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कोविड-19 (Covid-19) ने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से हिला कर रख दिया है। महामारी की वजह से जहां कई व्यवसाय काफी फले फूले, वहीं कई काफी गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं। भारत में इस वित्तीय वर्ष में अब तक चमड़े और उसके उत्पादों के निर्यात बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। वाणिज्यिक खुफिया और सांख्यिकी महानिदेशालय के अनंतिम आंकड़ों के अनुसार, निर्यात 2018-19 में 560 करोड़ से 2019-20 में 10.89% घटकर लगभग 507 करोड़ हो गया। साथ ही यूरोप (Europe) और अमेरिका (America) के भारत के प्रमुख बाजार (जिनसे यहाँ के निर्यात का 70% निर्देशित होता है) कोविड-19 से बहुत प्रभावित हुए, जिस वजह से कई खरीदार दिवालिया प्रक्रिया दायर कर रहे हैं, जिससे निर्यात आदेश रद्द कर दिए गए हैं और यह एक बहुत गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है।
वहीं स्वतंत्रता से पहले मेरठ, आगरा और कानपुर चमड़ा उद्योग के लिए जाने जाते थे। जहां आगरा और कानपुर निर्यात के लिए प्रमुख रूप से उच्च अंत चमड़े के सामान के विनिर्माण के लिए प्रसिद्ध थे, वहीं मेरठ स्थानीय बाजारों द्वारा प्रयुक्त किए गए जूते के निर्माण के लिए प्रसिद्ध था। इस जूता बाजार की वजह से मोची का व्यवसाय आजीविका का एक मुख्य साधन बन चुका था। हालांकि समय के साथ लोगों द्वारा खराब जूते को दुबारा ठीक कराने के बजाए उन्हें फेंकना ज्यादा बेहतर समझा जाने लगा, इसलिए मोची का व्यवसाय खतरे में पड़ गया और जो परिवार अपनी आजीविका के लिए इस व्यवसाय पर संपूर्ण रूप से निर्भर थे, आज अपनी रोजी रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जबकि पहले के जमाने की बात करें तो मोचीगीरी का कार्य मेरठ में पीढ़ी दर पीढ़ी किया जाता था और सड़कों के किनारे व्यस्त मोचियों की कतार दिखाई पड़ती थी। उस समय इस काम में इतनी बरकत थी कि मोचियों का मानना था जब तक लोगों के पैरों में जूते रहेंगे, तब तक कोई मोची बेरोजगार नहीं रहेगा। लेकिन आज के समय कई मोची इस व्यवसाय को आगे नहीं बढ़ाना चाहते हैं तो कई दूसरे व्यवसाय की तलाश कर रहें हैं।
मेरठ के कई मोची ये भी बताते हैं कि पहले के समय में उनके स्वयं के घरों में एक ही चप्पल को तब तक पहना जाता था जब तक उसका चमड़ा न घिस जाएं और परिवार में केवल एक ही जूता हुआ करता था जिसे सदियों में बारी बारी से पहनकर जाया जाता था। उन्होंने ये भी बताया कि एक कुशल मोची को उसके काम के लिए केवल उसके इलाके में ही नहीं, बल्कि दूर-दूर तक जाना जाता था और दूर-दूर से लोग अपना जुटा बनवाने उसके पास ही आया करते थे। ऐसा माना जाता था कि एक कुशल मोची के हाथों लगा टांका उनके जूते में लगे चमड़े से भी अधिक चलता था। परंतु वर्तमान समय में ग्राहकों में देखी गई कमी के चलते मोचिगीरी की कला दम तोड़ती दिखाई दे रही है। हालांकि इस दम तोड़ती परंपरा को “देसी हैंगओवर (Desi Hangover)” नामक एक स्टार्टअप (Startup) द्वारा नया जीवन देने की कोशिश की जा रही है, यह कुशल कारीगरों को सफल उद्यमी बनने में सहायता करते हैं।
यह कंपनी (Company) संपूर्ण रूप से हाथ से बने चमड़े के जूतों का व्यवसाय करती है। वहीं सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले चमड़े की तलाश में कंपनी की मुलाकात कर्नाटक के मोची समुदाय से हुई। इस कंपनी का दावा है कि वह नैतिक रूप से संकेंद्रित हाथ से बने हुए चमड़े का ही इस्तेमाल करती है। इस इलाके में हैंगओवर स्टार्टअप के पहुंचने से पहले अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए बड़े स्तर पर उत्पादन करने की इतनी प्रतिस्पर्धा बनी हुई थी कि मोचियों को ब्रांडेड (Branded) कंपनियों के सस्ते विकल्प बनाने के एवज में महीने के 2-3 हजार रुपए ही मिल पाते थे। वहीं देसी हैंगओवर द्वारा इस इलाके में एक छोटा सा विनिर्माण कारखाना खोला गया, साथ ही इस इलाके के एक मात्र स्कूल को भी अपने ’अडॉप्ट अ स्कूल (Adopt a School)’ कार्यक्रम के तहत अपना लिया गया। साथ ही व्यापारिक पक्ष पर देसी हैंगओवर ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में नए तरीके से अपने उत्पाद पेश किए जिसमें कनाडा (Canada), ऑस्ट्रेलिया (Australia), नीदरलैंड (Netherlands) और रोमानिया (Romania) शामिल थे। इस तरह की पहल, 21वीं सदी में मोचियों के व्यवसाय के लिए एक नया क्षितिज बनकर उभरी है।
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