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जहाज़ों और समुद्री व्यापार के साथ भारतीय संस्कृति का बहुत पुराना और गहरा संबंध रहा है। हमारे देश के समुद्री इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन काल से लेकर 13वीं शताब्दी तक भारतीय उपमहाद्वीप, हिंद महासागर पर हावी रहा। हालांकि हमारे पूर्वजों ने राजनीतिक लोभ के बजाय मुख्य रूप से व्यापार और वाणिज्य लाभ हेतु समुद्र में कदम रखा। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत के विविध वाणिज्यिक क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने के बावजूद, मुगल शासक हमेशा ही समुद्र में पैर रखने से बचते रहे। आज के इस लेख में हम यही जानने का प्रयास करेंगे कि मुगलों ने जहाज़ निर्माण या अपने नौसैनिक बलों को मज़बूत करने को प्राथमिकता क्यों नहीं दी? साथ ही हम भारत में समुद्री विरासत के व्यापक इतिहास का भी पता लगाएंगे, जिसमें पुर्तगाली, फ़्रांसीसी , डच और ब्रिटिश जैसे यूरोपीय यात्रियों की यात्राओं के दौरान जहाज़ों और समुद्री यात्रा की स्थिति भी शामिल है।
प्राचीन काल से ही भारतीय उपमहाद्वीप की समुद्री विरासत समृद्ध रही है। भारत के कई राजवंशों ने सदियों तक नौसेनाओं का संचालन किया है। इन सभी में चोल साम्राज्य ने उल्लेखनीय रूप से दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने प्रभाव का विस्तार करने के लिए नौसेना शक्ति का खूब लाभ उठाया।
भारतीय इतिहास के कुछ प्रमुख नौसेना बलों की सूची निम्नवत दी गई है:
1. चोला साम्राज्य: दक्षिण-पूर्व एशिया में व्यापार मार्ग और राजनीतिक संबंध स्थापित करने के लिए अपनी नौसेना का उपयोग किया।
2. मरक्कर नौसेना: 15वीं शताब्दी में ज़मोरिन के अधीन, इस नौसेना ने प्रतिद्वंद्वी भारतीय शक्तियों और यूरोपीय ताकतों के साथ संघर्ष किया।
3. मराठा नौसेना: 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान सक्रिय, मराठा नौसेना ने भारतीय और यूरोपीय दोनों विरोधियों के खिलाफ क्षेत्रीय शक्ति संघर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बॉम्बे मरीन (Bombay Marine): ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) द्वारा गठित, यह निजी नौसेना, व्यापार मार्गों की सुरक्षा और ब्रिटिश समुद्री हितों को बनाए रखने के लिए आवश्यक थी।
दिलचस्प रूप से मुगल साम्राज्य के पास भी एक बड़ा नौसैनिक बेड़ा था, लेकिन इसे आमतौर पर उनकी सेना की सबसे कमज़ोर शाखा माना जाता था। नौसेना मुख्य रूप से तटीय गश्त पर केंद्रित थी और हुगली की घेराबंदी तथा एंग्लो-मुगल युद्ध जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं में शामिल थी।
दिसंबर 1665 में मुग़ल इतिहास के सबसे उल्लेखनीय नौसेना अभियानों में से एक हुआ, जब औरंगज़ेब ने बंगाल के गवर्नर शाइस्ता खान को अराकान में समुद्री डकैती के खिलाफ़ 288 जहाज़ों और 20,000 से अधिक लोगों के बेड़े का नेतृत्व करने और चटगाँव पर कब्ज़ा करने के लिए भेजा। मुगल काल के दौरान, बंगाल सूबा में जहाज़ निर्माण उद्योग काफ़ी फल-फूल रहा था। आर्थिक इतिहासकार इंद्रजीत रे का अनुमान है कि 16वीं और 17वीं शताब्दी के दौरान बंगाल का जहाज़ निर्माण उत्पादन सालाना लगभग 223,250 टन तक पहुँच गया था।
लेकिन फिर भी मुगल साम्राज्य को एक मज़बूत नौसेना स्थापित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा। साम्राज्य को मालदीव के तट पर मुस्लिम जहाज़ों को नुकसान से बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा था। एक समय पर, औरंगज़ेब के पास, सूरत और दक्षिणी गुजरात बंदरगाह पर चार बड़े जहाज़ थे, जो इस साम्राज्य द्वारा अपनी नौसेना क्षमताओं को मज़बूत करने के लिए किए जा रहे प्रयासों को दर्शाता है।
हालांकि तुलनात्मक रूप से इतिहास के सबसे शक्तिशाली और धनी राजवंशों में से एक, मुगल साम्राज्य समुद्र में कमज़ोर ही पड़ जाता था। अपनी अपार संपत्ति और प्रभाव के बावजूद, मुगलों ने अपने समुद्री हितों की रक्षा करने के लिए संघर्ष किया। भूमि पर अपनी प्रबल सैन्य शक्ति होने के बावजूद, मुगलों को अक्सर यूरोपीय शक्तियों द्वारा ब्लैकमेल (Blackmail) किया जाता था और यूरोपीय समुद्री डाकुओं के हाथों नुकसान उठाना पड़ता था।
मध्य एशिया से आने वाले, मुगल नेतृत्व में समुद्र पर शक्ति प्रदर्शित करने के लिए आवश्यक समुद्री मानसिकता का अभाव था। वे अपने स्वयं के व्यापारिक हितों की रक्षा करने में असमर्थ थे, जिसमें मक्का की तीर्थयात्रा के लिए शाही खज़ाने के जहाज़ भी शामिल थे। इसके बजाय, वे सुरक्षा के लिए यूरोपीय शक्तियों, विशेष रूप से पुर्तगाल और बाद में इंग्लैंड पर बहुत अधिक निर्भर थे। मुगल कई बार यूरोपीय शक्तियों और समुद्री डाकुओं का भी शिकार हुए।
अतः एक दिलचस्प सवाल उठता है: इतना बड़ा मुग़ल साम्राज्य एक दुर्जेय नौसेना स्थापित करने में क्यों विफल रहा? हालाँकि यह ध्यान में रखना जरूरी है कि मुगलों के पास नौसेना बनाने की क्षमता थी। उदाहरण के लिए, शाइस्ता खान ने अराकान साम्राज्य के खिलाफ अपने अभियान के दौरान डच ईस्ट इंडिया कंपनी की सहायता से, केवल एक वर्ष में लगभग 300 जहाज़ों का बेड़ा इकट्ठा करने में कामयाबी हासिल की। इसी तरह, मीर जुमला ने असम के खिलाफ अपने अभियान में नौसेना बलों का उपयोग किया।
इसके अतिरिक्त, मुगलों की रुचि होने पर ओटोमन और यहाँ तक कि वेनीशियन (Venetian) भी मुगलों को एक शक्तिशाली नौसेना स्थापित करने में संभावित रूप से सहायता कर सकते थे।
इन क्षमताओं को देखते हुए, कई कारक एक मजबूत नौसेना में निवेश करने के लिए मुगल अनिच्छा को समझा सकते हैं:
1. खतरे की धारणा: मुगलों ने संभवतः समुद्रों में होने वाली डकैतियों को कम करके आंका होगा। व्यापारी जहाज़ों के कभी-कभार होने वाले नुकसान की तुलना में एक बड़ी नौसेना के निर्माण और रखरखाव की लागत अनुचित लग सकती थी।
2. जनशक्ति संबंधी चिंताएँ: मुगल पारंपरिक रूप से समुद्री यात्रा करने वाले लोग नहीं थे, इसलिए उन्हें कुशल नाविक खोजने में संघर्ष करना पड़ा होगा।
3. आर्थिक विचार: नौसेनाओं का प्रबंधन महंगा साबित होता था । कालीकट और गुजरात सल्तनत जैसी छोटी क्षेत्रीय शक्तियाँ अपनी सीमित क्षेत्रीय ज़िम्मेदारियों और समुद्री डकैती में संलग्नता के कारण छोटे बेड़े के साथ काम कर सकती थीं, जिससे कुछ लागतें कम हो जाती थीं।
4. रणनीतिक प्राथमिकता: मुगल साम्राज्य ने नौसेना के विस्तार के बजाय भूमि-आधारित सैन्य अभियानों को प्राथमिकता दी । उन्होंने समुद्र में शक्ति का प्रक्षेपण करने के बजाय विशाल क्षेत्रों को सुरक्षित करने और नियंत्रित करने पर संसाधनों को केंद्रित किया ।
5. पानी और प्राकृतिक आपदाओं का डर: मुगलों द्वारा नौसेना शक्ति में निवेश करने की अनिच्छा का एक महत्वपूर्ण कारण पानी का डर और इससे होने वाली तबाही भी थी। परिणामस्वरूप, भारतीय शासकों ने अपना ध्यान अंतर्देशीय क्षेत्रों में स्थानांतरित करना चुना, जिससे समुद्री खतरों के खिलाफ अपने किलों की रक्षा करने पर कम जोर दिया गया।
6. प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की कमी: इसका एक अन्य कारण भारतीय तटों पर नौसेना युद्ध के साथ सीमित अनुभव भी हो सकता है। इसके अलावा यदि भारतीय शासक समुद्री युद्धों में लगे होते, तभी तो उनका सामना यूरोपीय जहाज़ों से होता और वे समान नौसेना प्रौद्योगिकी को अपनाने के महत्व को पहचानते।
7. अपना ध्यान व्यापार बाजारों पर केंद्रित किया: इस संदर्भ में व्यापार बाज़ारों पर ज़ोर ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यूरोपीय शक्तियां अपने उत्पादों और कच्चे माल के स्रोतों के लिए बाज़ारों की तलाश में भारत आईं। यूरोपीय देशों में अपेक्षाकृत कम आबादी थी जिसके कारण, वहाँ के लोगों को उपभोक्ताओं के लिए अपनी सीमाओं से परे देखने की ज़रुरत थी, जबकि भारतीय और चीनी साम्राज्यों के पास अपने स्वयं के बाज़ारों को बनाए रखने के लिए पर्याप्त आबादी थी। इस गतिशीलता ने एक मजबूत नौसेना उपस्थिति की कथित आवश्यकता को और कम कर दिया।
ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारी राजनयिक सर थॉमस रो (Sir Thomas Roe), भारत में इंग्लैंड के पहले आधिकारिक राजदूत थे। वे सितंबर 1615 में, राजा जेम्स I (King James I) की ओर से मुगल सम्राट जहाँगीर को व्यापार समझौते की मांग करते हुए एक पत्र लेकर सूरत के बंदरगाह पर पहुँचे। रो ने मुगल दरबार में बातचीत करते हुए चार साल बिताए, लेकिन अंततः 1619 में वे व्यापार समझौते के बिना ही इंग्लैंड लौट आए। इसके बावजूद, सर थॉमस रो के मिशन के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। इसने इंग्लैंड और भारत के बीच लंबे समय तक चलने वाले रिश्ते की नींव रखी, जिसका आने वाली सदियों में दोनों देशों पर गहरा प्रभाव पड़ा।
मुगल वंश ने 1526 से 1707 ई. तक उत्तरी भारत के अधिकांश भाग पर शासन किया। भूमि-आधारित राजस्व पर अधिक ध्यान देने के कारण, मुगलों ने समुद्री मामलों की काफ़ी हद तक उपेक्षा की, जिससे अरब व्यापारियों को हिंद महासागर में व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करने का मौका मिला। जैसे ही 'हिंदुस्तान' के रूप में जानी जाने वाली समृद्ध भूमि की खबर फैली, विभिन्न यूरोपीय देशों ने व्यापार के लिए सीधे समुद्री मार्ग की तलाश की।
- पुर्तगालियों का आगमन: 16वीं शताब्दी में, पुर्तगाली खोजकर्ता वास्को डा गामा (Vasco da Gama) ने पुर्तगाल से भारत तक का समुद्री मार्ग खोजा, और 1498 में केरल के कालीकट पहुंचे। यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने हिंद महासागर में पहले से फलते-फूलते वाणिज्यिक व्यापार को बाधित कर दिया। पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तट पर व्यापारिक चौकियाँ स्थापित कीं और महत्वपूर्ण बंदरगाहों पर कब्ज़ा कर लिया, जिससे इस क्षेत्र में व्यापार पर अरबों का एकाधिकार प्रभावी रूप समाप्त हो गया।
- डच: 1592 में स्थापित डच ईस्ट इंडिया कंपनी (Dutch East India Company) ने 1595 में अपना पहला व्यापारी बेड़ा भारत भेजा। उन्होंने बटाविया (Batavia, आधुनिक जकार्ता) में एक बेस स्थापित किया और बाद में पुलिकट, सूरत और बंगाल में व्यापारिक चौकियाँ स्थापित कीं। 1661 में, डचों ने पुर्तगाली खतरों से सीलोन की रक्षा के लिए मालाबार तट के साथ किलों पर कब्ज़ा कर लिया। उनके व्यापार में कपड़ा, कीमती पत्थर, नील, रेशम, अफ़ीम , दालचीनी और काली मिर्च शामिल थे।
- अंग्रेज़: ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company), जो 1600 में इंग्लैंड में स्थापित हुई थी, 1608 में सूरत पहुँची और मुगल क्षेत्रों में व्यापार करने के लिए सम्राट जहाँगीर से अनुमति माँगी। उस समय पुर्तगाली भारत में प्रमुख यूरोपीय शक्ति थे और ब्रिटिश शासन की उपस्थिति से खुश नहीं थे।
- फ़्रांसीसी: फ़्रांसीसियों ने 1740 में हिंद महासागर क्षेत्र में प्रवेश किया, मॉरिशियस (Mauritius) में एक गढ़ स्थापित किया और सूरत, पांडिचेरी तथा अन्य स्थानों पर व्यापारिक चौकियाँ बनाईं। 18वीं शताब्दी के दौरान, उन्होंने इस क्षेत्र में ब्रिटिश प्रभुत्व को चुनौती देते हुए दक्षिण भारत और बंगाल के पूर्वी तट पर किलों और कस्बों पर नियंत्रण को लेकर संघर्ष किया। हालाँकि, अंग्रेज़ों ने 1760 में वांडिवाश की लड़ाई में फ्रांसीसियों के खिलाफ निर्णायक जीत हासिल की। अंग्रेज़ों ने समुद्र के रणनीतिक महत्व को पहचाना और अपने समुद्री व्यापार की रक्षा करने और भारत पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए एक दुर्जेय नौसेना बल की स्थापना की।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2a4tvgph
https://tinyurl.com/29o2nzrt
https://tinyurl.com/2r2xl4qm
https://tinyurl.com/2xj2g4sv
https://tinyurl.com/2dfwhcml
चित्र संदर्भ
1. समुद्र में हो रही लड़ाई को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. मुगलों के शाही जुलूस के आगमन को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. अकबरनामा के कलाकारों तुलसी द एल्डर और जगजीवन द्वारा बनाई गई पेंटिंग में शुजात खान को उत्तर-पूर्व भारत में गंगा नदी पर आसफ खान का पीछा करते हुए दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. मुगल जहाज़ का पीछा करते हुए अन्य जहाज़ों को संदर्भित करता एक चित्रण (picryl)
5. औरंगज़ेब को संदर्भित करता एक चित्रण (PICRYL)
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