Post Viewership from Post Date to 25- May-2024 (31st Day) | ||||
---|---|---|---|---|
City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Total | ||
2241 | 133 | 2374 |
‘भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे’ (The Bhandarkar Oriental Research Institute, Pune) की स्थापना 6 जुलाई, 1917 को भारत में वैज्ञानिक प्राच्यविद्या के अग्रणी रामकृष्ण गोपाल भंडारकर के काम के सम्मान में की गई थी। यह संस्थान 'सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860' और 'बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट अधिनियम, 1950' के तहत पंजीकृत एक सार्वजनिक संगठन है। इस संस्थान में दक्षिण एशिया में दुर्लभ पुस्तकों और पांडुलिपियों का सबसे बड़ा संग्रह है, जिसमें 125,000 से अधिक पुस्तकें और 29,510 पांडुलिपियां शामिल हैं। इसके साथ ही यह संस्थान पुरानी संस्कृत और प्राकृत पांडुलिपियों के संग्रह के लिए भी प्रसिद्ध है। आइए इस पुस्तकालय और इसके संस्थापक के विषय में जानते हैं और यह भी समझते हैं कि यह पुस्तकालय किस लिए प्रसिद्ध है?
संस्थान के संस्थापक रामकृष्ण गोपाल भंडारकर एक भारतीय विद्वान, प्राच्यविद् और समाज सुधारक थे। वे अपने विशिष्ट शिक्षण करियर के दौरान एलफिंस्टन कॉलेज मुंबई (Elphinstone College (Mumbai)) और डेक्कन कॉलेज पुणे (Deccan College (Pune) में शिक्षक थे। 1885 में, उन्हें जर्मनी के गोटिंगेन विश्वविद्यालय (University of Gottingen, Germany) द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि भी प्रदान की गई थी। वह जीवन भर अनुसंधान और लेखन में शामिल रहे और 1894 में बॉम्बे विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में सेवानिवृत्त हुए। वे एक महान समाज सुधारक थे, उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से विधवा विवाह और बाल विवाह की रोकथाम की वकालत की और जाति व्यवस्था की बुराइयों की भर्त्सना की।
1868 से 1880 की अवधि के दौरान, दो जर्मन विद्वान, बुहलर (Buhler) और कीलहॉर्न (Kielhorn), भारत में संस्कृत पांडुलिपियों की खोज और संरक्षण के लिए एक पांडुलिपि संग्रह परियोजना के हिस्से के रूप में, गुजरात, महाराष्ट्र, राजपूताना, दिल्ली और कश्मीर की रियासतों में व्यक्तियों से संपर्क स्थापित करके उनका एक निजी संग्रह और एक सूची बनाने का कार्य कर रहे थे।
इससे महाराजाओं और शास्त्रियों में भय उत्पन्न हो गया कि ये मूल्यवान पांडुलिपियाँ नष्ट हो जाएँगी और वे इस बात से आश्वस्त नहीं थे कि विदेशी भारत की परंपरा को संरक्षित करना चाहते थे। इन संदेहों को दूर करने और परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने भंडारकर को परियोजना की देखरेख के लिए नियुक्त किया और पांडुलिपियों की सुरक्षा का आश्वासन देते हुए एक बयान जारी किया। परियोजना के दौरान भंडारकर के सर्वेक्षणों के कारण दुर्लभ वैदिक पाठ की प्रतियों के अनुवाद को प्रोत्साहन मिला। डॉ. भंडारकर ने धार, ग्वालियर और उज्जैन के विद्वानों को अपनी पांडुलिपियाँ नीदरलैंड (Netherlands) भेजने के लिए तैयार किया। 1886 में, भंडारकर ने वियना (Vienna) में ‘इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ़ ओरिएंटलिस्ट्स’ (International Congress of Orientalists) में भाग लिया और यह परियोजना दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गई। 1915 में, भंडारकर ने अपने मित्रों एवं शिष्यों के एक समूह के साथ एक समिति का गठन किया और ‘ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ (Oriental Research Institute) की स्थापना करने का निर्णय लिया। समिति ने पूना में 10 एकड़ जमीन खरीदी और प्रमुख उद्योगपति सर दोराबजी और श्री रतन टाटा ने 1917 में अपने पिता जे.एन.टाटा की स्मृति में अग्निरोधी हॉल का निर्माण कराया। यह संस्थान वास्तुकला की इंडो-सारसेनिक शैली में बनाया गया है। 1962 में निर्मित यह पुस्तकालय सबसे नवीनतम संरचना है। इसके प्रवेश द्वार पर महात्मा गांधी का चित्र लगा हुआ है, जिन्होंने 1945 में संस्थान का दौरा किया था। बी आर अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद के साथ-साथ कई राष्ट्रीय नेताओं ने भी संस्थान का दौरा किया है।
प्राच्य अध्ययन और संस्कृत के महान विद्वान बाल गंगाधर तिलक इस संस्थान के सदस्य थे। पुस्तकालय के भारतीय विद्या पर पुस्तकों के विशाल संग्रह और अग्रदीर्घा के बीच ऊंची छत वाला एक शांतिपूर्ण वाचनालय है, जिसमें संदर्भ संग्रह और प्रमुख भारतीय विद्या पर पत्रिकाओं के नवीनतम संस्करण शामिल हैं। बुहलर, कीलहॉर्न और भंडारकर और घाटे सहित प्रख्यात विद्वानों ने इस परियोजना के तहत 17,000 से अधिक महत्वपूर्ण पांडुलिपियाँ एकत्र कीं। यह संग्रह सबसे पहले बम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज में संग्रहित किया गया था। फिर इसे बेहतर संरक्षण के लिए डेक्कन कॉलेज, पुणे में स्थानांतरित कर दिया गया। 1917 में BORI की स्थापना के बाद, संग्रह को संस्थान में स्थानांतरित कर दिया गया। संस्थान के पहले संग्रहाध्यक्ष, पी के गोडे के कुशल नेतृत्व में, BORI ने न केवल इसे बनाए रखा बल्कि इसमें और भी अधिक मूल्यवान संग्रह जोड़ा। अब तक, संस्थान द्वारा पिछले संग्रह में 11,000 से अधिक पांडुलिपियाँ और जोड़ दी गई है।
यह संस्थान पुरानी संस्कृत और प्राकृत भाषा की पांडुलिपियों के संग्रह के लिए प्रसिद्ध है। इसके सबसे बेशकीमती संग्रहों में चिकित्सासारसंग्रह की एक कागजी पांडुलिपि, 1320 का एक औषधीय ग्रंथ, और 906 की जैन कथा उपमिति भव प्रपंच कथा की एक ताड़ के पत्ते की पांडुलिपि शामिल है।
2007 में, संस्थान में संरक्षित ऋग्वेद पांडुलिपियों को यूनेस्को मेमोरी (UNESCO Memory) में शामिल किया गया था। इसके अलावा, इस संग्रह में शामिल महत्वपूर्ण पांडुलिपियां निम्नलिखित हैं:
➦ शारदा लिपि में लिखी गई और कश्मीरी शैव और जैन धर्म से संबंधित बर्चबार्क पांडुलिपियों का संग्रह।
➦ पूना संस्कृत कॉलेज संग्रह से विश्रामबाग वाडा पांडुलिपियाँ जिनके बारे में माना जाता है कि ये पांडुलिपियां पेशवाओं की थीं।
➦ फ़ारसी पांडुलिपियाँ, जो सचित्र और प्रकाशित हैं।
➦ जैन साहित्य और दर्शन से संबंधित जैन पांडुलिपियाँ।
प्राच्यविद्या प्राचीन या 'पूर्व' की स्वदेशी विद्या और ज्ञान का अध्ययन है। संस्थान में पूर्व में विशेषकर भारत में उत्पन्न सर्व-व्यापक ज्ञान के विषय में दुनिया को जागरूक करने की दृष्टि से प्राच्यविद्या के क्षेत्र में अनुसंधान गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जाता है। 1,40,000 से अधिक पुस्तकों और 28,000 पांडुलिपियों के साथ इस संस्थान में दुर्लभ पुस्तकों और पांडुलिपियों का सबसे बड़ा संग्रह है, जिन्हें 90 वर्षों की अवधि में एकत्र किया गया है और जो व्यावहारिक रूप से प्राच्यविद्या के हर पहलू से संबंधित हैं। इस संग्रह की पांडुलिपियां एवं पुस्तकें कई भाषाओं और लिपियों की हैं जैसे संस्कृत, प्राकृत, भारतीय क्षेत्रीय भाषाएँ, शास्त्रीय, आसियान (ASEAN) और यूरोपीय भाषाएँ।
इसके अलावा, महाभारत और प्राकृत भाषाओं में अपनी शोध परियोजनाओं के माध्यम से संस्थान द्वारा संदर्भ अभिलेखागार भी स्थापित किए गए हैं। संस्थान में विभिन्न स्मारक व्याख्यानमालाओं के अंतर्गत अतिथि विद्वानों द्वारा व्याख्यानों का आयोजन किया जाता है। संस्थान द्वारा अखिल भारतीय प्राच्य सम्मेलन, विभिन्न सेमिनार और विद्वत चर्चाएँ भी आयोजित की जाती हैं। संस्थान द्वारा एक वार्षिक पत्रिका 'एनल्स ऑफ द भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' (Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute) भी प्रकाशित की जाती है। संस्थान के सबसे प्रमुख प्रकाशनों में 'महाभारत का आलोचनात्मक संस्करण', 'धर्मशास्त्र का इतिहास', 'पांडुलिपियों की वर्णनात्मक कैटलॉग' और 'प्राकृत शब्दकोश' शामिल हैं। भारत के सांस्कृतिक मंत्रालय की एक परियोजना, 'राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन' ने संस्थान को पांडुलिपि संसाधन केंद्र और महाराष्ट्र में एकमात्र पांडुलिपि संरक्षण केंद्र घोषित करके BORI की सेवा को मान्यता दी है। संस्थान में पांडुलिपियों को लाल मलमल के कपड़े में संरक्षित किया गया है, जो उन्हें एक सुरक्षात्मक आवरण प्रदान करता है। वर्तमान में, BORI आंशिक रूप से महाराष्ट्र सरकार से वार्षिक अनुदान द्वारा समर्थित है, और विशिष्ट अनुसंधान परियोजनाओं के लिए भारत सरकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से भी अनुदान प्राप्त करता है। संक्षेप में, संस्थान प्रभावी रूप से भारतीय विद्या अध्ययन और अनुसंधान के एक बहुत महत्वपूर्ण केंद्र की भूमिका निभा रहा है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/scxyswx6
https://tinyurl.com/53hhvbxv
चित्र संदर्भ
1. भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. रामकृष्ण गोपाल भंडारकर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पर महात्मा गांधी के विचारों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट में पुस्तकों की स्कैनिंग को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
6. पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.
B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.
C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.
D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.