभिप्रेत है कि ग्रह की वर्तमान भाषाई विविधता का लगभग आधा हिस्सा खतरे में है। भारत में भाषा की स्थिति चिंताजनक है। कुछ 197 भाषाएँ हमारे देश में खतरे के विभिन्न चरणों में हैं, जो विश्व के किसी भी देश से अधिक है। किसी क्षेत्र की संस्कृति और सभ्यता के विकास में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किंतु क्या हो यदि किसी क्षेत्र की निजी भाषा या बोली वहां से विलुप्त हो जाए? ऐसे कई उदाहरण है, जो इस घटना या प्रक्रिया का उल्लेख करते हैं, तथा यह प्रक्रिया स्थानांतरण के रूप में जानी जाती है। भाषा स्थानांतरण, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें समय की एक विस्तारित अवधि में कोई समुदाय अपने क्षेत्र विशेष की भाषा को छोड़कर एक अलग भाषा को अपना लेता है। अक्सर, जिन भाषाओं को उच्च स्थिति का माना जाता है, वे अन्य भाषाओं की कीमत पर स्थिर होती हैं या फैलती हैं, जो अपने स्वयं के वक्ताओं द्वारा निम्न-स्थिति की या निम्न दर्जे की मानी जाती है। इस प्रक्रिया को भाषा हस्तांतरण या भाषा प्रतिस्थापन या भाषा आत्मसात के नाम से भी जाना जाता है। भाषा स्थानांतरण का मुख्य उदाहरण उत्तर प्रदेश की कई प्रमुख बोलियाँ जैसे जाटू, गुर्जरी, अहिरी, ब्रजभाषा आदि हैं, जो कई वर्षों तक तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अत्यधिक प्रचलित थीं किंतु अब शायद ही उपयोग में हैं।
इन्हें क्षेत्र में बोली जाने वाली प्रचलित भाषा जिसे इतिहासकारों ने ‘हिंदुस्तानी’ भाषा का नाम दिया है, के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है। एक समय ऐसा भी था जब हर कस्बे या क्षेत्र या समुदाय, में उसी क्षेत्र से सम्बंधित बोली या भाषा कही जाती थी लेकिन भाषा स्थानांतरण के कारण इन क्षेत्रीय बोलियों का अस्तित्व समाप्त होने की कगार पर है। भाषा स्थानांतरण की प्रक्रिया में एक समुदाय या क्षेत्र अपनी निज भाषा के स्थान पर एक अन्य भाषा को इतना अधिक अपना लेता है कि परिणामस्वरूप विदेशी भाषा, निज भाषा पर हावी हो जाती है। यह एक सामाजिक घटना है जहां एक भाषा किसी समाज में बोली जाने वाली भाषा को प्रतिस्थापित कर देती है। इस स्थिति में उस क्षेत्र के वक्ताओं द्वारा निज भाषा या बोली को निम्न-दर्जे का माना जाने लगता है। यह प्रक्रिया समाज की संरचना और आकांक्षाओं में अंतर्निहित परिवर्तनों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है। जब कोई समुदाय अन्य भाषायी समुदाय के संपर्क में आता है तब वह नई अर्थात अन्य भाषा को अपनाता है, जिससे क्षेत्र में नयी भाषा का विस्तार होता है तथा पुरानी भाषा या क्षेत्रीय भाषा का हास्र होने लगता है।
वहीं भाषा परिवर्तन के परिणामस्वरूप कई क्षेत्रीय भाषाएं तेजी से गुमनामी की ओर अग्रसर हैं। चूंकि क्षेत्रीय भाषाएं, लोक परंपराओं से जुडी होती हैं, इसलिए भाषा नुकसान के साथ-साथ लोक परंपराएं भी गुमनामी की कगार पर हैं। ऐसी अनेक बोलियां हैं, जिन्हें आजादी के समय तक बोला जाता था तथा इनकी अपनी विशिष्ट पहचान थी। इन बोलियों में जाटू जो सहारनपुर से बागपत तक बोली जाती थी, गुर्जरी जिसे मथुरा से गाजियाबाद तक बोला जाता था, ब्रजभाषा, जो मथुरा, नोएडा और गाजियाबाद क्षेत्र में प्रचलित थीं, आदि शामिल हैं। हालांकि, जैसे-जैसे समय बदलता गया और नयी भाषा का विस्तार हुआ इन क्षेत्रीय बोलियों का उपयोग भी कम हो गया। भाषा प्रतिस्थापन यदि जारी रहता है, तो इनमें से अधिकांश बोलियों का अस्तित्व बहुत जल्द समाप्त हो जायेगा। विभिन्न बोलियों के गुमनामी की ओर जाने के विभिन्न कारण हैं। इसका मुख्य कारण आमतौर पर हिंदुस्तानी भाषा जो कि हिंदी, उर्दू, और कुछ क्षेत्रीय बोलियों का समामेलन है, के उद्भव को माना जाता है।
भारत में दिल्ली सल्तनत की अवधि के दौरान, पुरानी हिंदी का प्राकृत आधार फ़ारसी के शब्दों के साथ समृद्ध हुआ, जो वर्तमान में हिंदुस्तानी के रूप में विकसित है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिंदुस्तानी भाषा भारतीय राष्ट्रीय एकता की अभिव्यक्ति बनी और उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों की आम भाषा के रूप में बोली जाने लगी। यह बॉलीवुड फिल्मों (Bollywood movies) और गीतों की हिंदुस्तानी शब्दावली से भली-भांति परिलक्षित होता है। हिंदुस्तानी भाषा की शब्दावली प्राकृत भाषा से ली गई है। विशेषज्ञों का कहना है कि स्वतंत्रता के बाद के युग से, बॉलीवुड फिल्मों में तथा स्थानीय अखबारों जैसे मीडिया (Media) रंगमंच में हिंदुस्तानी भाषा के उपयोग से इसका प्रचलन बढ़ा। इसके अलावा सरकार ने भी हिंदी को एक सामान्य भाषा के रूप में लागू करने के अपने प्रयास में, क्षेत्रीय संस्कृति और परंपराओं को धूमिल कर दिया। बोली जिसे मातृभाषा भी कहा जा सकता है, एक ऐसी भाषा है जिसे व्यक्ति अपने घर से सीखता है, यह वो नहीं है जिसे सरकार हम पर लागू करना चाहती है। यह वो है जो किसी क्षेत्र की संस्कृति और लोक परंपराओं का विकास करती है। किंतु इनका विलुप्त होना उस क्षेत्र की संस्कृति और लोक परंपराओं के पतन को इंगित करती है।
ऐसे ही गुजरात के तेजगढ़ में भासा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर (Bhasa Research and Publication Centre), वडोदरा और आदिवासी अकादमी के संस्थापक-निदेशक गणेश एन डेवी ने बताया कि, “भारत 1961 से 220 भाषाओं को खो चुका है। 1,652 मातृभाषाओं की जनगणना संख्या के आधार पर 1961 के उपरांत 1,100 भाषाएँ थीं। भाषाई विशेषज्ञ डेवी ने 780 जीवित भाषाओं का दस्तावेजीकरण किया और दावा किया कि उनमें से 400 के लुप्त होने का खतरा है। पाँच आदिवासी भाषाएँ हैं जो भारत में विलुप्त होने की कगार की ओर बढ़ रही हैं। भाषाविशेषज्ञों का कहना है कि सिक्किम में माझी (Majhi) भाषा सबसे अधिक खतरे में है। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (People’s Linguistic Survey of India) द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार, केवल चार लोग हैं जो वर्तमान में माझी बोलते हैं और वे सभी एक ही परिवार के हैं। इसी तरह, पूर्वी भारत में महाली (Mahali) भाषा, अरुणाचल प्रदेश में कोरो (Koro), गुजरात में सिदी (Sidi) और असम में दिमासा (Dimasa) विलुप्त होने का सामना कर रहे हैं। अभी हाल तक, यूनेस्को (UNESCO) ने असुर (Asur), बिरहोर (Birhor) और कोरवा (Korwa) को दुनिया की लुप्तप्राय भाषाओं की अपनी सूची में रखा है, जिसमें बिरहोर को गंभीर रूप से लुप्तप्राय ’के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिसके केवल 2,000 वक्ता बचे हैं।
जबकि विलुप्त होने का खतरा कुछ भाषाओं पर मंडरा रहा है, कई अन्य भाषाएं पनप रही हैं। उदाहरण के लिए, गोंडी (ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र में बोली जाती है), भीली (महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात), मिज़ो (मिज़ोरम), गारो और खासी (मेघालय) और कोकबोरोक (त्रिपुरा) में वक्ताओं की वृद्धि को देखा गया है, क्योंकि इन समुदायों में शिक्षित लोग इन भाषाओं का उपयोग लेखन के लिए करने लगे हैं। ओडिशा में भारत की सबसे अधिक विविध जनजातीय आबादी है, जिसमें 62 जनजातियाँ हैं, जिनमें 13 विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह शामिल हैं। 21 जनजातीय भाषाएँ और 74 बोलियाँ हैं जो राज्य की भाषाई विविधता में बहुत योगदान देती हैं। केवल छह जनजातीय भाषाओं संताली, हो, सौरा, मुंडा और कुई की एक लिखित लिपि मौजूद है। संताली को पहले से ही आठवीं सारणी में शामिल किया गया है। हालांकि राज्य सरकार ने आदिवासी बच्चों द्वारा सामना की जाने वाली भाषा बाधाओं के मुद्दों को हल करने के लिए 2006 में बहु-भाषी शिक्षा कार्यक्रम को अपनाया। ओडिशा सरकार द्वारा बहु-भाषी शिक्षा कार्यक्रम के लिए 3,385 जनजातीय भाषा शिक्षकों की नियुक्ति की है।
इसके अतिरिक्त, राज्य सरकार ने 20 जनजातीय भाषाओं के लिए शब्दकोशों को प्रकाशित भी किया है। ये न केवल विद्वानों और उत्साही लोगों को भाषा सीखने में सक्षम बनाते हैं बल्कि साहित्य का निर्माण भी करते हैं - अंततः मौजूदा भाषा का संरक्षण करते हैं। हालाँकि, स्कूलों में जनजातीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए ओडिशा सरकार द्वारा की गई विभिन्न पहलों ने वांछित परिणाम नहीं दिए हैं। भाषाई विशेषज्ञों का दावा है कि मातृभाषा आधारित बहु-भाषी शिक्षा आदिवासी भाषाओं के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। आदिवासी बच्चों के लिए बचपन में मातृभाषा आधारित हस्तक्षेप को अनदेखा करना बचपन की सीखने की प्रक्रिया को संभावित रूप से बाधित कर सकता है। ओडिशा में कुछ नागरिक समाज संगठन हैं जिन्होंने मातृभाषा आधारित बहु-भाषी शिक्षा शिक्षा प्रणाली के आशाजनक प्रारूप का प्रदर्शन किया है। वहीं भाषाई विशेषज्ञों का सुझाव है कि, आदिवासी भाषाओं को अभिनव, सांस्कृतिक और मनोरंजन कार्यक्रमों के माध्यम से समर्थन किया जाना चाहिए।

संदर्भ :-
https://bit.ly/2ZDVb4P
https://bit.ly/2NRUp1e
https://bit.ly/2ZFKnTH
https://en.wikipedia.org/wiki/Hindustani_language
https://bit.ly/3qMH490

चित्र संदर्भ:
मुख्य तस्वीर में देवनागरी, नास्तलीक और कैथी में हिंदुस्तानी को लिखा दिखाया गया है। (विकिमीडिया)
दूसरी तस्वीर में अंग्रेजी भाषा पढ़ाने वाले छात्रों को दिखाया गया है। (विकिमीडिया)
तीसरी तस्वीर में भारत के भाषा क्षेत्र के नक्शे दिखाए गए हैं। (विकिमीडिया)
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