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सुरक्षा और संरक्षण की जुस्तजू हमेशा से एक बुनियादी मानवीय आवश्यकता रही है। सुरक्षा के लिए मनुष्य प्रागैतिहासिक काल से ही प्रयत्नशील रहा है। इतिहास के साक्ष्य बताते हैं कि मानव जाति ने बहुत पहले ही सीख लिया था कि अपने कब्जे वाली भूमि के एक टुकड़े की रक्षा करने के लिए, इसे मजबूत करने की आवश्यकता होती है। इसी अवधारणा ने मनुष्य को दुनिया के कुछ सबसे महान किलों के निर्माण के लिए प्रेरित किया। प्रारंभ में साधारण मिट्टी और लकड़ी की दीवारों से बनाए गए किले समय के साथ मध्य युग के अत्यधिक जटिल और भव्य गढ़ों में रूपांतरित हो गए। तो आइए आज जानते हैं कि किले बनाने की शुरुआत कैसे हुई और इन्होंने अपना वास्तविक रूप कैसे प्राप्त किया?
मध्यकालीन युग के दौरान भारत में निर्मित किले अतीत के साथ सामंजस्यपूर्ण निरंतरता का परिणाम हैं। प्राचीन काल में निर्मित किले उन पर हुए आक्रमण और पुनः आक्रमण और कब्जे के कारण वास्तुशिल्प परिवर्तन को दर्शाते हैं, जो 13वीं से 18वीं शताब्दी के बीच उपमहाद्वीप पर घटित हुए सैन्य और राजनीतिक घटनाक्रमों का परिणाम हैं। मुहम्मद गौरी और कुतुबुद्दीन ऐबक के आगमन के साथ 13वीं शताब्दी में इल्तुतमिश द्वारा दिल्ली में मूल सांस्कृतिक प्रभाव के साथ सल्तनत की औपचारिक स्थापना की गई थी। उसी समय, उत्तरी भारत के बड़े हिस्से पर राजपूतों का अधिकार था। राजपुतों द्वारा राजपूताना और उसके बाहर के चट्टानी इलाकों में सैकड़ों स्मारक और किले बनवाए गए थे। इन दो प्रमुख शक्तियों के बीच वर्चस्व के संघर्ष के साथ-साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी चलता रहा। इस समय के दौरान देश में जो स्थापत्य शैली विकसित हुई वह मध्य एशिया की स्वदेशी परंपराओं और प्रभावों का संश्लेषण थी।
सल्तनत वास्तुकला में मेहराब और गुंबद तकनीक का उपयोग किया जाता था। जबकि इससे पहले भारत में स्लैब और बीम तकनीक का इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें रिक्त स्थान भरने तक एक पत्थर को दूसरे के ऊपर रखना शामिल था। सल्तनत काल में एक चौकोर इमारत के आधार पर एक गोल गुंबद लगाने की कला विकसित हुई। इसके साथ ही निर्माण के लिए अच्छी गुणवत्ता, बेहतर चूने के मोर्टार का इस्तेमाल किया गया और सजावट में कुरान की आयतों के साथ ज्यामितीय डिजाइन को भी शामिल किया गया। उत्तर-पश्चिमी सीमा पर चगताई मंगोलों के हमले के दौरान सुल्तान बलबन द्वारा लाहौर किले की मरम्मत का आदेश दिया गया। इसमें मरम्मत के दौरान पहली बार मेहराब बनाए गए। यह मेहराब पच्चर के आकार के पत्थरों से बनाए गए थे जो केंद्र में एक मुख्य पत्थर से एक साथ जोड़े गए थे। अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) के शासनकाल के तहत किलों का महत्त्व अत्यंत बढ़ गया। राजपूतों द्वारा कालिंजर, बयाना, ग्वालियर, रणथंभौर आदि किलों से अपने राज्य को सल्तनत के आक्रमण से बचाने के लिए लड़ाईयां लड़ी जा रही थी। मेवाड़ के राजपूतों और भट्टी राजपूतों के साथ लगातार संघर्ष में, खिलजी ने चित्तौड़, रणथंभौर, मांडू और जैसलमेर के प्रमुख राजपूत किलों पर कब्जा कर लिया। खिलजी ने मंगोल हमलों से बचाव के लिए सिरी किले में अपनी राजधानी बनाई, जो दिल्ली के अंदर ही दूसरा शहर बन गया। यहीं से शहर में किले परिसर मॉडल की शुरुआत हुई। इस परंपरा को बाद के शासकों द्वारा भी जारी रखा गया। पूरे शहर को मजबूत दीवारों के भीतर घेरकर इसके अंदर ही मस्जिद, मदरसे, मंदिर, बाजार आदि बनाए जाने लगे। इसके बाद तुगलक शासन के दौरान अल्लाह-उद-दीन बहमन शाह द्वारा कर्नाटक में भारत के दक्कन क्षेत्र में पहले फारसी साम्राज्य बहमनी सल्तनत की स्थापना की गई। इसी शासनकाल में 15वीं शताब्दी में बीदर किले का निर्माण किया गया जिसके साथ प्रायद्वीपीय भारत में ईरानी वास्तुकला तकनीकों की शुरुआत हुई। इस किले में जल आपूर्ति के लिए एक अनूठी प्रणाली 'करेज़ प्रणाली' का उपयोग किया जाता था। इसमें इस्लामी डिजाइन और इमारतें जैसे मेहराब और परिसर के अंदर मस्जिदें भी शामिल थीं। 15वीं शताब्दी में ही मेवाड़ के प्रसिद्ध शासक राणा कुंभा द्वारा निर्मित राजस्थान का कुम्भलगढ़ किला विश्व प्रसिद्ध है। इस समय के दौरान, केवल राजपूत और दिल्ली के शासकों के बीच ही संघर्ष नहीं हुए, बल्कि स्वयं राजपूतों के बीच भी कई संघर्ष हुए। यह किला मेवाड़ और मारवाड़ के बीच एक मजबूत दीवार के रूप में खड़ा रहा और लंबी लड़ाई के दौरान मेवाड़ राजाओं के लिए विशेष सुरक्षा स्थल बन गया।
इसी तरह मुगलकाल के दौरान चित्तौड़गढ़ के किले ने कई युद्ध और घेराबंदी देखे। अंततः 1568 ईसवी में अकबर ने इस पर कब्जा कर लिया। मेवाड़, मारवाड़ और जयपुर के राणाओं द्वारा अपने किलों से लगातार मुगल सिंहासन के खिलाफ लगातार लड़ाईयां लड़ी जा रही थी। वास्तुकला की दृष्टि से, मुगल काल में बड़े पैमाने पर विकास हुआ। इमारतों को बनाने के लिए लाल बलुआ पत्थर के आधार के साथ शीर्ष पर एक सफेद संगमरमर का गुंबद बनाया जाने लगा। अकबर द्वारा गुजरात में अपनी जीत के उपलक्ष्य में बनवाए गए बुलंद दरवाजे में आँधी गुंबद तकनीक का इस्तेमाल किया गया। जबकि 16 वीं सदी में अकबर द्वारा बनवाए गए आगरा के किले की छतें सपाट रखी गईं। जो बंगाली और गुजराती शैली का मिश्रण थी। इसी तरह 17 वीं शताब्दी में दिल्ली के लाल किले की छतें भी सपाट रखी गईं। 16वीं शताब्दी में तोपखाने की शुरूआत के साथ किले की वास्तुकला में बदलाव आया। किले के बाहर निचली और मोटी दीवारें और बुर्ज बनाए जाने लगे। किले और बाहरी दीवारों के बीच अधिक खाली जगह रखी जाने लगी जिसका उदाहरण गोलकुंडा और बरार के किलों में देखा जा सकता है। इसके साथ ही हाथियों के गुजरने के लिए दरवाज़े ऊँचे और दुश्मन हाथियों को दरवाज़ा तोड़ने से रोकने के लिए कीलों की कतारों के साथ बनाए जाने लगे। इसका उदाहरण 18वीं सदी में बना पुणे का शनिवारवाड़ा किला है। 16वीं और 17वीं शताब्दी में औपनिवेशिक ताकतों के आगमन के साथ, किलों को व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए व्यापारिक चौकियों के रूप में भी बनाया जाने लगा। घेराबंदी और विद्रोह के दौरान किले लोगों के लिए आश्रय स्थल बन गए।
क्या आप जानते हैं कि किले बनाने की शुरुआत , 1066 में ‘विलियम द कॉन्करर’ (William the Conqueror) के नेतृत्व में नॉर्मन (Norman) आक्रमण के दौरान इंग्लैंड (England) में हुई थी। हेस्टिंग्स की लड़ाई (Battle of Hanstings) में जीत के बाद, नॉर्मनों द्वारा इंग्लैंड में अपने नए जीते गए क्षेत्र को नियंत्रित करने और एंग्लो-सैक्सन आबादी को शांत करने के लिए महलों का निर्माण कराया गया। ये प्रारंभिक महल मुख्यतः मोट्टे (motte) और बेली (bailey) प्रकार के थे। 'मोट्टे' मिट्टी का एक बड़ा टीला होता था जिसके शीर्ष पर एक लकड़ी का टॉवर बनाया जाता था, जिसे एक बड़ी खाई 'बेली' से चारों ओर से घेरा जाता था। लकड़ी से बने होने के कारण ये महल बहुत सस्ते होते थे एवं जल्दी बन जाते थे, लेकिन इनके अपने नुकसान भी थे क्योंकि आग के हमलों के प्रति ये अत्यंत संवेदनशील होते थे। साथ ही लकड़ी समय के साथ सड़ने लगती थी। अतः तत्कालीन राजा किंग विलियम (King William) के आदेश पर महलों को पत्थर से बनाया जाने लगा। उस समय के कई मूल लकड़ी के महलों को पत्थर में बदल दिया गया। इन महलों को विभिन्न वास्तुशिल्प शैलियों में बनाया जाने लगा। अपनी प्रारंभिक अवस्था में, महल मुख्य रूप से सैन्य किलेबंदी थे जिनका उपयोग जीते गए क्षेत्रों को हमले से बचाने के लिए किया जाता था। महल का रणनीतिक स्थान सर्वोपरि था।
क्या आप जानते हैं कि हमारे शहर मेरठ से लगभग 23 किलोमीटर दूर एक परीक्षितगढ़ नाम का किला है, जिसका नाम प्राचीन शहर हस्तिनापुर के राजा परीक्षित के नाम पर रखा गया है। किंवदंतियों के अनुसार, परीक्षित पाण्डवों में से अर्जुन के पोते थे और उनके द्वारा ही इस किले का निर्माण करवाया गया था। 18वीं सदी में गुर्जर राजा नैन सिंह द्वारा इस किले की मरम्मत का कार्य कराया गया। वहीं 1916 में, किले की सीढ़ी के नीचे शाह आलम द्वितीय के समय के कई चांदी के सिक्के भी पाए गए थे।
संदर्भ
https://shorturl.at/cisuO
https://shorturl.at/fsEM5
https://shorturl.at/dGLNU
https://shorturl.at/ckS79
चित्र संदर्भ
1. राजस्थान के एक दुर्ग को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. जयगढ़ किले को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. जोधपुर किले को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. लाल किले की मरम्मत को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. कुम्भगढ़ किले को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
6. ‘विलियम द कॉन्करर’ को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. परीक्षितगढ़ किले को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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