आइए जानें, क्या है ज़ीरो टिलेज खेती और क्यों है यह, पारंपरिक खेती से बेहतर

भूमि प्रकार (खेतिहर व बंजर)
23-12-2024 09:30 AM
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आइए जानें, क्या है ज़ीरो टिलेज खेती और क्यों है यह, पारंपरिक खेती से बेहतर
बिना किसी संदेह के, कृषि, मेरठ की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण योगदान देती है, जहां गन्ना, गेहूं और चावल सबसे सामान्य रूप से उगाई जाने वाली फ़सलें हैं। यदि हम कृषि की बात करें, तो टिलेज (tillage) अर्थात जुताई, वह प्रक्रिया है, जिसमें मिट्टी को मशीनों के माध्यम से तैयार किया जाता है, ताकि उसमें बीज बोने के लिए जगह बनाई जा सके और बाद में फ़सल उगाने के लिए इसे तैयार किया जा सके। हालांकि, इस विधि के कई नुकसान भी हैं। यह मिट्टी के संसाधनों को नष्ट कर देती है और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। टिलेज से होने वाली समस्याओं को हल करने के लिए हाल के वर्षों में एक नई कृषि तकनीक का विकास किया गया है, जिसे “ज़ीरो टिलेज ” (Zero tillage) कहा जाता है। इसे नो-टिल फार्मिंग या डायरेक्ट ड्रिलिंग भी कहा जाता है, जिसमें मिट्टी के स्टार को हिलाए बिना  फ़सल बोई जाती है। इस प्रकार, बार बार फ़सल उगाने के लिए, एक ही खेत का प्रयोग किया जाता है।
तो, इस लेख में हम यह जानेंगे कि टिलेज खेती, मिट्टी के लिए कितनी हानिकारक है। फिर, हम ज़ीरो टिलेज खेती और इसके फ़ायदों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। इसके बाद, हम भारत में ज़ीरो टिलेज खेती की वर्तमान स्थिति पर विचार करेंगे। अंत में, हम पारंपरिक और जैविक नो-टिल खेती में अंतर को समझेंगे।
टिलेज खेती, मिट्टी के लिए क्यों हानिकारक है?
टिलेज खेती मिट्टी के संसाधन आधार को नष्ट कर देती है और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
यह मिट्टी की उर्वरता को कम करती है, वायु और जल को जोड़ती है, सूखे के प्रभाव को बढ़ाती है, ऊर्जा को आवश्यक बनाती है, और वैश्विक वैश्विक योगदान देती है।
टिलेज मिट्टी की संरचना को बिगाड़ देती है।
इससे मिट्टी में मौजूद पोषक तत्व, जैसे नाइट्रोजन और उर्वरक, साथ ही साथ पानी को धारण करने की क्षमता भी कम हो जाती है।
टिलेज के कारण, फ़सलें बदलते मौसम से संबंधित परेशानियों का शिकार भी हो सकती हैं। 
जब मिट्टी की जुताई की जाती है, तो मिट्टी के कणों का सामंजस्य बिगड़ जाता है, जिससे अपरदन (erosion) होता है।
टिलेज से चींटियाँ, केंचुए, परागणकर्ता, सूक्ष्मजीव आदि की संख्या भी घट जाती है।
गहन टिलेज से मिट्टी में जैविक पदार्थ की कमी हो जाती है।
ज़ीरो टिलेज खेती का परिचय
" ज़ीरो टिलेज या नो-टिल की खेती", उस विधि को कहा जाता है, जिसमें पहले मिट्टी तैयार करने या किसी स्थिर फ़सल के आधार पर, परंपरागत तरीके से बीज बोये जाते हैं। ज़ीरो टिलेज खेती, टिलेज खेती से बेहतर मानी जाती है क्योंकि इसमें कृषि लागत कम होती है, साथ ही मिट्टी के प्रतिस्थापन, सींच की आवश्यकता, घासफूस (weed) के प्रभाव और फ़सल की अवधि भी कम हो जाती है। प्लोमैन्स फ़ॉली के लेखक, एडवर्ड एच फ़ॉक्नर (Edward H. Faulkner) ने 1940 के दशक में आधुनिक नो-टिल खेती की अवधारणा फॉस पेश की थी।
ज़ीरो टिलेज खेती के फ़ायदे
1.) फ़सल की अवधि में कमी, जिससे जल्दी फ़सल बोई जा सकती है और अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।
2.) भूमि की तैयारी के लिए इनपुट की लागत में कमी, और इस प्रकार लगभग 80% बचत।
3.) अवशिष्ट नमी का प्रभावी उपयोग किया जा सकता है और सिंचाई की संख्या को घटाया जा सकता है।
4.) सूखा पदार्थ और जैविक पदार्थ मिट्टी में मिल जाते हैं।
5.) पर्यावरण के लिए सुरक्षित - कार्बन अवशोषण के कारण ग्रीनहाउस प्रभाव में कमी आएगी।
6.) नो-टिल खेती से मिट्टी का संकुचन कम होता है, पानी के बहाव से हानि कम होती है और मिट्टी का अपरदन (erosion) रुकता है।
7.) चूंकि मिट्टी अछूत रहती है और कोई विघटन नहीं होता, नो-टिल ज़मीन पर अधिक उपयोगी वनस्पति और जीव-जंतु पाये जाते हैं।
भारत में ज़ीरो टिलेज खेती की वर्तमान स्थिति
भारत में किसानों ने 1960 के दशक में नो-टिल विधि का उपयोग करना शुरू किया।
भारत के सिन्धु-गंगा मैदानों में, जहाँ चावल-गेहूँ की उगाई जाती हैं, जीरो टिलेज प्रणाली का उपयोग किया जाता है।
चावल की फ़सल कटने के बाद गेहूं बिना किसी हस्तक्षेप के बोया जाता है।
सैंकड़ों किसान इस प्रणाली का उपयोग करके फ़सल की उपज और लाभ बढ़ा रहे हैं, साथ ही कृषि लागत को भी कम कर रहे हैं।
आंध्र प्रदेश राज्य के दक्षिणी जिलों, जैसे गंटूर और पश्चिम गोदावरी के कुछ हिस्सों में, चावल-मक्का फ़सल चक्र में ज़ीरो टिलेज प्रणाली का उपयोग किया जाता है।
अधूरी ज़मीन में बीज बोने के लिए जो मशीनरी का उपयोग किया जाता है, वह ज़ीरो टिलेज की सफ़लता के लिए महत्वपूर्ण है।
खरीफ़ सीज़न के दौरान, जीरो टिलेज विधि सीधे बीज वाली हड्डी वाली चावल, मक्का, सोयाबीन, कपास, तुअर, मूंग दाल, कुलथी, बाजरा और मिट्टी के लिए सबसे प्रभावशाली है; वहीं रबी सीजन में जौ, चने, सरसों और मसूर का भी इस्तेमाल किया जाता है।
पारंपरिक बनाम जैविक नो-टिल खेती में अंतर
नो-टिल कृषि में अधिक घासफूस नियंत्रण की आवश्यकता होती है, जिसके लिए हर्बीसाइड (Herbicide) का उपयोग किया जाता है। पारंपरिक नो-टिल खेती में, आक्रामक पौधों को समाप्त करने के लिए सिंथेटिक हर्बीसाइड का उपयोग एक सामान्य उपाय होता है। इसके विपरीत, जैविक नो-टिल खेती (Organic no-till farming) में किसी भी सिंथेटिक इनपुट का उपयोग नहीं किया जाता। समाधान के रूप में, जैविक नो-टिल खेती में एकीकृत घासफूस नियंत्रण रणनीतियों का पालन किया जाता है, जैसे कि फ़सल चक्र, कवर क्रॉप्स (बीज बोने से ठीक पहले मवेशियों या मुर्गों द्वारा चराई), और जैविक हर्बीसाइड्स। हर्बीसाइड्स और अन्य निवारक तरीकों के बिना नो-टिल खेती के माध्यम से घासफूस को दबाने से, कृषि उत्पादक, पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक पुनर्जीवन और मानव स्वास्थ्य में योगदान करते हैं।
नो-टिल दृष्टिकोण पुनर्जीवित खेती के लिए मूलभूत है, जो क्षतिग्रस्त मिट्टी को उसकी मूल स्थिति में बहाल करने का प्रयास करता है।
मिट्टी में जैविक पदार्थ और उर्वरता बढ़ाने के लिए, जैविक नो-टिल खेती निम्नलिखित प्रक्रियाओं को अपनाती है:
- पतझड़ में वार्षिक या सर्दियों में टिकाऊ कवर क्रॉप्स लगाना।
- कवर क्रॉप्स को वसंत तक अनकट छोड़ना।
- फ़सल के अवशेषों को नष्ट करके उन्हें मल्च (Mulch) में बदलने के लिए रोलर क्रिम्पर का उपयोग करना।

संदर्भ
https://tinyurl.com/mpsckj89
https://tinyurl.com/pfhrtfme
https://tinyurl.com/2tdzbvy9
https://tinyurl.com/2723k629

चित्र संदर्भ
1. एक भारतीय महिला किसान को संदर्भित करता एक चित्रण (Pexels)
2. बिना जुताई वाली सोयाबीन की खेती को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. लेट्यूस (Lettuce) के पत्ते साफ़ करतीं महिला किसानों को संदर्भित करता एक चित्रण (Pexels)
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