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वैदूर्य कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:।
अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥
शनि ग्रह वैदूर्यरत्न अथवा बाणफ़ूल या अलसी के फ़ूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, तो उस समय प्रजा के लिये शुभ फ़ल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है, ऐसा ऋषि, महात्मा कहते हैं।
शनि देव हिन्दू धर्म के पारंपरिक देवताओं में शनी देव का विशेष स्थान है। शनिदेव अपशकुन और प्रतिशोध के अग्रदूत माने जाते हैं, और हिन्दुओं का मानना है कि शनि देव की प्रार्थना करने से बुराइयां और व्यक्तिगत बाधाएं दूर होती हैं। भारत में अनेकों मंदिर शनिदेव को समर्पित हैं, मेरठ के बालाजी मंदिर में भी एक शनि धाम में मौजूद है। शनि, सूर्य देव और छाया, यह सूर्य देव की सेविका हैं जिन्होंने सूर्य की पत्नी स्वर्णा के लिए स्थानापन्न माता के रूप में कार्य किया था। जब शनि छाया के गर्भ में थे उनकी माता ने शिव को प्रसन्न करने के लिए उपवास रखे और तप्त सूर्य के नीचे बैठ गयी। नतीजतन, शनि गर्भ में ही काले हो गये, इनके बारे में कहा जाता है कि वह अपने पिता सूर्य से नाराज थे।
जब शनि ने शिशु के रूप में पहली बार अपनी आँखें खोलीं, तो सूर्य ग्रहण लग गया माना जाता है कि शनि ने अपने क्रोध से अपने पिता को काला (अस्थायी रूप से) कर दिया था। हिंदू देवता यम शनि के बड़े भाई हैं, शनि जीवित व्यक्ति को न्याय देते हैं जबकि यम मृत्यु के बाद न्याय देते हैं। बुरी शक्तियों का नाश करने वाली काली और शिकार की देवी भद्रा शनि की बहने हैं। संस्कृत के विभिन्न हिंदू खगोलीय ग्रंथों में शनि को ग्रह रूप में दर्शाया गया है। इन ग्रंथों की पांडुलिपियों में आकाश में शनि की गति को दर्शाया गया है, लेकिन उनके आंकड़ों में भिन्नता मौजूद है। शनि शनिवार के देवता भी हैं। शनि को सबसे हानिकारक ग्रह माना जाता है जो प्रतिबंध और दुर्भाग्य लाता है। शनि हिंदू ज्योतिष की राशि प्रणाली में बारह राशियों में से दो, मकर और कुंभ राशि का स्वामी है। टेलीविजन जगत में शनिदेव पर कई धारावाहिक बने हुए हैं।
हिंदू प्रतिमाओं में, शनि को काले शरीर के साथ रथ में सवार दिखाया जाता है जो स्वर्ग से धीरे-धीरे चल रहे हैं। इनके पास विभिन्न हथियार जैसे तलवार, धनुष और दो तीर, एक कुल्हाड़ी और त्रिशुल दिखाए जाते हैं और कभी-कभी इन्हें गिद्ध या कौवा पर सवार भी दिखाया जाता है। अक्सर गहरे नीले या काले रंग के कपड़े पहने हुए, वह नीले रंग का फूल और नीलम धारण करे हुए होते हैं। मेरठ में मौजूद शनि धाम में अष्टधातु से बनी शनि देव की प्रतिमा है। अष्टधातु, (शाब्दिक अर्थ = आठ धातुएँ) एक मिश्रातु है जो हिन्दू और जैन प्रतिमाओं के निर्माण में प्रयुक्त होती हैं। यह सोना, चाँदी, तांबा, सीसा, जस्ता, टिन, लोहा, तथा पारा (रस) आठ धातुओं से मिलकर बनती है। शिल्पशास्त्र वे प्राचीन हिन्दू ग्रन्थ हैं जिनमें विविध प्रकार की कलाओं तथा हस्तशिल्पों के डिजाइन (Design) और सिद्धान्त का विवेचन किया गया है। अष्टधातुओं को हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र और सात्विक माना जाता है और इनका कभी क्षय नहीं होता है, क्योंकि यह भगवान कुबेर, विष्णु, कृष्ण, राम, कार्तिकेय, और देवी, दुर्गा और लक्ष्मी के लिए भी प्रतिबंधित हैं।
अष्टधातु की मूर्ति को बनाने के लिए धातुओं को समान अनुपात में मिलाया जाता है और तैयार मूर्ति का स्वरूप अपूर्ण होता है जिसे पॉलिश (Polished) के माध्यम सुधारा जाता है। प्राचीन काल में बनी अष्टधातु की प्रतिमाओं की पवित्रता और दुर्लभता के कारण, इन्हें अक्सर चोरी कर लिया जाता है। अष्टधातु यन्त्र भी उपलब्ध हैं। अष्टधातु मूर्तियाँ भारत के कई मंदिरों में पाई जाती हैं। मूर्तियाँ बहुत महंगी हैं और मूर्ति चोरों की नज़र हमेशा ऐसी मूर्तियों पर रहती है। कुछ मूर्तियाँ 6 वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व की बनी हुयी हैं। अष्टधातु की मूर्तियाँ बनाने की प्रक्रिया थोड़ी जटिल है और यह बदलती रहती है।
पहले चरण में मोम से वांछित मूर्ति की आकृति तैयार की जाती है। दूसरे चरण में, मोम ढांचे को बाहर से मिट्टी से ढका जाता है। तिसरे चरण में इस सांचे को आग में डाला जाता है जिससे मोम पिघल जाती है और मिट्टी का खाली सांचा तैयार हो जाता है। चौथे में चरण में आठ धातुओं को आवश्यक अनुपात में पिघलाकर मिट्टी के सांचे में डाला जाता है। धातु के ठंडा होने के बाद मिट्टी को हटा दिया जाता है।
हिंदू मंदिर वास्तुकला और मूर्तिकला की नियमावलियों को शिल्पशास्त्र में उल्लेखित किया गया है। जिसमें लगभग चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है जिन्हें 'बाह्य-कला' कहते हैं। इनमें काष्ठकारी, स्थापत्य कला, आभूषण कला, नाट्यकला, संगीत, वैद्यक, नृत्य, काव्यशास्त्र आदि हैं। इनके अलावा चौंसठ अभ्यन्तर कलाओं का भी उल्लेख मिलता है जो मुख्यतः 'काम' से सम्बन्धित हैं। शिल्प और वास्तु शास्त्र एक दूसरे से संबंधित हैं, शिल्पशास्त्र कला और शिल्प जैसे मूर्तियों का निर्माण, चिह्न, पत्थर की भित्ति चित्र, नक्काशी, मिट्टी के बर्तन, आभूषण, मरण, वस्त्र आदि का समन्वय है। वास्तु शास्त्र भवन निर्माण जैसे मकान, किले, मंदिर, कक्ष, गांव और शहर का नक्शा इत्यादि से संबंधित है।
स्टेला क्राम्रिच (Stella Kramrisch) के अनुसार शिल्प का अर्थ जटिल है। इसमें कला, कौशल, शिल्प, श्रम, सरलता, अनुष्ठान और संस्कार, रूप और निर्माण शामिल हैं। शिल्प शब्द के द्वारा शिल्प की श्रृ्ंखला संस्कृति के हर पहलू को उद्धृत किया जाता है। इसमें मूर्तिकार, कुम्हार, इत्र निर्माता, पहिया निर्माता, चित्रकार, बुनकर, वास्तुकार, नर्तक, संगीतकार आदि शामिल हैं। प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुसार कला की संख्या असीमित है।
प्राचीन भारत में इन कलाओं का उपयोग सभी वर्ग, जाति के लोगों द्वारा किया जाता था। पराशर के प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि किसी भी शिल्प पर किसी का व्यक्तिगत अधिपत्य नहीं था। बौद्ध जातक ब्राह्मण बढ़ई का उल्लेख करते हैं, चौथी शताब्दी के बौद्ध ग्रन्थों में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में वर्गीकृत लोगों का रथ निर्माता, बढ़ई, ईंट-श्रमिकों, कुम्हार और धातु श्रमिकों के रूप में वर्णन किया गया है। सुतविभंग में निर्माणकर्ता और पहिए निर्माताओं को शूद्र पिता और ब्राह्मण माता की संतान बताया गया है, जिन्हें बाद के ग्रंथों में अछूतों के कार्य के रूप में वर्णित किया गया। आगे चलकर विशेष प्रशिक्षण के माध्यम से इस कला में विशेषज्ञता हासिल की गयी। सर्वश्रेष्ठ को अपनाया गया और विभिन्न कला संघ के सदस्यों के रूप में मान्यता दी गई।
शिल्पियों ने प्राचीन भारत में श्रेणी (संघ) का गठन किया। प्रत्येक संघ ने स्वयं की नियमावली नियमावली बनाई, भारत के प्राचीन हिंदू और बौद्ध राजाओं ने इस परंपरा का सम्मान किया। प्राचीन राजाओं द्वारा अपराधियों को शिल्पकला सिखने और उसका प्रदर्शन करने का अवसर दिया गया। स्टेला क्राम्रिच कहती हैं कि रचनात्मक कार्यों और कलाकारों को प्राचीन भारतीय संस्कृति में एक संस्कार की स्वीकृति दी गई थी। एक कलाकार अपनी कला में आध्यात्मिक और पवित्रता व्यक्त करता है। जिसे आधुनिक कलाकारों द्वारा आज भी जारी रखा गया है।
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