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अपने पौराणिक और गौरवशाली इतिहास के लिए मशहूर मेरठ शहर जो महाभारत काल में कौरव राज्य की राजधानी (हस्तिनापुर) था, मौर्य सम्राट अशोक के समय में बौद्ध धर्म का केंद्र था और 1857 की आजादी की पहली लड़ाई का सूत्रधार रहा, ये शहर जहां सर्राफा बाज़ार की रौनक के चर्चे पूरे विश्व में होते हैं, वहां हर गर्मियों में शाम होते ही लोग घरों के दरवाज़े बंद कर दुबक कर बैठ जाते हैं। आज 21वीं सदी में ज्यादातर मीडिया (Media) की सनसनीखेज खबरों की महज़ खुराक बनकर रह गया है ये मेरठ शहर। वजह है हर साल गर्मियों में जंगली जानवर और इंसान के बीच का संघर्ष जो अपने चरम पर होता है। आश्चर्य की बात है कि जब वन विभाग पहले से जानता है कि गर्मियां आएंगी तो साथ में आएंगी जंगली जानवरों की आहट, फिर भी बचाव के लिए कारगर उपाय ना कर, दुर्घटना का जैसे हर साल इंतज़ार किया जाता है ताकि इस गर्माये मुद्दे पर सब अपनी अपनी रोटियां सेक सकें।
अमनगढ़ टाइगर रिज़र्व (Amangarh Tiger Reserve) और जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क (Jim Corbett National Park) का पुराना रिश्ता
गर्मी का मौसम आते ही अपने इलाकों में पानी की कमी के कारण यहां के जंगली जानवर पहाड़ी इलाकों से निकलकर मैदान की तरफ आने लगते हैं। आधिकारिक तौर पर माना जाता है कि अमनगढ़ टाइगर रिज़र्व में 13 बाघ, 35 हाथी और लगभग 100 तेंदुए रहते हैं जो गन्ने की फसल की कटाई के समय वहां मंडराने लगते हैं। इस समय मनुष्य और जानवर के बीच का द्वंद्व अपने चरम पर होता है। परेशानी यहां खत्म नहीं होती बल्कि मुश्किलें तब और बढ़ जाती हैं जब जिम कार्बेट नेशनल पार्क से भी बड़ी संख्या में जंगली जानवर अमनगढ़ टाइगर रिज़र्व के ज़रिए रिहायशी इलाकों तक आ जाते हैं। दरअसल अमनगढ़ टाइगर रिज़र्व और जिम कार्बेट नेशनल पार्क के बीच कोई बाउंड्री (Boundary) नहीं है। इसकी वजह यह है कि उत्तराखंड के अस्तित्व में आने से पहले अमनगढ़ टाइगर रिज़र्व जिम कार्बेट नेशनल पार्क का ही हिस्सा था। जब उत्तराखंड का गठन हुआ तब जिम कार्बेट उसका हिस्सा बन गया और अमनगढ़ टाइगर रिज़र्व उत्तरप्रेदश का ही हिस्सा रहा। 2014 में उत्तर प्रदेश में 117 बाघ थे। 2019 में ये संख्या बढ़कर 173 हो गई, यानी 5 साल में उत्तर प्रदेश में 56 बाघ और बढ़ गए। यह आंकड़ा वैश्विक बाघ दिवस के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा टाइगर सेंसेस डाटा (Tiger Census Data) में जारी किया गया। इस प्रदेश में 3 टाइगर रिज़र्व हैं-अमनगढ़ (बिजनौर), पीलीभीत और दुधवा।
उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के नागरिकों ने जो कदम उठाया उसकी वजह रोंगटे खड़े कर देने वाली है। यहां के अभिभावक संघ ने प्रशासन से यह मांग की कि यहां के जंगली इलाकों में जो विद्यालय खुले हैं, उन्हें सुरक्षित इलाकों में स्थानांतरित किया जाए ताकि उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। गौरतलब है कि बिजनौर जिले में 800 विद्यालय ऐसे हैं जिनकी कोई बांउंड्री की दीवार तक नहीं है। हाल-फिलहाल जिस आदमखोर तेंदुए की तलाश के लिए एक खोज समूह बनाया गया है, उसके अंतर्गत 3 प्रशिक्षित हाथी इस तेंदुए की तलाश करेंगे। इसके लिए इन हाथियों को बाकायदा प्रशिक्षित किया जाता है। अधिकारियों के अनुसार इन हाथियों पर तीन वन कर्मचारी सवार होंगे जो कि तेंदुए को बेहोश करने वाली ट्रैंक्युलाइज़र डार्ट (Tranquilizer Dart) से उनपर निशाना साधेंगे।
तेंदुआ-मानव संघर्ष और जिम कार्बेट की हैरतअंगेज कहानी
वैसे तो वन विभाग से लेकर वन्य जीवन पर शोध करने वाले विशेषज्ञों के पास इस समस्या का कोई ठोस जवाब नहीं है। ऐसे में मशहूर लेखक और शिकारी जिम कॉर्बेट ने अपनी किताब द मैनईटर ऑफ़ रूद्र प्रयाग (THE MAN EATER OF RUDRA PRAYAG) में लिखा है कि 20वीं सदी में हैजा और वॉर फीवर (War Fever) नाम की बीमारी फैलने की वजह से कई लोगों की मौत हो गई। संक्रामक रोग होने की वजह से मरने के कारण ऐसी लाशों का अंतिम संस्कार पारंपरिक रीति रिवाज़ों द्वारा नहीं किया जाता था। ऐसे शवों के मुंह में, शव को जलाने की प्रक्रिया के तौर पर एक जलता हुआ कोयले का टुकड़ा डालकर उन्हें पहाड़ी से नीचे फेंक दिया जाता था। इसके बाद जब यह शव खाई या जंगल में गिरते तो वहां के मांसाहारी वन्य जीव जिनमें शेर, तेंदुए आदि शामिल थे, इन शवों का मांस खा लेते थे। इस तरह मांसाहारी जानवरों की आदमखोर बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई।
इस किताब में जिम कॉर्बेट ने ये भी बताया है कि असली मुसीबत तो तब शुरू हुई जब संक्रामक रोगों का असर कम होने लगा और जंगलों में पहुंचने वाले शवों की संख्या कम होने लगी, तब तक आदमखोर बन चुके शेर-तेंदुओं ने जंगलों को छोड़कर रिहायशी इलाकों की ओर रुख करना शुरू किया।
तेंदुआ-मानव संघर्ष शुरू क्यों होता है?
इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें मांसाहारी जानवरों के इंसानों के साथ संघर्ष के इतिहास को समझना होगा। जिम कार्बेट ने अपनी किताबों के ज़रिए उत्तर भारत में तेंदुए और मनुष्य के बीच संघर्ष को बड़े विस्तार से बयां किया है। यह संघर्ष बड़ी बिल्ली की श्रेणी में आने वाले मांसाहारी जानवरों को एक सूत्र में पिरोता है। दरअसल इन सभी जानवरों में आदमखोर होने की प्रक्रिया एक समान होती है। जर्मन (German) जीवविज्ञानी मैनफ्रेड वॉल्ट ने अपने लेख ‘थ्रू वूंड एंड ओल्ड एज’ (Through Wound and Old Age) में द्वितीय विश्व युद्ध की एक घटना का ज़िक्र किया है। उन्होंने लिखा कि इन जीवों से जुड़ी आहार की आदतों पर नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि बाढ़, तूफान, युद्ध के दौरान मिली इंसानों की लाशों के मिलने पर ये उन्हें खा लेते हैं और अंजाने में ही आदमखोर बन जाते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान घटी एक घटना का उल्लेख करते हुए वे समझाने का प्रयास करते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1942 के जनवरी महीने में लगभग 1 लाख भारतीयों को बर्मा से भारत लाया जा रहा था, तो करीब 4,000 भारतीय जंगल और दुर्गम पहाड़ी रास्तों की वजह से तौंगुप दर्रे में ही मर गए। इस इलाके के बाघ इन लोगों की लाशें खाकर आदमखोर हो गए। इस बात का पता तब चला जब फरवरी 1946 में अमेरिकी सेना की पश्चिमी अफ्रीकी सैनिकों वाली 14 सैन्य टुकड़ियों ने तौंगुप पास से होकर ही बर्मा में प्रवेश किया। जंगल में मौजूद बाघों ने सैनिकों पर हमला बोल दिया। यह घटना कोई अपवाद नहीं है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मानव और बड़ी बिल्लियों के बीच संघर्ष के ऐसे मामले देखने को मिले। समस्या का मूल वही है जो जिम कॉर्बेट ने बताया था, बस घटनाओं के साल और जगहों के नाम बदल जाते हैं।
कॉर्बेट और वॉल्ट जैसे कई विशेषज्ञ काफी शोध के बाद इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि इन मांसाहारी जानवरों के लिए बड़ी संख्या में इंसानी लाशों की उबलब्धता इनके आदमखोर होने की बड़ी वजह के रूप में सामने आती है।
गांववालों के डर का फायदा उठाते तस्कर
तेंदुए के हमलों पर अगर समय रहते उचित कार्यवाही नहीं की गई तो विशेषज्ञों का मनना है कि ऐसे में तस्कर गांववालों के डर का फायदा उठाकर अपना उल्लू सीधा कर लेंगे। मेरठ में 6 हफ्तों में 6 मौंतें होने पर भयभीत होकर ग्रामीणों ने तेंदुए के डर से अंधेरा होने के बाद अकेले निकलना बंद कर दिया और अगर जाते भी हैं तो समूह बनाकर चौकन्ने और हथियारबंद होकर ही जाते हैं। पास ही के इलाके में जब तेंदुए ने एक 14 साल के बच्चे को मार दिया तो मानो गांववालों के सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने वहीं तेंदुए को गोली मारकर खत्म कर दिया। प्रशासन और वन विभाग के अधिकारी बाद में पहुंचे और 80 गांव वालों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ। लेकिन ये बात यहीं खत्म नहीं होती, इस पूरी घटना से तस्करों को ही फायदा होता है और इस बात की गवाही देता है हाल ही में पास के इलाके सहारनपुर जिले के बाज़ार से 20 लाख की कीमत वाली तेंदुए की खाल बरामद होना। दरअसल होता यह है कि ऐसे माहौल में गांववालों के सामने साफ हो जाता है कि वन विभाग वाले आदमखोर तेंदुओं की समस्या पर काबू पाने में बिलकुल नाकाम हैं, तो उनके पास बस एक ही चारा बचता है कि वे तस्करों या शिकारियों की मदद लें।
दोधारी तलवार की धार पर खड़े किसान
इस इलाके के किसान ऐसे दोराहे पर खड़े हैं जहां एक तरफ तेंदुए की उन्हें ज़रूरत भी है क्योंकि वो उनके खेतों में आवारा पशुओं खासकर नील गाय का शिकार करके उनकी फसल को बचाते हैं। वहीं दूसरी तरफ अगर ये तेंदुए आदमखोर बन जाते हैं तो इन्हीं किसानों की और उनके परिजनों की जान पर बन आती है। जंगली जानवरों के आतंक से किसान इस कदर हार मान चुके हैं कि वे अब केवल सोयाबीन उगाते हैं क्योंकि इसे जंगली जानवर नहीं खाते। देश का कोई भी कोना हो, जीव-जंतुओं का पूरा आहार चक्र ही बाधित हो गया है। सबसे ज्यादा घास प्रबंध यानि कि शाकाहारी जानवरों के लिए भोजन प्रबंध बिगड़ गया है। जब चारा जंगल में नहीं होगा तो ये शाकाहारी जानवर शहर-गांवों की तरफ क्यों नहीं आएंगे। इस पर अगर बाघ और तेंदुआ आदि जंगल छोड़कर आबादी की तरफ आने लगे हैं तो इसे भी इन जानवरों की मांग ही कहना चाहिए।सन्दर्भ:
1. https://bit.ly/2STYr9G
2. https://upecotourism.in/Amangarh.aspx
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Amangarh_Tiger_Reserve
4. https://bit.ly/2HNoRTV
5. https://www.storypick.com/elephant-search-team/
6. https://bit.ly/32jWciO
7. https://www.bbc.com/hindi/india-45730341
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