भारतीय चित्रकला की तीन प्रमुख शैलियाँ: मधुबनी, कलमकारी और वार्ली क्यों है ख़ास?

द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
24-02-2024 09:49 AM
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भारतीय चित्रकला की तीन प्रमुख शैलियाँ: मधुबनी, कलमकारी और वार्ली क्यों है ख़ास?

संपूर्ण विश्व में अपनी मनोरम संस्कृति, जीवंत परंपराओं और जीवंत जीवन शैली के कारण हमारे देश भारत का सदैव एक विशिष्ट स्थान रहा है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक, भारत की सांस्कृतिक समृद्धि ने दुनिया भर के लोगों को आकर्षित किया है। इसके साथ ही भारत की कला ने भी वैश्विक स्तर पर लोगों को अपनी तरफ खींचा है। भारतीय कला विश्व पटल पर अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि किसी भी चित्रकला के रूप पर काम करते समय एक कलाकार का मुख्य उद्देश्य सहजता के साथ सुंदरता को उत्पन्न करना होता है। कला के अन्य रूपों जैसे नृत्य और संगीत की तुलना में, चित्रकला कलाकार की भावनाओं को मूर्त रूप प्रदान करती है। भारत की भव्य कलात्मक विरासत पर कई शताब्दियों के सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक प्रभावों का प्रभाव परिलक्षित होता है। भारतीय कला प्राचीन काल से लेकर आज तक धीरे धीरे विकसित हुई है, जिसमें संस्कृति की विविधता और लगातार बदलते समाज का सार प्रतिबिंबित होता है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर अब तक इसमें कई बदलाव हुए हैं। जैसे अजंता-एलोरा की गुफा चित्रकला में हिंदू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित संस्कृति को दर्शाया गया है। इनमें बुद्ध, सोती हुई महिलाओं और प्रेम दृश्यों को इतनी सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है कि ये विचार किसी भी कलाकार को मंत्रमुग्ध कर देने वाली कला बनाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। हालांकि समय के साथ, विषयवस्तु के साथ साथ कला बनाने के तरीके भी बदलते गए। प्रारंभ में गुफाओं में पर्वतों पर पत्तियों का उपयोग करके चित्रकला की जाती थी। लेकिन अब कैनवास और कागज पर रंगों एवं ब्रश का उपयोग करके चित्रकला की जाती है। आज अलग-अलग क्षेत्रों में भारतीय चित्रकला की अलग-अलग शैली देखने को मिलती है। आइए, आज भारतीय चित्रकला की तीन प्रमुख शैलियों मधुबनी, कलमकारी और वार्ली चित्रकला के विषय में विस्तार से जानते हैं: मधुबनी: मुख्य रूप से नेपाल और बिहार राज्य में प्रचलित, मधुबनी कला आज सबसे लोकप्रिय कला रूपों में से एक है। मधुबनी कला को मिथिला की कला के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि कला की इस शैली की उत्पत्ति मिथिला (वर्तमान बिहार) से मानी जाती थी। मधुबनी चित्रकला लोक-कला का एक रूप है जिसमें चमकीले रंगों का उपयोग करके विरोधाभासों या पैटर्न से भरे रेखा चित्रों को दर्शाया जाता है। प्राकृतिक रंगों और रंजकों का उपयोग करके, यह कला उंगलियों, टहनियों, ब्रश, निब-पेन और माचिस की तीलियों सहित कई वस्तुओं से बनाई जाती है। यह कला, विशेष रूप से इसके आकर्षक ज्यामितीय पैटर्नों के लिए जानी जाती है। मधुबनी चित्रकला की विषयवस्तु विवाह, जन्मोत्सव या अन्य किसी त्यौहार अथवा अनुष्ठान से संबंधित होती है। अपने जनजातीय रूपांकनों और ज्वलंत मिट्टी के रंगों के उपयोग के कारण, मधुबनी चित्रकला को आसानी से पहचाना जा सकता है। अपने प्रारंभिक रूप में, मधुबनी कला को मिट्टी की दीवारों पर बनाया जाता था। हालांकि अब व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए कागज, कपड़े, कैनवास आदि पर व्यापक रुप से इन्हें बनाया जाता है। मूल रूप से मधुबनी चित्रकला को बनाने के लिए बांस की छड़ी पर लपेटी गई रुई को ब्रश के रूप में उपयोग किया जाता है। साथ ही इसके लिए उपयोग किए जाने वाले रंगों को कलाकारों द्वारा स्वयं तैयार किया जाता था। काला रंग गोबर के साथ ब्लाइट को मिलाकर तैयार किया जाता है; पीला रंग कुरकुमा और बरगद के पत्ते के दूध को मिलाकर तैयार किया जाता है; इसी तरह नीला रंग नील से; ओक फूल से लाल रंग; सेब के पेड़ से हरा रंग; चावल के पाउडर से सफेद रंग; और पलाश फूल से नारंगी रंग प्राप्त किया जाता था। मान्यता है कि मधुबनी चित्रकला का इतिहास रामायण के समय से संबंधित है। प्राचीन काल में शुभ दिनों में यह कला मिट्टी की दीवारों पर बनाई जाती थी और अगले ही दिन मिटा दी जाती थी। और यही कारण है कि इन कार्यों को संरक्षित नहीं किया गया है। मध्यकालीन काल के दौरान यह कला विभिन्न चरणों से गुज़री, हालांकि संरक्षण के अभाव में इस समय का बहुत कम इतिहास ज्ञात है। वास्तव में यह कला दुनिया के सामने तब आई जब 1934 में बिहार में एक भूकंप के आने पर मधुबनी जिले के ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारी विलियम जी आर्चर (William G. Archer) ने क्षतिग्रस्त हुए घरों के निरीक्षण के दौरान इन चित्रों को घरों की आंतरिक दीवारों पर देखा। क्या आप जानते हैं कि मधुबनी कला की सहायता से सैकड़ों पेड़ों को कटने से भी बचाया गया है। 2012 में, लगभग 100 पेड़ों पर मधुबनी कला को चित्रित किया गया था। ‘ग्राम विकास परिषद’ नामक एक स्वयं सेवी संस्था के मालिक षष्ठी नाथ झा ने सड़कों को चौड़ा करने के लिए काटे जा रहे पेड़ों को बचाने के लिए यह पहल की। यह जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे प्रभावों के बारे में ग्रामीणों के बीच जागरूकता बढ़ाने का एक सफल तरीका साबित हुआ। अधिक आश्चर्य की बात यह है कि यह अभियान महंगा था, फिर भी एक भी पेड़ नहीं काटा गया। इसके पीछे प्राथमिक व्याख्या यह थी कि पेड़ों पर देवताओं और अन्य दिव्य छवियों के साथ पौराणिक कथाओं को चित्रित किया गया था। इससे लोगों को पेड़ काटने के लिए हतोत्साहित किया गया। कलमकारी: 17वीं सदी के मंदिरों से लेकर आधुनिक युग में घरों में लगे कैनवस तक, कलमकारी चित्रकला पारंपरिक भारतीय कला का अभिन्न अंग है। यह कला हमारी संस्कृति और परंपरा का पर्याय है। एक विशिष्ट भारतीय शिल्प के रूप में, कलमकारी प्रतीकात्मकता रूप से पौराणिक कथाओं के साथ जुड़ी हुई है। 'कलमकारी' शब्द कपड़े पर हाथ से चित्रकारी करने की एक विशेष, जटिल शैली को संदर्भित करता है। कलमकारी चित्रकला दो प्रकार की होती है: श्रीकालाहस्ती, जो मुक्तहस्त कला शैली है, और मछलीपट्टनम, जो ब्लॉक-चित्रकला तकनीक है। कलमकारी में विशेष रूप से एक जीवन वृक्ष का रूपांकन बेहद लोकप्रिय है, जिसमें आकाश की ओर बढ़ते समय इसकी जड़ें गहरी होती हैं, यह स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल को जोड़ता है। यह पोषण का भी प्रतीक है, कई जानवर इसकी पत्तियों को खाते हैं, इसकी शाखाओं में रहते हैं और इसकी छाया का आनंद लेते हैं। इसके अलावा इसमें मोर, बाघ और हिरण आदि का भी रूपांकन किया जाता है। कलमकारी चित्रकला बनाने की प्रक्रिया बेहद नाजुक और विस्तृत होती है। इसमें 23 चरण होते हैं जिनमें कपड़े को ब्लीच करना, नरम करना और धूप में सुखाना, प्राकृतिक रंगद्रव्य तैयार करना और मिश्रण तैयार करना; प्रत्येक रंग का उपयोग अलग से करना; और प्रत्येक रंग को लगाने के बीच कपड़े को धोना आदि शामिल हैं। कई अन्य पारंपरिक भारतीय शिल्पों की भांति ही, कलमकारी में भी केवल प्राकृतिक सामग्री का उपयोग किया जाता है। इसके लिए सूती कपड़ा, सूखे कच्चे फल और 'रंगबन्धक' बनाने के लिए दूध, कोयला, फिटकरी का घोल और लाल, नीले और पीले रंग के प्राकृतिक रंजकों का उपयोग किया जाता है। वार्ली: वार्ली चित्रकला एक आदिवासी कला है जिसकी उत्पत्ति महाराष्ट्र राज्य में मानी जाती है। यह कला मुख्य रूप से महाराष्ट्र के उत्तरी सह्याद्रि पहाड़ी के दहानू, तलसारी, जव्हार, पालघर, मोखदा और विक्रमगढ़ जैसे शहरों के आदिवासी लोगों द्वारा बनाई जाती है। महाराष्ट्र में वार्ली चित्रकला पारंपरिक चित्रकला की लोक शैली के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है। वर्ली जनजाति भारत में सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है। वार्ली संस्कृति मातृ प्रकृति की अवधारणा पर केंद्रित है और इसी कारण प्रकृति के तत्व अक्सर वारली चित्रकला के केंद्र बिंदु होते हैं। वार्ली कलाकार अपनी मिट्टी की झोपड़ियों को अपने चित्रों की पृष्ठभूमि के रूप में उपयोग करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे प्राचीन लोग गुफाओं की दीवारों को अपने कैनवस के रूप में उपयोग करते थे। वार्ली चित्रकला में ज्यामितीय आकृतियों, विशेष रूप से वृत्त, त्रिकोण और वर्ग का उपयोग किया जाता है। ये आकृतियाँ प्रकृति के विभिन्न तत्वों का प्रतीक हैं। वृत्त सूर्य और चंद्रमा का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि त्रिकोण पहाड़ों और शंक्वाकार पेड़ों को दर्शाता है। इसके विपरीत, वर्ग एक मानव आविष्कार को दर्शाता है, जो एक पवित्र भूमि के टुकड़े को दर्शाता है। प्रत्येक अनुष्ठानिक चित्रकला में केंद्रीय आकृति वर्ग है, जिसे "चौक" या "चौकट" के रूप में जाना जाता है, जो ज्यादातर दो प्रकार के होते हैं जिन्हें देवचौक और लग्नचौक के नाम से जाना जाता है। देवचौक के अंदर आम तौर पर भाईचारे की प्रतीक देवी, पालघाट का चित्रण होता है। अनुष्ठान चित्रकला में रूपांकन की विषयवस्तु शिकार करने, मछली पकड़ने, खेतों और पेड़ों और जानवरों को चित्रित करने वाले दृश्यों आदि पर आधारित है। लोगों और जानवरों को उनके सिरों पर जुड़े हुए दो उलटे त्रिकोणों द्वारा दर्शाया जाता है: ऊपरी त्रिकोण धड़ को दर्शाता है और निचला त्रिकोण श्रोणि को दर्शाता है। उनका अनिश्चित संतुलन ब्रह्मांड के संतुलन का प्रतीक माना जाता है। इसके अलावा शीर्ष पर बड़ा त्रिभुज एक आदमी का प्रतिनिधित्व करता है; जबकि नीचे की ओर बड़ा त्रिभुज एक महिला का प्रतिनिधित्व करता है। तारपा नृत्य वार्ली चित्रकला के मुख्य रूपांकनों में से एक है। तारपा, एक तुरही जैसा वाद्ययंत्र है, जिसे गाँव के पुरुषों द्वारा बारी-बारी से बजाया जाता है। पुरुष और महिलाएं दूसरे के हाथों को पकड़ते हैं और तारपा वादक के चारों ओर एक घेरे में घूमते हैं। वार्ली चित्रकला आमतौर पर गाँव की झोपड़ियों की भीतरी दीवारों पर बनाई जाती है। चित्रकला की पृष्ठभूमि मुख्य रूप से गेरुए रंग की होती है। इसके अलावा इस चित्रकला के लिए केवल चावल के आटे और पानी के मिश्रण से बने सफेद रंगद्रव्य का उपयोग किया जाता है।

संदर्भ
https://rb.gy/snuwld
https://rb.gy/r49xyv
https://shorturl.at/IMPQY
https://shorturl.at/kozFJ
https://shorturl.at/brBY1

चित्र संदर्भ
1. मधुबनी, कलमकारी और वार्ली कला शैलियों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia, flickr)
2. अजंता गुफा चित्र को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह)
3. मधुबनी पेंटिंग को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. दीवार पर बनाये गये मधुबनी शैली के चित्रों को संदर्भित करता एक चित्रण (World History Encyclopedia)
5. कलमकारी चित्रकला को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. कलमकारी रूमाल को संदर्भित करता एक चित्रण (PICRYL)
7. वार्ली कला शैली को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
8. आदिवासी वार्ली कला को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)

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