मेरठ - लघु उद्योग 'क्रांति' का शहर












क्यों मेरठवासियों को हवाई यात्रा से बढ़ते प्रदूषण और उसके असर पर ध्यान देना ज़रूरी है?
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
18-09-2025 09:22 AM
Meerut-Hindi

मेरठ जैसे गतिशील और तेजी से उभरते शहर में हवाई यात्रा की आवश्यकता अब केवल एक लग्ज़री (luxury) नहीं, बल्कि एक आवश्यकता बनती जा रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और पर्यटन के क्षेत्र में सक्रिय मेरठवासियों के लिए दिल्ली, इंदौर या देहरादून जैसे प्रमुख हवाई अड्डों तक बार-बार की आवाजाही अब सामान्य बात हो गई है। परंतु जिस गति से हवाई यातायात का विस्तार हो रहा है, उसी अनुपात में इसके पीछे छिपे पर्यावरणीय प्रभावों पर सोचने की ज़रूरत भी बढ़ गई है। क्या आपने कभी इस पर विचार किया है कि एक लंबी दूरी की उड़ान से जितनी कार्बन डाइऑक्साइड (carbon dioxide) वातावरण में घुलती है, वह हमारे शहर की हवा को कितना प्रभावित कर सकती है? यह केवल आंकड़ों की बात नहीं है - यह हमारे फेफड़ों, हमारे जल स्रोतों, और हमारे बच्चों के भविष्य से जुड़ा हुआ मुद्दा है। हवाई जहाजों से निकलने वाली हानिकारक गैसें, ज़हरीले कण और शोर हमारे आस-पास की पारिस्थितिकी को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं। और जब मेरठ जैसे शहर में एयर कनेक्टिविटी (air connectivity) बढ़ाने की योजनाएँ बन रही हों, तब यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि हम इस मुद्दे की पर्यावरणीय कीमत को भी समझें। ऐसे समय में जब हम विकास की उड़ान भरना चाहते हैं, हमें यह भी तय करना होगा कि यह उड़ान हमारे आसमान को और काला न कर दे। इस लेख के माध्यम से हमारा प्रयास है कि हम इस ज़रूरी विषय को आपके सामने मानवीय और वैज्ञानिक दोनों दृष्टिकोणों से रखें - ताकि विमानन की गति और प्रकृति की शांति में संतुलन बना रहे।
इस लेख में हम कुछ प्रमुख बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करेंगे। सबसे पहले, हम समझेंगे कि विमानन उद्योग का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है और यह वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कैसे योगदान देता है। इसके बाद, हम वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और स्वास्थ्य पर होने वाले जोखिमों का विश्लेषण करेंगे। आगे, विमानों में उत्सर्जन कम करने की तकनीकों और ऊर्जा दक्षता बढ़ाने वाले उपायों पर चर्चा होगी। हम जैव ईंधन और हरित ऊर्जा के योगदान तथा अंतरराष्ट्रीय उदाहरणों की भी पड़ताल करेंगे। इसके साथ ही भारत में विमानन क्षेत्र के सतत विकास हेतु चल रहे प्रयासों को समझेंगे। अंत में, हम उन नीति संबंधी उपायों पर ध्यान देंगे जो पर्यावरण संरक्षण और विमानन विकास के बीच संतुलन बना सकते हैं।

विमानन उद्योग और पर्यावरण पर प्रभाव
आज का विमानन उद्योग आधुनिक जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। यह हमारी गति, संपर्क और वैश्विक व्यापार के लिए एक अत्यंत आवश्यक साधन है, लेकिन इसके पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में विमानन उद्योग का लगभग 2% योगदान है, जो आंकड़ों में छोटा लग सकता है, लेकिन इसका जलवायु पर प्रभाव कहीं अधिक व्यापक और गंभीर है। विमानों के जेट इंजन (jet engine) भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड (nitrogen oxide), वाष्प पुंज और अन्य सूक्ष्म कण उत्सर्जित करते हैं, जो वातावरण की ऊपरी परतों में जाकर ग्लोबल वार्मिंग (global warming) के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि एक लंबी दूरी की उड़ान से जितना उत्सर्जन होता है, उतना उत्सर्जन कई लोग एक वर्ष में नहीं करते। उड़ानों के दौरान होने वाला ध्वनि प्रदूषण भी एक बड़ी चिंता का विषय है, जिससे हवाई अड्डों के आसपास के निवासियों की जीवन गुणवत्ता प्रभावित होती है। वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के इस प्रत्यक्ष संबंध को समझते हुए अब समय आ गया है कि हम विमानन को केवल सुविधा की नज़र से न देखकर, उसे एक जिम्मेदार उद्योग के रूप में देखें जो पृथ्वी के पर्यावरण के प्रति जवाबदेह है।
वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य जोखिम
विमानन उद्योग का प्रभाव केवल वातावरण तक सीमित नहीं है, यह हमारे स्वास्थ्य पर भी प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। उड़ानों के समय उत्पन्न होने वाला ध्वनि प्रदूषण इतना तीव्र होता है कि इससे बच्चों की एकाग्रता भंग होती है, नींद में खलल आता है और वृद्धों को हृदय संबंधित बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। उच्च आवृत्ति की ध्वनि हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डालती है, जो धीरे-धीरे अवसाद और तनाव जैसी समस्याओं को जन्म दे सकती है। इसके अलावा, विमानों के ईंधन में प्रयुक्त होने वाले रसायनों में सीसा, सल्फर (sulfur) और कई विषैले तत्त्व होते हैं जो वायुमंडल में फैलने के बाद हमारे फेफड़ों, रक्तचाप और संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करते हैं। हवाई अड्डों से निकलने वाले ईंधन अपशिष्ट और रासायनिक जल, पास के जलस्रोतों को दूषित कर सकते हैं, जिससे स्थानीय आबादी और जैवविविधता को गंभीर खतरा होता है। अति सूक्ष्म कण (PM2.5 और PM0.1) श्वसन तंत्र में गहराई तक प्रवेश कर शरीर में दीर्घकालिक बीमारियाँ उत्पन्न करते हैं। इसलिए विमानन उद्योग को केवल आर्थिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी पुनर्विचार की आवश्यकता है।
विमानन उद्योग में उत्सर्जन कम करने की तकनीकें
भविष्य के लिए एक हरित विमानन प्रणाली बनाना संभव है, बशर्ते हम तकनीकी नवाचार और व्यवहारिक रणनीतियों को अपनाएं। आज अनेक विमान कंपनियां ईंधन दक्षता में सुधार लाने वाले तकनीकों पर कार्य कर रही हैं। नए युग के जेट इंजन पुराने इंजनों की तुलना में कम ईंधन जलाते हैं और अपेक्षाकृत कम प्रदूषण फैलाते हैं। इसके अतिरिक्त, टर्बोफैन इंजन (turbofan engine) और कम नॉइज़ वाली डिज़ाइनें (low noise designs) भी पर्यावरण पर असर घटाने में मदद करती हैं। उड़ान मार्गों का अनुकूलन (Flight Path Optimization) और एयर ट्रैफिक मैनेजमेंट (air traffic management) में सुधार करके, उड़ानों की देरी और अनावश्यक ईंधन दहन को कम किया जा सकता है। छोटी दूरी की उड़ानों को तेज़ रेल सेवाओं से बदलने की योजना भी अब व्यवहारिक बन रही है, जिससे कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी। हाइब्रिड (Hybrid), इलेक्ट्रिक (Electric) और हाइड्रोजन (Hydrogen) से चलने वाले विमानों पर हो रहा वैश्विक अनुसंधान आने वाले दशक में क्रांति ला सकता है। इन सभी प्रयासों से न केवल पर्यावरण को लाभ होगा, बल्कि एयरलाइन कंपनियों की लागत भी घटेगी, जिससे उद्योग और उपभोक्ता दोनों को फायदा होगा।

जैव ईंधन और हरित ऊर्जा का योगदान
विमानन में जैव ईंधन का उपयोग वर्तमान समय में सबसे प्रभावी और व्यवहारिक समाधान माना जा रहा है। जैव ईंधन पौधों, वनस्पति तेलों, और जैविक अपशिष्ट से बनाया जाता है, जो कार्बन-तटस्थ (Carbon Neutral) होता है। जैव ईंधन के उपयोग से सीओ2 (CO2) उत्सर्जन में 60–80% तक की कमी लाई जा सकती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नॉर्वे (Norway) के ओस्लो हवाई अड्डे (Oslo Airport) और फ्लोरिडा (Florida, USA) के टाम्पा हवाई अड्डे (Tampa Airport) जैव ईंधन अपनाकर उदाहरण बन चुके हैं। भारत में भी यह संभावना तेज़ी से विकसित हो रही है। भारतीय हवाई अड्डे और विमान कंपनियां यदि हरित ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश करें, तो न केवल उनका पर्यावरणीय प्रभाव घटेगा, बल्कि उनकी ब्रांड (brand) छवि भी सुधरेगी। जैव ईंधन का प्रयोग ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी मज़बूती दे सकता है क्योंकि इसके लिए किसान जैविक अपशिष्ट और फसलों से अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं। यदि नीतिगत सहयोग मिले, तो भारत एक वैश्विक हरित विमानन नेतृत्वकर्ता बन सकता है।
भारत में विमानन उद्योग के सतत विकास प्रयास
भारत में विमानन का विस्तार अभूतपूर्व है, लेकिन इसके साथ-साथ सतत विकास की चुनौतियाँ भी जुड़ी हुई हैं। ईंधन दक्षता बढ़ाने के लिए सरकार और निजी विमानन कंपनियाँ मिलकर कई योजनाओं पर काम कर रही हैं। कई नए विमानों को केवल इस दृष्टि से खरीदा गया है कि वे पर्यावरण पर कम दुष्प्रभाव डालें। उड़ान मार्गों को व्यवस्थित करके, टैक्सी (taxi) समय घटाकर और हवाई यातायात प्रणाली को डिजिटल बनाकर ईंधन की खपत को कम किया जा रहा है। भारतीय प्रबंधन संस्थान इंदौर और लिवरपूल विश्वविद्यालय के संयुक्त अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि हवाई अड्डों और विमान कंपनियों के बीच राजस्व साझेदारी से हरित निवेश को बढ़ावा मिल सकता है। यदि हवाई अड्डा अपने मुनाफे का एक भाग विमान कंपनियों को वापस दे, और कंपनियाँ उसे हरित तकनीक पर खर्च करें, तो यह पारस्परिक सहयोग पूरे उद्योग को हरित दिशा में ले जा सकता है। भारत में यह मॉडल (model) अभी प्रारंभिक अवस्था में है, लेकिन इसकी संभावनाएँ बेहद मजबूत हैं।
सतत विकास और नीति संबंधी उपाय
सतत विमानन केवल तकनीक से नहीं, नीति और शासन की मजबूती से भी संभव है। भारत सरकार और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियाँ मिलकर हरित विमानन के लिए नियम और प्रोत्साहन नीति बना रही हैं। जैसे - कार्बन टैक्स (carbon tax), हरित प्रमाणपत्र, जैव ईंधन अनुदान, और हरित इनफ्रास्ट्रक्चर क्रेडिट (Green Credit Programme) जैसी पहलें। पेरिस समझौता, 2050 तक शुद्ध-शून्य कार्बन उत्सर्जन (Net Zero Emissions) का लक्ष्य निर्धारित करता है, जिसे आईएटीए (IATA) ने अपनाया है। भारत भी इस दिशा में अपने प्रयास बढ़ा रहा है, जिससे आर्थिक वृद्धि और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के बीच संतुलन बने। नीति निर्माण में नागरिक भागीदारी, पारदर्शिता और स्थानीय पर्यावरण हितधारकों को शामिल करना आवश्यक है। जब शासन, तकनीक और जनचेतना साथ काम करें, तभी विमानन का भविष्य वास्तव में ‘सतत’ बन सकेगा।
संदर्भ-
मेरठवासियों के लिए साधारण लौकी से कला और स्वरोज़गार की संभावनाएँ
म्रिदभाण्ड से काँच व आभूषण
Pottery to Glass to Jewellery
17-09-2025 09:27 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके खेतों में उगने वाली साधारण-सी लौकी, सिर्फ रसोई की सब्ज़ी नहीं बल्कि एक सुंदर आभूषण, कलात्मक मुखौटा या दीवार की सजावट बन सकती है? हमारे मेरठ की धरती केवल गेहूँ, गन्ना या खेल प्रतिभाओं के लिए नहीं जानी जाती, बल्कि यहाँ की सांस्कृतिक चेतना और लोककला की परंपराएँ भी उतनी ही समृद्ध रही हैं। कभी यहाँ की गलियों में मिट्टी के खिलौने गढ़े जाते थे, तो कभी लकड़ी और धातु पर नक्काशी होती थी। आज उसी लोककला के पुनरुत्थान की एक अनूठी झलक लौकी शिल्पकला के रूप में हमारे सामने है। यह शिल्पकला न केवल परंपरा और प्रकृति का मेल है, बल्कि यह आधुनिकता और आत्मनिर्भरता की राह भी दिखाती है। कठोर छिलके वाली लौकी, जो अक्सर खेतों में बेकार पड़ी रह जाती है या बाजार में कम दाम में बिकती है, वह अब एक ऐसी कच्ची सामग्री बन गई है जिससे गहने, दीवार सज्जा, संगीत वाद्य और यहाँ तक कि घरेलू उपयोग की वस्तुएँ भी तैयार हो रही हैं। इस कला के माध्यम से न सिर्फ हमारे किसान अपनी उपज का नया मूल्य पा सकते हैं, बल्कि मेरठ के युवाओं और महिलाओं के लिए यह स्वरोज़गार और रचनात्मकता का एक नया मंच बन सकता है।
इस लेख में हम लौकी शिल्पकला के कुछ प्रमुख पहलुओं को समझेंगे। इसमें इसके सांस्कृतिक महत्व, भारत में खेती और आर्थिक अवसर, प्रमुख तकनीकें, बस्तर का प्रसिद्ध ‘तुमा शिल्प’, आभूषण निर्माण की विधियाँ और आवश्यक औजारों की जानकारी शामिल है। यह लेख दिखाएगा कि कैसे साधारण लौकी, कला और रोजगार का स्रोत बन सकती है और पारंपरिक शिल्प को आधुनिक रूप में जीवित रखा जा सकता है।

लौकी शिल्पकला का परिचय और सांस्कृतिक महत्व
लौकी को अक्सर केवल एक साधारण सब्ज़ी के रूप में देखा जाता है, लेकिन इसके कठोर छिलके वाली प्रजातियाँ असाधारण कलात्मक माध्यम बन सकती हैं। लौकी शिल्पकला एक ऐसी कला है जिसमें सूखी, कठोर लौकी को तराशकर विभिन्न आकृतियों, रंगों और सजावटी तत्वों से सजाया जाता है। यह केवल सौंदर्यबोध नहीं देती, बल्कि हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास को भी जीवंत रखती है। प्राचीन भारत में लौकी से बने बर्तन, टोपी, मुखौटे और संगीत वाद्ययंत्र धार्मिक अनुष्ठानों और उत्सवों का हिस्सा हुआ करते थे। इनका उपयोग न केवल दैनिक जीवन में होता था, बल्कि ये शिल्पकला की पारंपरिक परंपराओं और स्थानीय मान्यताओं का प्रतीक भी होते थे। आज लौकी शिल्पकला में आधुनिक डिज़ाइन (design) और नवाचार को जोड़कर इसे नए आयाम दिए जा रहे हैं। हर तराशी गई लौकी अपने आप में एक कहानी, संस्कृति और रचनात्मकता का मिश्रण होती है। यह कला यह सिखाती है कि साधारण वस्तुएँ भी सही दृष्टिकोण और प्रयास से असाधारण बन सकती हैं।
भारत में लौकी की खेती और आर्थिक पक्ष
लौकी की खेती कई राज्यों में प्राचीनकाल से होती आ रही है, लेकिन इसका आर्थिक मूल्य अक्सर सीमित रहता है। अधिकांश किसान इसे सिर्फ सब्ज़ी के रूप में ही बेचते हैं, जिससे इसकी कीमत 40-50 रुपये प्रति लौकी के आसपास ही रहती है। छोटे परिवारों में बड़ी लौकी की मांग कम होने के कारण अक्सर बड़ी लौकी बेकार रह जाती है। साथ ही, हाइब्रिड बीजों (Hybrid Seeds) और मोनोक्रॉपिंग (Monocropping) के बढ़ते चलन से पारंपरिक लौकी की कई किस्में विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन परिस्थितियों में लौकी शिल्पकला एक नई राह प्रस्तुत करती है। कलात्मक रूप से तैयार किए गए लौकी के उत्पादों की कीमत मूल सब्ज़ी की तुलना में कई गुना अधिक होती है। इससे किसानों और शिल्पकारों को एक नया बाजार और स्थायी आय का अवसर मिलता है। इसके अतिरिक्त, यह विधा ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में स्वरोज़गार के अवसर बढ़ाती है, महिलाओं और युवाओं को सशक्त बनाती है और पारंपरिक कला के संरक्षण में मदद करती है। लौकी शिल्पकला एक ऐसा माध्यम बनती है जो न केवल आर्थिक लाभ देती है बल्कि संस्कृति और कौशल को भी आगे बढ़ाती है।
लौकी शिल्पकला की प्रमुख तकनीकें
लौकी को कलात्मक रूप देने के लिए कई तकनीकें अपनाई जाती हैं, जो इसे केवल सजावटी कला से कहीं अधिक मूल्यवान बनाती हैं। सबसे पहले, सूखी लौकी को अच्छी तरह सुखाया जाता है और फिर उसे रेतने (sanding) की प्रक्रिया से चिकना किया जाता है। यह सतह को परिष्कृत और रंगों के लिए अनुकूल बनाती है। इसके बाद नक्काशी (carving) की जाती है, जिसमें लकड़ी या धातु के औजारों से सुंदर और जटिल आकृतियाँ उकेरी जाती हैं। जलाना (pyrography) तकनीक में गर्म धातु उपकरणों की नोक से डिज़ाइन जलाकर उकेरे जाते हैं, जिससे हर टुकड़ा जीवंत और प्रभावशाली बनता है। रंगाई और पॉलिशिंग (polishing) की प्रक्रिया में ऐक्रेलिक रंग (Acrylic colors), प्राकृतिक सजावटी तत्व, मोती, धातु की पत्तियाँ और पेंटिंग (painting) का उपयोग किया जाता है। ये सभी तकनीकें मिलकर लौकी को एक अनूठी और दीर्घकालिक कलाकृति में परिवर्तित कर देती हैं। इस कला की खूबी यह है कि हर टुकड़ा अलग होता है, और इसे बनाने वाला शिल्पकार अपनी कल्पना और रचनात्मकता का पूर्ण प्रयोग कर सकता है।

बस्तर का तुमा शिल्प: लौकी कला का अनूठा उदाहरण
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र से जन्मा ‘तुमा शिल्प’ लौकी कला का एक जीवंत उदाहरण है। इसे कोंडागांव के शिल्पकार जगत राम देवांगन ने विकसित किया, और यह शिल्प अब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हो चुका है। तुमा शिल्प में सूखी लौकी को गर्म चाकू या अन्य औजारों से उकेरा जाता है और उससे दीवार सजावट, मास्क (mask), पॉट्स (pots), लैंपशेड (lampshade) और आभूषण बनाए जाते हैं। पहले जहां बेकार समझी जाने वाली लौकी फेंक दी जाती थी, वहीं अब इसे विशेष रूप से शिल्प उद्देश्यों के लिए उगाया जाता है। यह तकनीक न केवल शिल्पकारों के लिए आय का स्रोत बनती है, बल्कि युवाओं और महिलाओं के लिए स्वरोज़गार का अवसर भी प्रस्तुत करती है। तुमा शिल्प कला, लोक संस्कृति और आधुनिक नवाचार का उत्कृष्ट मिश्रण है, जो यह दिखाता है कि परंपरागत कला को सही दृष्टिकोण और कौशल से कितना समृद्ध बनाया जा सकता है।
लौकी से आभूषण निर्माण की विधियाँ
लौकी से गहनों का निर्माण एक आकर्षक और पर्यावरण-सम्मत कला है। इसके लिए छोटी और कठोर लौकी का चयन किया जाता है। इसे पूरी तरह सुखाया और रेतकर चिकना किया जाता है। पेंडेंट (pendant) बनाने के लिए लौकी पर डिज़ाइन उकेरे जाते हैं और पेंट, पॉलिश या डाई (dye) का उपयोग कर रंग भरा जाता है। हार बनाने के लिए लौकी में छेद किए जाते हैं और डोरी के माध्यम से मोती या छोटी लौकियाँ पिरोकर सुंदर हार तैयार किया जाता है। इसी तरह, ब्रेसलेट (bracelet) और बालियाँ बनाने के लिए लौकी को पतले छल्लों में काटा जाता है और पॉलिश और सजावट की जाती है। यह कला न केवल सौंदर्य और रचनात्मकता को प्रकट करती है, बल्कि पहनने वाले की व्यक्तिगत शैली और प्रकृति से जुड़ाव का संदेश भी देती है। प्रत्येक टुकड़ा अनूठा होता है और यह पहनने वाले को पारंपरिक कला के साथ जोड़ता है।

आवश्यक औजार और सामग्री
लौकी शिल्पकला की सुंदरता इसकी सादगी में भी छिपी है। इसे सीखने और अपनाने के लिए बहुत महंगे उपकरणों की आवश्यकता नहीं होती। एक शुरुआत करने वाले शिल्पकार के लिए छोटी आरी, शिल्प चाकू या बैंड आरा (band saw), सैंडपेपर (sandpaper), ड्रिल (drill) और लकड़ी जलाने वाले बर्नर पर्याप्त होते हैं। सजावट के लिए ऐक्रेलिक पेंट, मोती, धागे, प्राकृतिक सजावटी वस्तुएँ और धातु की पत्तियाँ उपयोग में लाई जा सकती हैं। डिज़ाइन के लिए इंटरनेट (internet) से प्रेरणा ली जा सकती है या स्वयं की कल्पना से नए पैटर्न (pattern) बनाए जा सकते हैं। इसे घर पर ही आसानी से सीखा जा सकता है। यह कला न केवल रचनात्मकता को बढ़ाती है, बल्कि स्वरोज़गार और आत्मनिर्भरता का मार्ग भी खोलती है।
संदर्भ-
कैसे ओजोन परत का क्षरण, हमारी हवा और हमारी त्वचा के लिए बन रहा है खतरा?
जलवायु व ऋतु
Climate and Weather
16-09-2025 09:21 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि अगर सूर्य की सभी किरणें बिना किसी रोक-टोक के सीधे हमारी त्वचा, आंखों और जीवन पर पड़ने लगें, तो परिणाम क्या हो सकते हैं? शायद आप मानें कि इससे सिर्फ गर्मी बढ़ेगी, लेकिन वास्तविकता इससे कहीं अधिक गंभीर है। हमारे वायुमंडल में एक अदृश्य सुरक्षा कवच - ओजोन परत (Ozone Layer) - मौजूद है, जो हमें सूर्य की घातक अल्ट्रा-वायलेट (Ultraviolet) किरणों से बचाती है। यह परत न केवल इंसानों, बल्कि पशुओं, पौधों और समुद्री जीवन के लिए भी जीवनदायिनी है। दुर्भाग्यवश, यह परत अब धीरे-धीरे क्षीण हो रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है, मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न कुछ खास रासायनिक यौगिक, जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) और हैलोन (Halon), जो हमारी सुविधा के उपकरणों में प्रयुक्त होते हैं। जब ये रसायन वायुमंडल की ऊपरी परत तक पहुँचते हैं, तो ओजोन अणुओं को तोड़ने लगते हैं, जिससे यह सुरक्षा ढाल कमज़ोर हो जाती है। इस क्षरण के परिणामस्वरूप त्वचा कैंसर (skin cancer), आंखों के रोग, फसल क्षति, और जलवायु असंतुलन जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं। भारत जैसे देश, जहाँ सूरज की तीव्रता पहले से ही अधिक है, वहां ओजोन परत की क्षति विशेष चिंता का विषय है। हर साल 16 सितंबर को ‘विश्व ओजोन दिवस’ मनाया जाता है, ताकि हम इस अमूल्य परत की रक्षा के लिए किए जा रहे वैश्विक प्रयासों की याद दिला सकें और अपने स्तर पर भी जागरूकता और जिम्मेदारी का भाव विकसित कर सकें। मेरठ जैसे ज़िम्मेदार शहरों से यह अपेक्षा है कि हम न केवल अपनी हवा और धरती की रक्षा करें, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी एक सुरक्षित वातावरण सौंपें।
इस लेख में हम उन महत्वपूर्ण पहलुओं की गहराई से चर्चा करेंगे जो ओजोन परत की भूमिका, उसकी खोज, क्षरण के कारणों और इसके दुष्परिणामों से जुड़ी हैं। सबसे पहले, हम जानेंगे कि यह परत वैज्ञानिक दृष्टि से कितनी आवश्यक है और यह पृथ्वी के जीवन को कैसे बचाती है। इसके बाद हम ओजोन की ऐतिहासिक खोज और नामकरण की कहानी को समझेंगे, जो विज्ञान की खोजों में एक रोमांचक अध्याय है। इसके पश्चात हम यह देखेंगे कि कौन-कौन से मानवीय रसायन और गतिविधियाँ इस परत के क्षरण के लिए ज़िम्मेदार हैं, और उनसे क्या खतरे उत्पन्न हो रहे हैं। हम इस क्षरण के प्रभावों पर भी विचार करेंगे - जैसे त्वचा रोग, कृषि हानि और जलवायु असंतुलन। फिर, हम मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol) जैसी वैश्विक पहलों की समीक्षा करेंगे, जिन्होंने इस संकट को समझने और नियंत्रित करने में एक निर्णायक भूमिका निभाई है। अंत में, हम भारत में ओजोन मापन की स्थिति और देश में चल रहे वैज्ञानिक प्रयासों को समझेंगे, जो इस अमूल्य परत की निगरानी और सुरक्षा में जुटे हैं।
ओजोन परत का वैज्ञानिक महत्व और कार्य
ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल की समताप मंडल में लगभग 10 से 40 किलोमीटर की ऊँचाई पर फैली एक अदृश्य लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण परत है, जो ओजोन (O₃) अणुओं से बनी होती है। यह परत सूर्य से आने वाली हानिकारक अल्ट्रा-वायलेट किरणों को अवशोषित करके पृथ्वी पर जीवन की रक्षा करती है। यदि यह सुरक्षा कवच न हो, तो जैविक और पारिस्थितिक संतुलन बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। मनुष्यों के लिए यह परत त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, और प्रतिरक्षा प्रणाली पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से बचाव करती है। वनस्पति और जीव-जंतुओं के लिए भी यह एक अत्यंत उपयोगी ढाल है, जो उनके जीवन चक्र, प्रजनन और विकास में सहायक होती है। ओजोन परत डीएनए (DNA) संरचना को सुरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाती है और साथ ही प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को संतुलित बनाए रखती है। समुद्री पारिस्थितिक तंत्र की उत्पादकता और जलवायु संतुलन बनाए रखने में भी इसका अमूल्य योगदान है। यह परत प्रकृति का वह मौन प्रहरी है, जिसकी मौजूदगी के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना अधूरी है।

ओजोन की खोज और नामकरण का इतिहास
ओजोन की खोज की शुरुआत 1785 में हुई, जब डच वैज्ञानिक मार्टिनस वैन मारम (Martinus van Marum Electrical) पानी के ऊपर विद्युत स्पार्किंग (sparking) के प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने उस प्रक्रिया में एक तीव्र, अनोखी गंध को महसूस किया, परंतु उस समय उन्हें ज्ञात नहीं था कि यह गंध ओजोन अणु की उपस्थिति का संकेत है। इसके लगभग 50 वर्ष बाद, 1839 में जर्मन वैज्ञानिक फ्रेडरिक शॉनबीन (Friedrich Schönbein) ने इस गैस को अलग करने में सफलता प्राप्त की और इसका नाम 'ओजोन' रखा, जो कि ग्रीक (greek) शब्द 'ओज़िन' से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है - 'गंध करना'। 1920 के दशक में ओजोन परत का पृथक अवलोकन आरंभ हुआ, लेकिन व्यवस्थित वैज्ञानिक मापन पिछले 50 वर्षों में ही प्रमुख रूप से किया गया। इस दौरान डॉबसन स्पेक्ट्रोफोटोमीटर (Dobson Spectrophotometer), उपग्रह और वायुमंडलीय रॉकेट्स (Atmospheric rockets) की मदद से ओजोन परत की स्थिति और उसकी संरचना को समझने के प्रयास किए गए। यह विज्ञान की एक लंबी और रोमांचक यात्रा रही, जिसमें एक गंध से शुरू हुई खोज ने पूरी मानवता के लिए संरक्षण और चेतावनी दोनों के दरवाज़े खोल दिए।
ओजोन परत के क्षरण के प्रमुख कारण
वर्तमान समय में ओजोन परत का क्षरण एक वैश्विक चिंता का विषय बन गया है, जिसका प्रमुख कारण मनुष्य द्वारा निर्मित रासायनिक यौगिकों का अनियंत्रित उपयोग है। इन यौगिकों में सबसे घातक क्लोरोफ्लोरोकार्बन, हैलोन, कार्बन टेट्राक्लोराइड (carbon tetrachloride) और मिथाइल क्लोरोफॉर्म (methyl chloroform) हैं, जिनका व्यापक प्रयोग एयर कंडीशनर (sir conditioner), रेफ्रिजरेटर (refrigerator), एयरोसोल स्प्रे (aerosol spray) और औद्योगिक फोम (foam) निर्माण में होता रहा है। ये रसायन जब वायुमंडल में पहुँचते हैं, तो समताप मंडल में जाकर अल्ट्रा-वायलेट विकिरण के संपर्क में आकर क्लोरीन (chlorine) और ब्रोमीन (bromine) जैसे रसायनों को मुक्त कर देते हैं, जो ओजोन अणुओं को तोड़ते हैं। एक क्लोरीन अणु अकेले हजारों ओजोन अणुओं को नष्ट कर सकता है। यह प्रतिक्रिया सर्दियों के मौसम में ध्रुवीय बादलों में और अधिक सक्रिय हो जाती है, जिसके कारण अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में सबसे बड़ा छिद्र देखा गया है। भारत में भी दिल्ली और पुणे जैसे शहरों के ऊपर ऊपरी समताप मंडल में ऐसे संकेत प्राप्त हुए हैं, जो भविष्य में गंभीर पर्यावरणीय असंतुलन की चेतावनी देते हैं।

ओजोन क्षरण के परिणाम और प्रभाव
ओजोन परत के क्षरण का सबसे पहला और गंभीर प्रभाव अल्ट्रा-वायलेट विकिरण में वृद्धि के रूप में सामने आता है, जिसका सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। इससे त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, आंखों की जलन, और प्रतिरक्षा प्रणाली की कार्यक्षमता में कमी जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। वहीं, पौधों की वृद्धि भी बाधित होती है, पत्तियाँ सिकुड़ने लगती हैं और उनकी जैविक प्रक्रिया जैसे प्रकाश संश्लेषण प्रभावित होती है। इससे फसलें समय से पहले सूख सकती हैं और उत्पादन घट सकता है। समुद्री जीवन में प्लवक (plankton) जैसे सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का खतरा भी बढ़ता है, जो पूरी समुद्री खाद्य श्रृंखला की नींव हैं। जलवायु प्रणाली में असंतुलन, वर्षा चक्र में बदलाव, और ग्लेशियरों (glacier) के तेज़ पिघलने जैसी दीर्घकालिक समस्याएं भी ओजोन क्षरण से जुड़ी हुई हैं। भारत जैसे विकासशील देश, जो पहले से ही जलवायु असंतुलन और जनसंख्या दबाव से जूझ रहे हैं, इस संकट से और अधिक प्रभावित हो सकते हैं।

वैश्विक पहल: मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल और इसके प्रभाव
ओजोन परत को बचाने की दिशा में वैश्विक प्रयास 1987 में उस समय प्रभावशाली रूप में सामने आया, जब कनाडा के मॉन्ट्रियल शहर में 47 देशों ने मिलकर 'मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल' पर हस्ताक्षर किए। यह अंतरराष्ट्रीय समझौता ओजोन-नाशक रसायनों के उत्पादन और उपयोग को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने हेतु बना था। यह पहला ऐसा वैज्ञानिक-राजनीतिक कदम था, जिसमें ओजोन क्षरण क्षमता (ODP) के आधार पर रसायनों की सूचीबद्धता और नियंत्रण तय किया गया। इसके बाद विश्व भर में सीएफसी, हैलोन और अन्य हानिकारक यौगिकों के स्थान पर पर्यावरण-संगत विकल्प अपनाने की दिशा में प्रयास हुए। भारत ने भी इस दिशा में अनेक क़ानूनी और तकनीकी उपाय अपनाए। 16 सितम्बर को प्रतिवर्ष 'विश्व ओजोन दिवस' के रूप में मनाया जाता है, ताकि नागरिकों में जागरूकता फैलाई जा सके। हालाँकि सीएफसी के स्थान पर उपयोग किए जा रहे एचएफसी (HFCs) जैसे यौगिक ओजोन को नुकसान नहीं पहुँचाते, पर वे ग्रीन हाउस गैसें की तरह जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हैं, जो एक नई चुनौती के रूप में उभर रही है।
भारत में ओजोन मापन और स्थिति
भारत ने ओजोन मापन और उसके विश्लेषण में उल्लेखनीय प्रगति की है। भारतीय मौसम विभाग ने श्रीनगर, नई दिल्ली, वाराणसी, अहमदाबाद और कोडाईकनाल जैसे शहरों में डॉबसन स्पेक्ट्रोफोटोमीटर (Dobson Spectrophotometer) के माध्यम से ओजोन की निगरानी हेतु केंद्र स्थापित किए हैं, जो दिन में छह बार मापन कर डाटा रिकॉर्ड (data record) करते हैं। यह डाटा न केवल राष्ट्रीय नीति निर्माण के लिए, बल्कि वैश्विक अनुसंधान के लिए भी अत्यंत उपयोगी है। 1956 से अब तक किए गए अध्ययन बताते हैं कि भारत में ओजोन स्तर में कोई स्थायी गिरावट नहीं देखी गई है, लेकिन 1980 से 1983 के बीच दिल्ली और पुणे के ऊपर समताप मंडल में गिरावट के संकेत अवश्य मिले हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, सर्दियों में ओजोन का स्तर सबसे कम होता है जबकि गर्मियों में यह अधिक होता है। चिंता की बात यह है कि दोपहर के समय अल्ट्रा-वायलेट किरणों का स्तर कई बार अंटार्कटिका जैसी तीव्रता तक पहुँच जाता है, जिससे फसलों, जलीय जीवों और मानव स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ सकता है। हालाँकि भारत में अब तक त्वचा कैंसर या यूवी किरणों से जुड़ी समस्याओं का कोई बड़े पैमाने पर दस्तावेज़ीकरण नहीं हुआ है, फिर भी विशेषज्ञ मानते हैं कि डाटा की कमी को सुरक्षा का संकेत नहीं माना जाना चाहिए - सावधानी, अनुसंधान और नीति-निर्माण की निरंतर आवश्यकता बनी हुई है।
संदर्भ-
हरियाली की छाया में उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों की महत्ता और संरक्षण
जंगल
Forests
15-09-2025 09:22 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि हमारे आसपास की हरियाली केवल आंखों को सुकून देने वाली सुंदरता नहीं, बल्कि हमारे जीवन के लिए एक मौन सुरक्षा कवच है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसे मेरठ जैसे ऐतिहासिक और कृषि प्रधान क्षेत्र में पेड़ों और वनों की उपस्थिति न केवल पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है, बल्कि ये मिट्टी, जलवायु और स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए भी अत्यंत उपयोगी हैं। हालांकि आज मेरठ शहर तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है, फिर भी यह आवश्यक है कि हम अपने पर्यावरण से जुड़े उन विषयों को जानें, जिनका हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव पड़ता है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण विषय है, उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन, जिन्हें मानसूनी वन भी कहा जाता है। ये वे जंगल होते हैं जो बरसात में हरे-भरे हो जाते हैं और सूखे मौसम में अपने पत्ते गिरा देते हैं। साल, सागौन, शीशम और महुआ जैसे पेड़ों से समृद्ध ये वन, भारत की पारिस्थितिक विविधता की रीढ़ हैं।
इस लेख में हम उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों की भूमिका को पाँच मुख्य पहलुओं के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि ये वन वास्तव में होते क्या हैं और भारत में इनका भौगोलिक विस्तार कहाँ-कहाँ तक फैला हुआ है। इसके बाद हम इन वनों में पाई जाने वाली प्रमुख वनस्पतियों की विविधता पर नज़र डालेंगे और यह समझेंगे कि ये किस प्रकार हमारे जीवन और अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगी हैं। तीसरे भाग में, इन वनों में पाए जाने वाले प्रमुख जीव-जंतुओं की बात करेंगे जो इस पारिस्थितिकी का अभिन्न हिस्सा हैं। फिर हम इस बात पर ध्यान देंगे कि इन वनों की पारिस्थितिक विशेषताएँ क्या हैं और ये कैसे जलवायु के बदलावों से तालमेल बैठाते हैं। अंत में, हम मौजूदा पर्यावरणीय संकटों के बीच इन वनों के संरक्षण के लिए चल रहे प्रयासों और टिकाऊ विकास की रणनीतियों पर चर्चा करेंगे।

उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों की परिभाषा और भौगोलिक विस्तार
भारत में जिन्हें मानसून वन कहा जाता है, वे ही वास्तव में उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन हैं। इनका नाम उनके विशिष्ट मौसम चक्र से आता है, ये वन वर्षा ऋतु में हरे-भरे हो जाते हैं और जैसे ही शुष्क मौसम आता है, अपने पत्तों को गिरा देते हैं। यह प्रक्रिया पानी की कमी से निपटने का उनका प्राकृतिक तरीका है। ये वन मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में पनपते हैं जहां सालाना वर्षा लगभग 70 से 200 सेंटीमीटर के बीच होती है। मेरठवासियों के लिए यह जानना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि उत्तर प्रदेश में ऐसे वनों की उपस्थिति, विशेष रूप से तराई क्षेत्रों और आसपास के जंगलों में मिलती है, जो पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में बेहद मददगार हैं। इसके अलावा ये वन मध्य प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और उत्तर-पूर्वी भारत के विस्तृत भूभागों में भी फैले हुए हैं। इनकी उपस्थिति न केवल वनस्पतियों और जीवों को आश्रय देती है, बल्कि मानव जीवन के लिए भी जल, हवा और मिट्टी की गुणवत्ता को बनाए रखने का आधार बनती है।
वनस्पतियों की विविधता और आर्थिक महत्त्व
उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन केवल पेड़ों का समूह नहीं हैं, बल्कि ये वनस्पति विविधता के ख़जाने हैं। साल, सागौन, शीशम, नीम, अर्जुन, आंवला, महुआ और बांस जैसे पेड़ इनमें प्रमुख हैं। इन पेड़ों की लकड़ियाँ न केवल मजबूत होती हैं बल्कि टिकाऊ भी होती हैं, जो इन्हें भवन निर्माण, फर्नीचर (furniture) निर्माण, रेलवे स्लीपर (Railway Sleeper) और हस्तशिल्प के लिए आदर्श बनाती हैं। महुआ जैसे पेड़ जहाँ खाद्य और औषधीय गुणों के लिए जाने जाते हैं, वहीं आंवला ग्रामीण आहार और स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि इन्हीं आर्थिक लाभों के कारण इन पेड़ों का अत्यधिक दोहन हो रहा है। कई बार वनों को साफ़ कर कृषि भूमि या नगरीय विस्तार के लिए उपयोग में लाया जाता है, जिससे इन महत्वपूर्ण प्रजातियों पर संकट मंडराने लगता है।

इन वनों में पाई जाने वाली प्रमुख जीव प्रजातियाँ
इन वनों में जीवन की विविधता केवल पेड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीव-जंतुओं की एक समृद्ध दुनिया को भी अपने भीतर समेटे हुए है। बाघ, शेर, हाथी, भालू, हिरण, लंगूर और जंगली सूअर जैसे स्तनधारी इन जंगलों के राजा माने जाते हैं। इनके साथ ही, मोर, हॉर्नबिल (Hornbill), तोते और अनेक प्रवासी पक्षी इन वनों की फिजा को सुरों और रंगों से भर देते हैं। सरीसृप जैसे कोबरा और अजगर, उभयचर जैसे मेंढक, और अनेकों कीट प्रजातियाँ, जैसे तितलियाँ और परागण करने वाले भृंग, इन पारिस्थितिक तंत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे अपघटन, परागण और कीट नियंत्रण जैसी प्रकृति की जटिल प्रक्रियाओं का हिस्सा होते हैं। मेरठ और आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को समझना होगा कि इन जीवों का संरक्षण केवल प्रकृति प्रेम नहीं, बल्कि दीर्घकालीन पारिस्थितिक सुरक्षा का बुनियादी हिस्सा है।
उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों की विशेष पारिस्थितिकी और जलवायु अनुकूलन
इन वनों की पारिस्थितिकी इतनी अनूठी है कि वे भारत के लगभग 65–66% वन क्षेत्र को ढकते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि ये वन भारत की जलवायु और पारिस्थितिक संरचना के अभिन्न अंग हैं। इन वनों के वृक्षों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उनकी जड़ें बहुत गहराई तक जाती हैं, जिससे वे सूखे समय में भी भूजल तक पहुँच सकते हैं। यह उन्हें जलवायु परिवर्तन और सूखा जैसी परिस्थितियों से लड़ने में सक्षम बनाता है। पत्तियों का मौसमी झड़ना मिट्टी में जैविक पदार्थों को जोड़ता है, जिससे भूमि की उर्वरता बनी रहती है। इससे न केवल वन भूमि में नई वनस्पति विकसित होती है, बल्कि कृषि भूमि के समीप स्थित क्षेत्रों में भी मिट्टी की गुणवत्ता सुधरती है। मेरठ जैसे कृषि-प्रधान जिलों में यह गुण और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जहाँ खेती मिट्टी की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। इन वनों का पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में योगदान, जल स्रोतों को पुनर्भरण करने में उनकी भूमिका, और जलवायु की स्थिरता बनाए रखने में इनका प्रभाव अनमोल है।

संरक्षण प्रयास और सतत विकास की रणनीतियाँ
देश में इन वनों के संरक्षण हेतु कई सरकारी और सामाजिक पहलें चल रही हैं, लेकिन इनका प्रभाव तभी बढ़ेगा जब स्थानीय लोग, जैसे हम – मेरठवासी – सक्रिय रूप से इसमें भाग लें। भारत सरकार द्वारा चलाए गए प्रमुख प्रयासों में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ (Project Tiger) और ‘प्रोजेक्ट एलीफैंट’ (Project Elephant) जैसे वन्यजीव संरक्षण कार्यक्रम शामिल हैं, जो न केवल जीवों को सुरक्षित करते हैं बल्कि उनके प्राकृतिक आवासों - यानी वनों - को भी संरक्षित करते हैं। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य और बायोस्फीयर रिज़र्व (biosphere reserve) जैसी संरचनाओं की स्थापना भी की गई है। वनरोपण और पुनर्वनीकरण जैसी पहलें ख़राब होती वन भूमि को फिर से जीवित करने का कार्य करती हैं। मेरठ जैसे अर्ध-शहरी क्षेत्रों में ‘सामुदायिक वानिकी’ की योजना, जहां स्थानीय लोग वन संरक्षण के साथ-साथ अपनी आजीविका भी सुनिश्चित करते हैं, एक अत्यंत सफल मॉडल (model) बन सकती है। स्कूलों, कॉलेजों और ग्राम पंचायतों में जागरूकता अभियान और पर्यावरण शिक्षा भी दीर्घकालिक परिणाम ला सकती है।
संदर्भ-
आसमान में रंगों का संगम: उत्तरी रोशनी का अद्भुत और आत्मा को छूने वाला नज़ारा
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
14-09-2025 09:02 AM
Meerut-Hindi

रात के अंधेरे आसमान में जब हरे, बैंगनी और गुलाबी रंगों की धारियाँ लहराती हैं, तो वह दृश्य किसी जादू से कम नहीं लगता। इन्हें हम उत्तरी रोशनी या ऑरोरा बोरेलिस (Aurora Borealis) कहते हैं। यह घटना तब होती है जब सूर्य से आने वाली सौर हवाएँ पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से टकराती हैं और उनके कण वायुमंडल की गैसों, जैसे ऑक्सीजन (oxygen) और नाइट्रोजन (nitrogen),से भिड़कर ऊर्जा छोड़ते हैं। यही ऊर्जा आकाश में रंगीन रोशनी का मनमोहक प्रदर्शन करती है।
इन रोशनियों के रंग भी गैसों पर निर्भर करते हैं, ऑक्सीजन हरे और पीले रंग की चमक पैदा करती है, जबकि नाइट्रोजन नीला और बैंगनी रंग बिखेरती है। यही वजह है कि उत्तरी आकाश रंग-बिरंगे रिबनों की तरह जगमगाता है। अगस्त से अप्रैल के बीच, खासकर रात 9 बजे से 2 बजे तक, नॉर्वे (Norway), स्वीडन (Sweden), आइसलैंड (Iceland) और कनाडा जैसे ध्रुवीय क्षेत्रों में इनका सबसे अद्भुत नज़ारा देखने को मिलता है। उत्तरी रोशनी केवल विज्ञान की एक घटना नहीं, बल्कि इंसानी कल्पनाओं और मिथकों का हिस्सा भी रही है। कभी इन्हें वाइकिंग (Viking) योद्धाओं के कवच का प्रतिबिंब माना गया, तो कभी जादुई लोमड़ी की पूंछ की चिंगारियाँ। आज विज्ञान ने इनके रहस्य को उजागर कर दिया है, लेकिन इनका जादू अब भी मानव हृदय को उतना ही मोहित करता है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/YL0Dp
हिंदी का सफर: मध्यकाल से डिजिटल युग तक का विकास और वैश्विक पहचान
ध्वनि 2- भाषायें
Sound II - Languages
13-09-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

हिंदी दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ!
मेरठवासियों, हमारा शहर न सिर्फ़ अपनी वीरगाथाओं, खेल प्रतिभाओं और ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता है, बल्कि यहाँ की भाषा और साहित्यिक परंपराएँ भी उतनी ही गौरवशाली हैं। हिंदी, जो हमारे दैनिक जीवन की धड़कन है, मेरठ की गलियों, चौपालों और शैक्षणिक संस्थानों में सदियों से अपनी मिठास और सहजता बिखेर रही है। आज यह भाषा केवल हमारे शहर या देश की सीमा तक सीमित नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी अपनी गूंज दर्ज करा रही है। बदलते समय में सूचना प्रौद्योगिकी, मीडिया (media) और विश्व बाज़ार ने हिंदी को नई दिशा और पहचान दी है, जिससे यह डिजिटल मंचों (digital platform) पर, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर और वैश्विक व्यापार की दुनिया में अपनी मज़बूत मौजूदगी दर्ज कर रही है। हर साल 14 सितंबर को जब हम हिंदी दिवस मनाते हैं, तो यह केवल एक भाषा का उत्सव नहीं होता, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत, पहचान और एकता का प्रतीक भी होता है। मेरठ जैसे शहर के लिए यह गर्व की बात है कि यहाँ की ज़मीनी बोली और साहित्यिक रचनाएँ हिंदी की समृद्ध धारा में अपना योगदान देती रही हैं और आगे भी देती रहेंगी।
आज हम देखेंगे कि सूचना प्रौद्योगिकी, मीडिया और वैश्विक बाज़ार में हिंदी की भूमिका किस तरह बढ़ रही है और यह भाषा डिजिटल युग में नए अवसर पा रही है। इसके बाद, हम प्रवासी हिंदी साहित्य की चर्चा करेंगे, जो भारतीय सांस्कृतिक पहचान को जीवित रखते हुए वैश्विक मंच पर हिंदी को नई पहचान दिलाता है। फिर हम जानेंगे कि भारत और विदेशों में हिंदी शिक्षण के सामने कौन-कौन सी चुनौतियाँ आती हैं और उनके संभावित समाधान क्या हो सकते हैं। इसके बाद, हम मध्यकाल यानी 10वीं से 18वीं सदी में हिंदी के विकास की झलक देखेंगे और समझेंगे कि उस समय इस भाषा ने किन रूपों में प्रगति की। अंत में, हम आधुनिक काल में हिंदी के मानकीकरण, देवनागरी लिपि सुधार और स्वतंत्रता के बाद क्षेत्रीय बोलियों के समावेश की कहानी को जानेंगे, जिससे यह भाषा और भी समृद्ध और व्यापक बनी।

सूचना प्रौद्योगिकी, मीडिया और विश्व बाज़ार में हिंदी की भूमिका
पिछले दो दशकों में सूचना प्रौद्योगिकी, इंटरनेट (internet) और डिजिटल मीडिया ने हिंदी के विकास की दिशा ही बदल दी है। जहाँ पहले हिंदी का उपयोग मुख्यतः साहित्य, शिक्षा या घरेलू बातचीत तक सीमित था, वहीं अब यह वैश्विक डिजिटल मंचों पर एक सशक्त और प्रभावी भाषा के रूप में उभर रही है। फेसबुक (Facebook), इंस्टाग्राम (Instagram), ट्विटर (Twitter) (अब X - एक्स) जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म (Social Media Platform) पर हिंदी में पोस्ट (post) और वीडियो लाखों लोगों तक पहुँचते हैं, जिससे भाषा का प्रभाव बढ़ता है। ब्लॉगिंग (blogging), ऑनलाइन पत्रकारिता (online journalism), पॉडकास्ट (podcast) और यूट्यूब (YouTube) पर हिंदी कंटेंट (content) की बाढ़ ने न केवल इसकी लोकप्रियता में वृद्धि की है, बल्कि यह व्यावसायिक दृष्टि से भी एक लाभदायक विकल्प बन गई है।
ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म (OTT Platform) जैसे नेटफ्लिक्स (Netflix), अमेज़न प्राइम (Amazon Prime) और डिज़्नी+ हॉटस्टार (Disney+ Hotstar) ने हिंदी वेब सीरीज़ (Web Series) और फ़िल्मों को अंतरराष्ट्रीय दर्शकों तक पहुँचाया है। विश्व बाज़ार में कंपनियाँ अब उत्पाद और सेवाओं के विज्ञापन हिंदी में तैयार कर रही हैं, जिससे ग्राहकों के साथ एक भावनात्मक जुड़ाव स्थापित हो पाता है। यह जुड़ाव केवल व्यापार तक सीमित नहीं रहता, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान और पहचान को भी मज़बूत करता है। इस तरह, हिंदी अब केवल सांस्कृतिक भाषा नहीं रही, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में योगदान देने वाली आर्थिक शक्ति भी बन चुकी है।
प्रवासी हिंदी साहित्य और वैश्विक संदर्भ में इसका महत्व
हिंदी का प्रवासियों के जीवन में स्थान केवल एक भाषा का नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने के भावनात्मक माध्यम का है। 19वीं और 20वीं सदी में गिरमिटिया मजदूर जब फ़िजी (Fiji), मॉरीशस (Mauritius), सूरीनाम (Suriname), त्रिनिदाद (Trinidad) और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में गए, तो वे अपने साथ अपनी संस्कृति, गीत, कहानियाँ और भाषा भी ले गए। वहीं जाकर उन्होंने हिंदी में कविताएँ, नाटक और कहानियाँ लिखीं, जो उनके संघर्ष, घर की याद और नए देश के अनुभवों को व्यक्त करती थीं।
आधुनिक प्रवासी समुदाय, जो आज अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन (Britain), ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई हिस्सों में रहता है, ने भी हिंदी साहित्य को अपनी पहचान का आधार बनाया है। उनके साहित्य में “नॉस्टैल्जिया” (nostalgia) यानी बचपन और मातृभूमि की यादें, त्यौहारों की छवियाँ और भाषाई गर्व स्पष्ट दिखता है। प्रवासी हिंदी साहित्य अंतरराष्ट्रीय मंच पर न केवल भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि यह यह भी दर्शाता है कि भाषा कैसे समय और दूरी की सीमाओं को पार कर सकती है।

भारत और विदेशों में हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ और समाधान
भारत में हिंदी शिक्षण के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसकी विविधता और प्रतिस्पर्धी भाषाई वातावरण है। देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग बोलियाँ और भाषाएँ बोली जाती हैं, जिससे मानक हिंदी को स्थापित करना एक सतत प्रक्रिया बनी रहती है। इसके अलावा, अंग्रेज़ी के वर्चस्व और रोजगार के अवसरों में इसके महत्व के कारण युवा पीढ़ी में हिंदी का उपयोग कई बार सीमित हो जाता है। विदेशों में स्थिति कुछ अलग है, वहाँ हिंदी सीखने वालों के पास संसाधनों और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी होती है। कई बार पाठ्यपुस्तकें स्थानीय संदर्भ से मेल नहीं खातीं, जिससे सीखने वालों की रुचि कम हो जाती है। इन चुनौतियों का समाधान तकनीकी माध्यमों में छिपा है, ऑनलाइन कोर्स (online course), मोबाइल ऐप (mobile app), वर्चुअल क्लास (virtual class) और डिजिटल शिक्षण सामग्री छात्रों को कहीं से भी सीखने का अवसर देती है। साथ ही, हिंदी शिक्षण में सांस्कृतिक गतिविधियों, जैसे त्यौहार मनाना, हिंदी दिवस, कविता प्रतियोगिता और नाट्य मंचन शामिल करना सीखने वालों के भावनात्मक जुड़ाव को गहरा करता है।

हिंदी का मध्यकालीन विकास (10वीं–18वीं सदी)
10वीं से 18वीं सदी के बीच हिंदी का स्वरूप और भी समृद्ध हुआ। इस काल में हिंदी का प्रयोग मुख्यतः अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, भोजपुरी और राजस्थानी जैसी क्षेत्रीय बोलियों में होता था। यह समय भक्ति आंदोलन का भी था, जिसने हिंदी को जन-जन तक पहुँचाया। कबीर की साखियाँ, सूरदास के पद, तुलसीदास की रामचरितमानस और मीराबाई के भजन ने भाषा को धार्मिक, दार्शनिक और भावनात्मक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया। यह दौर केवल साहित्यिक उपलब्धियों का ही नहीं, बल्कि सामाजिक एकजुटता का भी था। धार्मिक कट्टरता और सामाजिक विभाजन के समय, संत कवियों ने हिंदी के माध्यम से एक समान संदेश दिया - मानवता, प्रेम और भक्ति का। इस युग ने साबित किया कि भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा भी बन सकती है।
आधुनिक काल में हिंदी का मानकीकरण और देवनागरी लिपि सुधार
19वीं सदी में हिंदी के विकास ने एक नया मोड़ लिया। खड़ी बोली को हिंदी का मानक रूप माना गया और देवनागरी लिपि को पढ़ने-लिखने में आसान बनाने के लिए कई सुधार किए गए। इस समय हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत भी हुई, जिसने जनचेतना फैलाने और राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने में बड़ी भूमिका निभाई। शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी को प्रमुखता दी गई, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इसे पढ़ाया जाने लगा, और सरकारी कार्यों में इसके प्रयोग को बढ़ावा मिला। इस दौर में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद जैसे लेखकों ने साहित्य के माध्यम से भाषा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उनका योगदान न केवल साहित्यिक था, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।

स्वतंत्रता के बाद हिंदी का विकास और क्षेत्रीय बोलियों का समावेश
1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा मिला। यह निर्णय केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी ऐतिहासिक था। हिंदी को अपनाते समय सरकार ने यह भी सुनिश्चित किया कि क्षेत्रीय बोलियों, जैसे भोजपुरी, मगही, हरियाणवी, बुंदेली, आदि को भी भाषा की मुख्यधारा में शामिल किया जाए। स्वतंत्रता के बाद के दशकों में साहित्य, सिनेमा, रंगमंच और शिक्षा के माध्यम से हिंदी का प्रसार और भी तेज़ हुआ। फ़िल्मों और टीवी धारावाहिकों ने हिंदी को जनजीवन में गहराई से स्थापित किया। साथ ही, नई शब्दावली और तकनीकी शब्दों के समावेश ने इसे विज्ञान, प्रौद्योगिकी और आधुनिक संवाद के लिए उपयुक्त बना दिया। आज हिंदी न केवल भारत की पहचान है, बल्कि विश्वभर में फैले करोड़ों लोगों की साझा सांस्कृतिक धरोहर है।
संदर्भ-
मेरठ की रसोई का स्वाद: काली उड़द दाल की परंपरा और महक
फल-सब्ज़ियां
Fruits and Vegetables
12-09-2025 09:24 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, हमारे रसोईघरों की पहचान सिर्फ मसालों की खुशबू या चूल्हे पर चढ़े पकवानों से नहीं होती, बल्कि उन पारंपरिक स्वादों से होती है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे घरों में जीवित हैं। इन्हीं में से एक है काली उड़द दाल, जिसे दालों का “राजा” कहा जाता है। इसका गाढ़ा स्वाद, मखमली बनावट और गहरा रंग न केवल आँखों को भाता है, बल्कि हर कौर में एक अपनापन भी घोल देता है। मेरठ की पारंपरिक रसोई में इसका इस्तेमाल सिर्फ रोज़मर्रा के खाने तक सीमित नहीं, बल्कि त्यौहार, शादी-ब्याह और खास मौकों पर बनने वाले व्यंजनों में भी खास जगह रखता है। चाहे बात हो धीमी आँच पर पकाई गई दाल मखनी की, भरपूर मसालों वाली उरद की कचौरी की, या फिर सर्दियों में गाढ़े तड़के के साथ परोसी जाने वाली दाल की, काली उड़द हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। स्वाद के साथ-साथ यह प्रोटीन (protein), फाइबर (fiber) और खनिजों से भरपूर होती है, जो सेहत के लिए भी वरदान है। शायद यही वजह है कि मेरठ में यह दाल सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि हमारी पाक-परंपरा और पारिवारिक यादों का एक अहम हिस्सा है।
इस लेख में हम काली उड़द दाल के पाँच मुख्य पहलुओं पर चर्चा करेंगे, सबसे पहले इसके परिचय और भारतीय रसोई में इसके महत्व को समझेंगे, फिर इसके वैज्ञानिक परिचय और खेती के क्षेत्रों के बारे में जानेंगे। इसके बाद हम इसकी पोषण संरचना पर नजर डालेंगे, फिर इसके स्वास्थ्य लाभों को विस्तार से समझेंगे, और अंत में अधिक सेवन से जुड़ी सावधानियों और संभावित दुष्प्रभावों पर चर्चा करेंगे।
काली उड़द दाल का परिचय और भारतीय रसोई में महत्व
काली उड़द दाल का नाम सुनते ही भारतीय रसोई के कई प्रिय व्यंजन मन में उभर आते हैं। इसे "दालों का राजा" कहा जाता है, और यह उपाधि इसे यूं ही नहीं मिली, स्वाद, बनावट और पोषण तीनों ही मामलों में यह अद्वितीय है। उत्तर भारत में यह दाल मखनी, तड़के वाली उड़द और पूरी-कचौरी के लिए मशहूर है, जबकि दक्षिण भारत में इडली, डोसा और वड़ा जैसे लोकप्रिय व्यंजनों के बैटर में इसका प्रमुख स्थान है। इसकी मलाईदार और गाढ़ी बनावट किसी भी पकवान में गहराई और स्वाद भर देती है। यही कारण है कि भारतीय भोजन संस्कृति में यह दाल न सिर्फ रोज़मर्रा के खाने का हिस्सा है, बल्कि त्योहारों, पारिवारिक आयोजनों और विशेष अवसरों का भी अहम अंग है। स्वाद के साथ-साथ यह भोजन को संतुलित और पोषण से भरपूर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
काली उड़द का वैज्ञानिक परिचय और खेती के क्षेत्र
वैज्ञानिक भाषा में काली उड़द को विग्ना मुंगो (Vigna mungo) कहा जाता है, और यह लेग्यूम (Legume) परिवार की एक महत्वपूर्ण दलहन फसल है। इसकी खासियत यह है कि यह अलग-अलग जलवायु परिस्थितियों में आसानी से पनप जाती है, जिससे यह देशभर के किसानों के लिए भरोसेमंद फसल बन जाती है। भारत में इसकी प्रमुख खेती खरीफ सीजन (season) में होती है, जब मानसून की नमी मिट्टी को उपजाऊ बनाती है और बीजों के अंकुरण को तेज़ करती है। यह दाल भारत के अलावा पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और कई अन्य उष्णकटिबंधीय देशों में भी बड़े पैमाने पर उगाई जाती है। इसकी खेती में ज्यादा समय नहीं लगता, जिससे किसान जल्दी फसल काटकर अगली बुआई कर सकते हैं। मिट्टी में नाइट्रोजन (nitrogen) की मात्रा बढ़ाने की क्षमता के कारण यह पर्यावरण और भूमि की सेहत दोनों के लिए फायदेमंद मानी जाती है।

काली उड़द की पोषण संरचना
काली उड़द पोषण का सच्चा खजाना है। इसमें उच्च मात्रा में प्रोटीन होता है, जो मांसपेशियों की वृद्धि और शरीर के ऊतकों की मरम्मत के लिए जरूरी है। इसमें मौजूद कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate) लंबे समय तक ऊर्जा बनाए रखते हैं, जबकि फाइबर पाचन तंत्र को स्वस्थ रखता है। इसमें वसा की मात्रा बेहद कम होती है, जिससे यह हृदय के लिए सुरक्षित और लाभकारी बनती है। इसके अलावा, इसमें कैलोरी का संतुलन ऐसा है कि यह ऊर्जा और स्वास्थ्य दोनों के लिए उपयुक्त है। काली उड़द में आयरन (iron), कैल्शियम (calcium), मैग्नीशियम (magnesium), पोटैशियम (potassium) और फॉस्फोरस (phosphorus) जैसे आवश्यक खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। विटामिन बी-कॉम्प्लेक्स (Vitamin B-Complex) और फोलिक एसिड (folic acid) इसमें मौजूद होते हैं, जो तंत्रिका तंत्र के स्वास्थ्य और रक्त निर्माण के लिए जरूरी हैं। इसमें मौजूद अमीनो एसिड शाकाहारियों के लिए इसे प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत बनाते हैं।
काली उड़द के प्रमुख स्वास्थ्य लाभ
काली उड़द दाल का नियमित और संतुलित सेवन कई तरह से स्वास्थ्य को लाभ पहुंचा सकता है। इसमें मौजूद फाइबर पाचन तंत्र को दुरुस्त रखता है और कब्ज जैसी समस्याओं से बचाता है। यह कोलेस्ट्रॉल (cholestrol) को नियंत्रित करने और हृदय को स्वस्थ रखने में मदद करती है। रक्त शर्करा को संतुलित रखने में भी यह कारगर है, जिससे मधुमेह रोगियों के लिए यह लाभकारी साबित हो सकती है। आयुर्वेद के अनुसार, काली उड़द का उपयोग सूजन और जोड़ों के दर्द को कम करने में किया जाता है। इसमें मौजूद आयरन और फोलिक एसिड गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी हैं, क्योंकि ये भ्रूण के विकास और एनीमिया से बचाव में मदद करते हैं। इसके अलावा, यह हड्डियों को मजबूत करने, त्वचा को स्वस्थ और चमकदार बनाए रखने तथा तंत्रिका तंत्र के कार्य में सुधार करने में भी सहायक है।

संभावित सावधानियाँ और अधिक सेवन के दुष्प्रभाव
हालांकि काली उड़द स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है, लेकिन इसका अधिक सेवन कुछ समस्याएं उत्पन्न कर सकता है। इसमें मौजूद प्यूरिन (Purine) तत्व शरीर में यूरिक एसिड (uric acid) का स्तर बढ़ा सकते हैं, जिससे गाउट (gout) या जोड़ों के दर्द की संभावना बढ़ जाती है। गुर्दे की पथरी से पीड़ित लोगों को इसका सेवन सावधानीपूर्वक और सीमित मात्रा में करना चाहिए। पाचन तंत्र संवेदनशील होने पर यह गैस या अपच की समस्या भी पैदा कर सकती है। इसलिए इसे हमेशा अच्छी तरह पकाकर और संतुलित मात्रा में ही खाना चाहिए, ताकि इसके फायदे लंबे समय तक मिलते रहें और किसी भी तरह के दुष्प्रभाव से बचा जा सके।
संदर्भ-
वैज्ञानिक वर्गीकरण: कार्ल लिनियस से डीएनए युग तक जीव-जगत की अद्भुत यात्रा
कोशिका के आधार पर
By Cell Type
11-09-2025 09:18 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, वैज्ञानिक वर्गीकरण (scientific classification) वह आधार है, जिस पर पूरी जैव-विज्ञान (biology) की इमारत खड़ी है। यह केवल जीवों को पहचानने का तरीका नहीं, बल्कि उनकी पारस्परिक संबंधों और विकास की कहानी समझने की कुंजी है। 18वीं शताब्दी में जब कार्ल लिनियस (Carl Linnaeus) ने अपने नामकरण और वर्गीकरण प्रणाली को प्रस्तुत किया, तब से लेकर आज तक इसमें कई बदलाव हुए, लेकिन इसका महत्व लगातार बढ़ता गया। मेरठ, जो अपनी शैक्षिक और सांस्कृतिक परंपराओं के लिए जाना जाता है, के विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए यह विषय न केवल अकादमिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि वैश्विक वैज्ञानिक वार्तालाप में भी इसका विशेष योगदान है।
इस लेख में हम वैज्ञानिक वर्गीकरण की दुनिया के छह अहम पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि 18वीं शताब्दी में कार्ल लिनियस ने कैसे वैज्ञानिक नामकरण प्रणाली में क्रांति लाई। इसके बाद, हम समझेंगे कि वर्गीकरण की मूल संरचना क्या है और कैसे साम्राज्य (kingdom) से लेकर प्रजाति (species) तक जीवों को व्यवस्थित किया जाता है। फिर, हम पढ़ेंगे प्रमुख साम्राज्य और संघों की विशेषताओं के बारे में, जिसमें पौधे, जानवर और कॉर्डेटा (Chordata) तथा आर्थ्रोपोडा (Arthropoda) जैसे महत्वपूर्ण संघों के उदाहरण शामिल हैं। आगे, हम जानेंगे कि जीनस (genus) और प्रजाति की पहचान प्रणाली कैसे काम करती है, और होमो सेपियंस (Homo sapiens) जैसे उदाहरण क्यों महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, हम आधुनिक बदलावों, जैसे डीएनए विश्लेषण और नई खोजों, का अध्ययन करेंगे, और अंत में, हम देखेंगे कि वैज्ञानिक वर्गीकरण का आज के दौर में वैश्विक महत्व क्यों है।

कार्ल लिनियस और वैज्ञानिक वर्गीकरण की शुरुआत
18वीं शताब्दी में स्वीडन (Sweden) के महान वनस्पतिशास्त्री कार्ल लिनियस ने जीव-जगत के अध्ययन में एक ऐसी क्रांति ला दी, जिसने विज्ञान के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। उस समय अलग-अलग देशों में एक ही जीव के लिए अलग-अलग नाम प्रचलित थे, जिससे वैज्ञानिक संवाद में भ्रम पैदा होता था। लिनियस ने इस समस्या का समाधान अपनी द्विपद नामकरण प्रणाली (binomial nomenclature) से किया, जिसमें हर जीव को दो निश्चित लैटिन नाम दिए जाते - पहला वंश (genus) और दूसरा प्रजाति (species)। उदाहरण के लिए, मनुष्य का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियंस है, जहाँ होमो वंश का नाम है और सेपियंस प्रजाति का। इस प्रणाली ने न केवल नामकरण में एकरूपता लाई, बल्कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों को एक ही भाषा में संवाद करने का साधन दिया।
वर्गीकरण की मूल संरचना: साम्राज्य से प्रजाति तक
वैज्ञानिक वर्गीकरण को समझने के लिए आप इसे एक पिरामिड (Pyramid) की तरह सोच सकते हैं, जिसके शीर्ष पर साम्राज्य (Kingdom) और सबसे निचले स्तर पर प्रजाति (Species) होती है। इनके बीच क्रमशः संघ (Phylum), वर्ग (Class), गण (Order), कुल (Family) और वंश (Genus) आते हैं। यह संरचना जीवों को उनकी समानताओं और भिन्नताओं के आधार पर व्यवस्थित करने का तरीका है। उदाहरण के लिए, शेर और बाघ अलग-अलग प्रजाति के हैं, लेकिन उनका वंश एक ही है, इसलिए उनमें कई समानताएँ पाई जाती हैं। इस तरह का वर्गीकरण वैज्ञानिकों को यह समझने में मदद करता है कि जीव-जगत में कौन-सा जीव किससे कितना संबंधित है।

प्रमुख साम्राज्य और संघों की विशेषताएं
जीव-जगत को मुख्य रूप से पाँच बड़े साम्राज्यों में बाँटा गया है - प्लांटी (Plantae), ऐनिमेलिया (Animalia), फंजाई (Fungi), प्रोटिस्टा (Protista) और मोनेरा (Monera)। प्रत्येक साम्राज्य के भीतर भी जीवों को अलग-अलग संघों (Phyla) में विभाजित किया जाता है। उदाहरण के लिए, संघ कॉर्डेटा (Chordata) में वे सभी जीव आते हैं जिनके पास रीढ़ की हड्डी होती है, जैसे मनुष्य, मछलियाँ और पक्षी। वहीं, आर्थ्रोपोडा (Arthropoda) में कीट, मकड़ियाँ और झींगे जैसे जीव शामिल हैं, जिनके पास बाहरी कंकाल (exoskeleton) और जोड़ों वाले पैर होते हैं। इस तरह के विभाजन से हम न केवल जीवों की संरचना और कार्यप्रणाली समझ पाते हैं, बल्कि उनके विकासक्रम और पर्यावरणीय भूमिका का भी अध्ययन कर सकते हैं।
जीनस और प्रजाति की पहचान प्रणाली
किसी भी जीव की पहचान में जीनस (Genus) और प्रजाति (Species) का संयोजन उसकी वैज्ञानिक "पहचान पत्र" की तरह होता है। उदाहरण के लिए, होमो सेपियंस में होमो वंश का नाम है, जबकि सेपियंस प्रजाति का। यह प्रणाली सुनिश्चित करती है कि चाहे कोई वैज्ञानिक अमेरिका में हो, जापान में हो या भारत में, वह एक ही नाम से उसी जीव को पहचानेगा। इसके बिना वैज्ञानिक अनुसंधान में भारी भ्रम पैदा हो सकता था। साथ ही, यह प्रणाली हमें यह भी बताती है कि कौन-सा जीव किस वंश से संबंधित है और अन्य जीवों से उसका कितना नज़दीकी रिश्ता है।

आधुनिक बदलाव: डीएनए विश्लेषण और नई खोजें
वर्गीकरण के पुराने तरीके मुख्य रूप से जीवों की भौतिक विशेषताओं (morphology) पर आधारित थे, जैसे आकार, संरचना, रंग या अंगों का प्रकार। लेकिन 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में डीएनए विश्लेषण (DNA analysis) और आणविक जीवविज्ञान (molecular biology) के आगमन ने इस प्रक्रिया को पूरी तरह बदल दिया। अब वैज्ञानिक जीवों के जीन (genes) का अध्ययन करके उनके विकासक्रम (evolutionary history) को और सटीकता से समझ सकते हैं। इसने कई पुराने वर्गीकरणों को संशोधित किया और कई नई प्रजातियों की खोज भी आसान बनाई। उदाहरण के लिए, कुछ जीव जिन्हें पहले एक ही प्रजाति माना जाता था, डीएनए परीक्षण के बाद अलग-अलग प्रजातियों में विभाजित किए गए।
वैज्ञानिक वर्गीकरण का महत्व
वैज्ञानिक वर्गीकरण केवल एक किताब में लिखी सूचनाओं का संग्रह नहीं है, यह जैव विविधता (biodiversity) को समझने, संरक्षित करने और उपयोग में लाने का एक शक्तिशाली उपकरण है। कृषि में यह हमें बेहतर फसल किस्में विकसित करने में मदद करता है, चिकित्सा में यह नई दवाओं की खोज को आसान बनाता है, और पर्यावरण संरक्षण में यह खतरे में पड़ी प्रजातियों की पहचान और सुरक्षा में अहम भूमिका निभाता है। सबसे बड़ी बात, यह प्रणाली एक वैश्विक वैज्ञानिक भाषा की तरह काम करती है, जो दुनिया भर के शोधकर्ताओं को आपस में जोड़ती है।
संदर्भ-
ईरान और मध्य एशिया में बौद्ध धर्म: उदय, संरक्षण और पतन की कहानी
धर्म का उदयः 600 ईसापूर्व से 300 ईस्वी तक
Age of Religion: 600 BCE to 300 CE
10-09-2025 09:28 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियो, भले ही हमारा शहर बौद्ध धर्म के प्रत्यक्ष केंद्रों में न रहा हो, लेकिन यह जानना रोचक है कि कभी ईरान की धरती पर भी यह धर्म अपनी गहरी सांस्कृतिक जड़ें जमा चुका था। कल्पना कीजिए, हज़ारों साल पहले, रेशम मार्ग पर चलने वाले व्यापारी, दूर-दराज़ से आने वाले भारतीय भिक्षु और ईरानी राजकुमार, सब एक ही सांस्कृतिक मिलन-बिंदु पर इकट्ठा होते थे। यहाँ केवल वस्तुओं का आदान-प्रदान नहीं होता था, बल्कि विचारों, विश्वासों और आध्यात्मिक परंपराओं का भी प्रवाह चलता था। इसी प्रवाह ने ईरान में बौद्ध धर्म के बीज बोए, जो एकेमेनिड काल (Achaemenid Period) से अंकुरित होकर कई शताब्दियों तक फला-फूला। फिर इस्लाम के आगमन के साथ यह धारा धीरे-धीरे विलुप्त हो गई, लेकिन इसकी छाप इतिहास, कला और स्थापत्य में अमिट रूप से दर्ज हो गई। आज जब हम उस दौर को देखते हैं, तो यह केवल धर्म की कहानी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संवाद और मानवीय जुड़ाव का अद्भुत उदाहरण है।
इस लेख में हम छह अहम पहलुओं पर रोशनी डालेंगे। सबसे पहले, एकेमेनिड राजवंश के दौर से बौद्ध धर्म की शुरुआत और उसके प्रसार की कहानी समझेंगे। इसके बाद, फारसी साम्राज्य और मध्य एशिया में इसके विस्तार की यात्रा पर नजर डालेंगे। तीसरे पहलू में, ईरान और पार्थिया के विद्वानों व राजकुमारों के अनोखे योगदान को जानेंगे। चौथे हिस्से में, मंगोल शासकों द्वारा दिए गए संरक्षण पर चर्चा होगी। पाँचवां पहलू इस्लाम के आगमन के बाद बौद्ध धर्म के धीरे-धीरे हुए पतन से जुड़ा होगा। अंत में, हम उन बचे हुए बौद्ध स्थलों के आज के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व पर विचार करेंगे।

ईरान में बौद्ध धर्म का प्रारंभ और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ईरान में बौद्ध धर्म का आरंभ एकेमेनिड राजवंश (550–330 ई.पू.) के समय से माना जाता है। यह वह दौर था जब भारत और फारस के बीच न केवल राजनीतिक बल्कि सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध भी फल-फूल रहे थे। एकेमेनिड साम्राज्य का विस्तार भारतीय उपमहाद्वीप की सीमाओं तक पहुँचता था, जिससे दोनों क्षेत्रों के बीच व्यापार मार्ग, विशेषकर रेशम मार्ग, सक्रिय रूप से उपयोग में आने लगे। मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल (3री सदी ई.पू.) में इन संपर्कों को एक नया आयाम मिला। अशोक ने अपने धर्म-दूतों को पश्चिमी क्षेत्रों तक भेजा, जिनका उद्देश्य बौद्ध शिक्षाओं का प्रचार और नैतिक मूल्यों का प्रसार था। अशोक के शिलालेखों में पार्थिया, खुरासान और बल्ख जैसे स्थानों का उल्लेख मिलता है, जो यह दर्शाता है कि उस समय बौद्ध धर्म का प्रभाव भारत से बहुत दूर तक फैल चुका था। शुरुआती दौर में यह प्रभाव मुख्य रूप से व्यापारिक नगरों और कारवां मार्गों के पास बसने वाले समुदायों में देखा गया, जहाँ व्यापारी, भिक्षु और स्थानीय लोग एक-दूसरे से धार्मिक और सांस्कृतिक विचार साझा करते थे। इस प्रकार, ईरान बौद्ध और फारसी सभ्यताओं के बीच एक जीवंत सांस्कृतिक पुल बन गया।

फारसी साम्राज्य और मध्य एशिया में बौद्ध धर्म का विकास
जैसे-जैसे समय बीतता गया, बौद्ध धर्म मध्य एशिया के प्रमुख शहरी केंद्रों में गहराई से स्थापित होता चला गया। बल्ख, खुरासान, बुखारा और समरकंद जैसे शहर बौद्ध शिक्षा, शास्त्र अध्ययन और कलात्मक नवाचार के महत्वपूर्ण केंद्र बने। यहाँ भव्य विहारों, विशाल स्तूपों और शिल्पकला से सुसज्जित मठों का निर्माण हुआ, जिनमें दूर-दूर से भिक्षु अध्ययन और साधना के लिए आते थे। गंधार शैली की बौद्ध मूर्तियों में फारसी स्थापत्य और ग्रीको-बैक्ट्रियन (Greco-Bactrian) कलात्मक प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है, जिससे एक अनूठा सांस्कृतिक मिश्रण पैदा हुआ। बौद्ध धर्म का यह स्वरूप स्थानीय समाज में इस तरह से रच-बस गया कि यह केवल धार्मिक परंपरा न रहकर, कला, साहित्य और शिक्षा का भी प्रमुख अंग बन गया। यहाँ तक कि 19वीं सदी में भी कुछ स्थानों पर बौद्ध प्रतीक और स्थापत्य अवशेष पाए जाते थे, जो इसकी दीर्घकालिक उपस्थिति का प्रमाण देते हैं।

ईरानी और पार्थियन विद्वानों व राजकुमारों की भूमिका
पार्थियन शासनकाल में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में ईरानी विद्वानों और राजकुमारों की भूमिका बेहद अहम रही। सबसे प्रमुख नाम अन शिगाओ (An Shigao) का है, जो एक पार्थियन राजकुमार और बौद्ध भिक्षु थे। उन्होंने 2री सदी ईस्वी में चीन की यात्रा की और वहाँ बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद करना शुरू किया। उनके अनुवाद कार्य ने महायान और हीनयान दोनों परंपराओं के ग्रंथों को चीन में लोकप्रिय बनाने में अहम योगदान दिया। इसी तरह अन हुवन (An Xuan) और अन्य पार्थियन मिशनरियों (Missionaries) ने भी चीन और मध्य एशिया में बौद्ध विचारधारा को फैलाने का कार्य किया। इन विद्वानों की खासियत यह थी कि उन्होंने केवल शाब्दिक अनुवाद ही नहीं किया, बल्कि बौद्ध दर्शन को स्थानीय सांस्कृतिक संदर्भों के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत किया, जिससे यह आम जनता के लिए अधिक सुलभ हो सका। उनके प्रयासों ने ईरान को बौद्ध धर्म के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क (network) में एक महत्वपूर्ण बौद्धिक केंद्र के रूप में स्थापित किया।
मंगोल शासकों का योगदान
13वीं और 14वीं सदी में, जब मंगोल साम्राज्य ने ईरान और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित किया, बौद्ध धर्म को एक बार फिर संरक्षण मिला। अबाका खान और अर्गन खान जैसे शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई और बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान में सक्रिय योगदान दिया। उन्होंने न केवल बौद्ध भिक्षुओं को आर्थिक सहायता प्रदान की, बल्कि मंदिरों, मठों और शिक्षण केंद्रों के निर्माण को भी प्रोत्साहित किया। इस अवधि में कला और साहित्य का पुनर्जागरण हुआ, बौद्ध चित्रकला, हस्तलिखित ग्रंथ और मूर्तिकला में नये प्रयोग हुए। मंगोल शासकों ने चीन, मंगोलिया और भारत के बौद्ध क्षेत्रों के साथ कूटनीतिक और सांस्कृतिक संबंध मजबूत किए, जिससे विचारों और कला का आदान-प्रदान तेज़ हुआ। हालांकि, यह पुनर्जागरण लंबे समय तक नहीं टिक सका, क्योंकि मंगोल साम्राज्य के विघटन और राजनीतिक अस्थिरता ने बौद्ध संस्थानों को कमजोर कर दिया।
इस्लाम के आगमन के बाद बौद्ध धर्म का प्रभाव और पतन
7वीं सदी में इस्लाम के आगमन ने ईरान के धार्मिक परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया। इस समय तक सासानिद साम्राज्य में पारसी धर्म (ज़ोरोएस्ट्रियनिज़्म - Zoroastrianism) राजकीय धर्म था, लेकिन इस्लामी शासन स्थापित होने के बाद बौद्ध धर्म और अन्य प्राचीन परंपराओं के लिए जगह और भी सीमित हो गई। कुछ हद तक बौद्ध विचारधारा का प्रभाव मैनिकिइज्म (Manicheism) और अन्य स्थानीय पंथों पर देखा जा सकता है, लेकिन राजनीतिक संरक्षण खत्म होने और सैन्य दबाव बढ़ने के कारण बौद्ध संस्थान धीरे-धीरे समाप्त होने लगे। श्वेत हूणों और बाद के आक्रमणों ने कई प्रमुख विहारों, स्तूपों और कलाकृतियों को नष्ट कर दिया। बचे हुए भिक्षु या तो पलायन कर भारत, तिब्बत या चीन चले गए, या फिर स्थानीय समाज में घुल-मिल गए। धीरे-धीरे ईरान की मिट्टी से बौद्ध धर्म लगभग पूरी तरह विलुप्त हो गया, और यह केवल ऐतिहासिक स्मृतियों और पुरातात्विक अवशेषों में ही रह गया।
बौद्ध स्थलों के अवशेष और वर्तमान महत्व
आज भी अफगानिस्तान के बामियान, हड्डा और मध्य एशिया के कई हिस्सों में बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण अवशेष मौजूद हैं, जो उस सुनहरे युग की गवाही देते हैं। बामियान की विशाल बुद्ध प्रतिमाएँ, जो 2001 में तालिबान द्वारा नष्ट की गईं, कभी इस पूरे क्षेत्र में बौद्ध धर्म की शक्ति और वैभव का प्रतीक थीं। हड्डा के विहारों में मिली मूर्तियाँ और गुफा चित्रकला आज भी बौद्ध कला की उत्कृष्टता को दर्शाती हैं। मध्य एशिया में पाए जाने वाले कई स्तूप और विहार अवशेष इस बात का प्रमाण हैं कि बौद्ध धर्म ने यहाँ की सांस्कृतिक धारा को गहराई से प्रभावित किया था। आज इन स्थलों का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पर्यटन के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्व है। इनसे न केवल पुरातत्वविदों को बौद्ध इतिहास की कड़ियाँ जोड़ने में मदद मिलती है, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों को भी यह याद दिलाते हैं कि ईरान और उसके पड़ोसी क्षेत्र एशियाई बौद्ध धरोहर के अभिन्न अंग रहे हैं।
संदर्भ-
झींगा मछली पालन: वैश्विक मांग, आर्थिक महत्व और सतत विकास की राह
समुद्री संसाधन
Marine Resources
09-09-2025 09:13 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, भले ही हमारा शहर समुद्र से सैकड़ों किलोमीटर दूर है, लेकिन झींगा (Prawn/Shrimp) मछली पालन अब केवल तटीय इलाकों तक सीमित नहीं रहा। वैश्विक बाज़ार में इसकी भारी मांग और उच्च मूल्य ने हमारे यहाँ के युवाओं और उद्यमियों के लिए भी नई राहें खोल दी हैं। आधुनिक मत्स्य पालन तकनीक, उन्नत कोल्ड-चेन लॉजिस्टिक्स (Cold-chain logistics) और ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म (e-commerce platform) की तेज़ी से बढ़ती पहुँच ने यह साबित कर दिया है कि समुद्री उत्पादों की सफलता भूगोल की सीमाओं से परे है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘लक्ज़री सीफ़ूड’ (luxury seafood) मानी जाने वाली झींगा मछली न केवल विदेशी मुद्रा अर्जन का साधन बन सकती है, बल्कि मेरठ में आर्थिक प्रगति, ग्रामीण विकास और हज़ारों नए रोज़गार अवसरों का भी आधार तैयार कर सकती है।
इस लेख में हम झींगा मछली पालन की पूरी प्रक्रिया और इसके आर्थिक महत्व को छह प्रमुख पहलुओं के माध्यम से समझेंगे। इसमें सबसे पहले झींगा मछलियों की वैश्विक मांग और उनके निर्यात के प्रमुख रूपों की चर्चा होगी। इसके बाद भारत में झींगा मछली पालन का आर्थिक महत्व और यहां पाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियों पर नजर डालेंगे। तीसरे भाग में झींगा पालन के लिए आवश्यक वातावरण और तालाब प्रबंधन की तकनीकों को समझेंगे। चौथे हिस्से में अंतरराष्ट्रीय उत्पादन आंकड़ों और मूल्य रुझानों पर बात करेंगे। इसके बाद हम देखेंगे कि प्रौद्योगिकी और हैचरी (hatchery) विकास इस क्षेत्र में कैसे अहम भूमिका निभाते हैं। अंत में सतत और लाभदायक झींगा मछली पालन के लिए अपनाई जाने वाली रणनीतियों पर विस्तार से चर्चा होगी।
झींगा मछलियों की वैश्विक मांग और निर्यात के प्रमुख रूप
अंतरराष्ट्रीय बाजार में झींगा मछली की मांग लगातार बढ़ती जा रही है, विशेष रूप से अमेरिका, जापान, चीन और यूरोप जैसे विकसित देशों में। यह मछली अपने स्वाद, पोषण और विशेष व्यंजनों में उपयोग के कारण “लक्ज़री समुद्री भोजन” के रूप में जानी जाती है। निर्यात के लिए झींगा मछली कई रूपों में तैयार की जाती है, जैसे सजीव, जमी हुई पूंछ, पूरी ठंडी मछली, पकी हुई झींगा और झींगा मांस। इन विभिन्न रूपों की अपनी अलग मूल्य सीमा होती है, जिनमें पकी हुई और जमी हुई पूंछ वाली श्रेणी अधिक मूल्य पर बिकती है। लक्ज़री रेस्तरां (luxury restaurant), बड़े होटल और सुपरमार्केट (supermarket) में इसकी मांग पूरे वर्ष बनी रहती है। आज शीत-गृह और आपूर्ति श्रृंखला (Supply Chain) तकनीकों के कारण, मेरठ जैसे गैर-तटीय शहरों से भी झींगा मछली का निर्यात संभव हो गया है, जिससे स्थानीय निवेशकों के लिए यह एक आकर्षक और लाभकारी व्यवसाय बन रहा है।

भारत में झींगा मछली पालन का आर्थिक महत्व और प्रमुख प्रजातियां
भारत में झींगा मछली पालन लंबे समय से तटीय राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा और गुजरात में किया जाता रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में इसकी आर्थिक संभावनाएं देश के अन्य हिस्सों में भी फैल रही हैं। झींगा मछली का योगदान मत्स्य पालन (Fisheries) क्षेत्र में अरबों रुपये का राजस्व देता है और यह देश के समुद्री निर्यात में एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। प्रमुख प्रजातियों में ब्लैक टाइगर (Black tiger), व्हाइट लेग (White Leg) और बैम्बू श्रिम्प (Bamboo Shrimp) शामिल हैं। ब्लैक टाइगर का आकार बड़ा, रंग गहरा और स्वाद विशिष्ट होता है, जबकि व्हाइट लेग अपनी तेज़ वृद्धि, रोग-प्रतिरोधक क्षमता और कम समय में बाज़ार योग्य आकार में पहुंचने के लिए प्रसिद्ध है। इन प्रजातियों की अंतरराष्ट्रीय मांग लगातार ऊंची रहती है, जिससे यह पालन किसानों और उद्यमियों के लिए अत्यंत लाभकारी व्यवसाय बनता है।
झींगा पालन के लिए आवश्यक वातावरण और तालाब प्रबंधन
सफल झींगा पालन के लिए सही पर्यावरणीय स्थितियां और कुशल तालाब प्रबंधन आवश्यक हैं। तालाब तैयार करने की प्रक्रिया में सबसे पहले उसका पूरी तरह सुखाना, पुराना पानी निकालना, कीचड़ और कचरा साफ करना, फिर चूना डालकर पानी की अम्लता (pH) को संतुलित करना शामिल है। इसके बाद प्राकृतिक खाद जैसे गोबर खाद, मूंगफली की खली आदि डालकर सूक्ष्म जीवों की वृद्धि की जाती है, जिससे पानी जैविक रूप से झींगा पालन के अनुकूल बनता है। आदर्श स्थिति में पानी का pH 7.5 से 8.5 के बीच, लवणता (Salinity) 10–25 पीपीटी (Parts Per Thousand) और घुलित ऑक्सीजन (oxygen) 4–6 मिलीग्राम प्रति लीटर होना चाहिए। जल की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए नियमित परीक्षण, हवा पहुंचाने वाले यंत्र (Aerators) और जल-संचलन प्रणाली का प्रयोग आवश्यक है।
अंतरराष्ट्रीय उत्पादन आंकड़े और मूल्य रुझान
2012 से 2016 के बीच वैश्विक झींगा उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई, जिसमें व्हाइट लेग प्रजाति का योगदान सबसे अधिक रहा। चीन, थाईलैंड (Thailand), वियतनाम (Vietnam) और भारत विश्व के शीर्ष उत्पादक देशों में गिने जाते हैं। मूल्य रुझानों की बात करें तो 2013 में झींगा रोग (Shrimp Disease) फैलने के कारण उत्पादन में कमी आई और अंतरराष्ट्रीय कीमतें रिकॉर्ड (record) स्तर तक बढ़ गईं। वहीं 2015–2016 में उत्पादन में सुधार के साथ कीमतों में गिरावट आई, हालांकि यूरोप और अमेरिका जैसे बाजारों में प्रीमियम गुणवत्ता (Premium Quality) वाली झींगा मछली की कीमत हमेशा सामान्य से 10–15% अधिक रहती है। इस तरह, वैश्विक मूल्य में उतार-चढ़ाव उत्पादन, मांग और रोगों की घटनाओं पर सीधे निर्भर करता है।

प्रौद्योगिकी और हैचरी विकास की भूमिका
आधुनिक प्रौद्योगिकी और हैचरी विकास झींगा मछली पालन को उच्च स्तर पर ले जाने की कुंजी है। हैचरी में अंडों से लार्वा (larvae) तैयार कर उन्हें नियंत्रित परिस्थितियों में पाला जाता है, जिससे रोग-प्रतिरोधी और तेज़ी से बढ़ने वाले झींगा प्राप्त होते हैं। अल्पकालिक मेद तकनीक (Short-term Fattening Techniques) और मूल्य संवर्धन जैसे “पकाने के लिए तैयार झींगा” उत्पाद किसानों को अधिक लाभ दिला सकते हैं। इसके अलावा जैव-फ्लॉक तकनीक (Bio-Floc Technology), कृत्रिम ऊष्मायन यंत्र और रोग नियंत्रण उपकरण, उत्पादकता बढ़ाने और लागत घटाने में अहम भूमिका निभाते हैं।
सतत और लाभदायक झींगा मछली पालन के लिए रणनीतियां
झींगा पालन को लंबे समय तक लाभकारी बनाए रखने के लिए पर्यावरण-अनुकूल (Eco-friendly) तरीकों का उपयोग करना अनिवार्य है। प्रजाति चयन, रोग-प्रतिरोधी बीज का उपयोग, जल की गुणवत्ता पर सतत निगरानी और प्राकृतिक भोजन के स्रोत अपनाना उत्पादन में वृद्धि करता है। बाजार की मांग का गहन अध्ययन कर उत्पादन चक्र तय करना, और समय पर शीत-श्रृंखला के माध्यम से उत्पाद को बाजार तक पहुंचाना, लाभप्रदता की कुंजी है। इसके साथ ही सरकारी योजनाओं, प्रशिक्षण कार्यक्रमों और सहकारी समितियों का सहयोग लेकर छोटे और मध्यम किसान भी इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
संदर्भ-
मेरठ में रंगीन कूड़ेदान: स्वच्छता और पर्यावरण बचाव की अहम पहल
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
08-09-2025 09:07 AM
Meerut-Hindi

मेरठवासियों, क्या आपने कभी गौर किया है कि हमारे शहर के पार्क, बाजार, स्कूल या सरकारी दफ्तरों में रखे गए रंग-बिरंगे कूड़ेदान सिर्फ दिखावे के लिए नहीं होते? इनका असली उद्देश्य हमारे घरों और सार्वजनिक स्थानों से निकलने वाले कचरे को सही तरीके से अलग करना और उसे पुनर्चक्रण (recycling) के लिए तैयार करना है। आज जब मेरठ तेजी से बढ़ती आबादी और शहरीकरण का सामना कर रहा है, तो कचरे की मात्रा भी पहले से कई गुना बढ़ गई है। ऐसे में रंगीन कूड़ेदान व्यवस्था न केवल हमारे शहर की सफाई बनाए रखने में मदद करती है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण और संसाधनों के दोबारा इस्तेमाल की दिशा में भी एक बड़ा कदम है। इस तरह की प्रणाली से न केवल हमारे आस-पास की गंदगी कम होती है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक स्वच्छ और स्वस्थ मेरठ बनाने की नींव भी रखी जाती है।
इस लेख में हम जानेंगे कि शहरों में बढ़ते कचरे से निपटने के लिए रंगीन कूड़ेदान क्यों और कैसे बनाए गए हैं। इसमें हम भारत में कचरे की स्थिति और उसके प्रकार, रंगीन कूड़ेदान के सही इस्तेमाल, आम गलतियों और जागरूकता की कमी, दुनिया भर में अपनाई गई रंगीन कूड़ेदान प्रणाली, अपशिष्ट प्रबंधन में 4R (4 आर) सिद्धांत की अहमियत, और सही निस्तारण से स्वच्छ शहर के लक्ष्य तक पहुँचने की बात करेंगे।

भारत में शहरी कचरे की स्थिति और प्रकार
भारत में शहरीकरण की रफ़्तार पिछले कुछ दशकों में इतनी तेज़ हुई है कि इसके साथ जुड़ी कचरे की समस्या भी दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है। आज हमारे शहर प्रतिदिन करीब 1.5 लाख टन ठोस कचरा पैदा करते हैं, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा 40–50% जैविक कचरे का होता है, जैसे सब्जियों के छिलके, बचे हुए खाने के टुकड़े, बगीचे की पत्तियाँ वगैरह। इसके अलावा 8–12% प्लास्टिक (plastic) कचरा है, जो सबसे कठिन चुनौती है क्योंकि यह न तो जल्दी नष्ट होता है और न ही मिट्टी में घुलता है। करीब 1% जैव-चिकित्सीय कचरा (दवाइयों के अवशेष, अस्पतालों का कचरा, प्रयोगशालाओं का कचरा) सीधे तौर पर स्वास्थ्य के लिए खतरा है। बाकी हिस्से में धातु, कांच, कपड़े, ई-कचरा (पुराना मोबाइल (mobile), लैपटॉप (laptop), बैटरी आदि) और अन्य ठोस अवशेष आते हैं। ई-कचरे में मौजूद सीसा (Lead), पारा (Mercury), कैडमियम (Cadmium) जैसे रसायन नदियों और भूजल को प्रदूषित कर देते हैं, जिससे गंभीर बीमारियाँ फैल सकती हैं।

भारत में रंगीन कूड़ेदान प्रणाली और उनका उपयोग
भारत में चार मुख्य रंग के कूड़ेदान अपनाए गए हैं, और इनका सही उपयोग कचरा प्रबंधन की रीढ़ की हड्डी जैसा है।
- हरा: इसमें गीला कचरा डाला जाता है, जैसे खाने का बचा हिस्सा, सब्ज़ी-फल के छिलके, फूल, पत्तियां, चाय की पत्तियां आदि। यह कचरा खाद (कम्पोस्ट - compost) बनाने में काम आता है।
- नीला: इसमें सूखा कचरा आता है, जैसे प्लास्टिक की बोतलें, पैकेजिंग मटीरियल (packaging material), कागज़, गत्ता, धातु के डिब्बे आदि। यह पुनर्चक्रण में उपयोगी होता है।
- काला: इसमें गैर-पुनर्चक्रण योग्य कचरा डाला जाता है, जैसे राख, धूल, टूटी हुई सिरेमिक टाइल्स (ceramic tiles), कांच के टुकड़े, निर्माण मलबा।
- लाल: इसमें खतरनाक और जैव-चिकित्सीय कचरा आता है, जैसे इस्तेमाल की हुई सिरिंज (syringe), ब्लेड (blade), दवाइयों के पैकेट, केमिकल्स (chemicals), सर्जिकल दस्ताने (surgical gloves) आदि।
सामान्य गलतियां और जागरूकता की कमी
कई बार देखा जाता है कि लोग नियम जानते हुए भी उनका पालन नहीं करते। हरे कूड़ेदान में प्लास्टिक की बोतल डालना या नीले कूड़ेदान में बचा हुआ खाना डालना, ये छोटी-सी लगने वाली गलतियाँ पूरी व्यवस्था बिगाड़ देती हैं। जब गीला और सूखा कचरा मिल जाता है, तो पुनर्चक्रण करना मुश्किल हो जाता है और अंत में वह सब लैंडफिल (landfill) में चला जाता है। समस्या का एक बड़ा कारण जागरूकता की कमी है। कुछ लोग मानते हैं कि "कचरा तो बाद में सब मिला दिया जाता है, तो अलग करने का क्या फ़ायदा?" जबकि सच यह है कि सही तरह से अलग किया गया कचरा रीसायक्लिंग यूनिट (recycling unit) में सीधा इस्तेमाल हो सकता है। आलस्य और आदत में बदलाव की अनिच्छा भी एक वजह है।

अंतर्राष्ट्रीय रंगीन कूड़ेदान प्रणाली
दुनिया के कई विकसित देशों में कचरे को और अधिक बारीकी से अलग करने के लिए पाँच रंगों वाली प्रणाली अपनाई जाती है:
- भूरा: खाद योग्य जैविक कचरा (खाना, बागीचे का कचरा)
- पीला: प्लास्टिक और धातु
- नारंगी: खतरनाक/रासायनिक कचरा (केमिकल, बैटरी, पेंट)
- नीला: कागज और कार्डबोर्ड (cardboard)
- हरा: सामान्य मिश्रित कचरा
इस तरह की विस्तृत प्रणाली से न केवल पुनर्चक्रण की गुणवत्ता बढ़ती है, बल्कि खतरनाक कचरे को समय पर और सुरक्षित तरीके से निपटाया जा सकता है। भारत में भी भविष्य में इस मॉडल (model) को अपनाने की संभावनाएं हैं, लेकिन इसके लिए जनता में उच्च स्तर की जागरूकता और सरकारी बुनियादी ढांचे की जरूरत होगी।
अपशिष्ट प्रबंधन में पृथक्करण और 4R सिद्धांत
कचरे के सही प्रबंधन का पहला कदम गीले और सूखे कचरे का अलगाव है। लेकिन इससे भी आगे बढ़कर 4R सिद्धांत को अपनाना चाहिए:
- Reuse (दोबारा उपयोग): पुराने कंटेनर, बोतलें, कपड़े, थैले आदि को दोबारा इस्तेमाल करना।
- Recycle (पुनर्चक्रण): इस्तेमाल हो चुके कागज, प्लास्टिक, धातु को नई वस्तुओं में बदलना।
- Reduce (कमी करना): डिस्पोजेबल वस्तुओं (Disposable items) के उपयोग को कम करना, जरूरत से ज्यादा पैकेजिंग न लेना।
- Refuse (मना करना): सिंगल-यूज़ प्लास्टिक (Single-use plastic) या हानिकारक चीजें खरीदने से इंकार करना।
अगर स्कूल, दफ्तर, और आवासीय सोसायटी (Residential Society) इस सिद्धांत पर काम करें, तो कचरे की मात्रा में 30–40% तक कमी आ सकती है।
सही कचरा निस्तारण और स्वच्छ शहर का लक्ष्य
कचरे का सही निस्तारण सिर्फ सरकारी जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हर नागरिक का कर्तव्य है। अगर हर व्यक्ति यह आदत डाल ले कि सही कचरा सही कूड़ेदान में ही डाले, तो न केवल हमारा शहर साफ़ रहेगा, बल्कि पर्यावरण पर दबाव भी कम होगा। सरकार और नगर निगम को चाहिए कि अधिक रंगीन कूड़ेदान लगाएं, समय-समय पर जागरूकता अभियान चलाएं और कचरे को पुनर्चक्रण इकाइयों तक सही तरीके से पहुंचाएं। यह छोटा-सा बदलाव “स्वच्छ भारत मिशन” और “स्मार्ट सिटी” (Smart City) दोनों के सपनों को साकार कर सकता है।
संदर्भ-
गणेश विसर्जन से दुर्गा विसर्जन तक, हर विसर्जन क्यों है भक्ति और पूर्णता का प्रतीक
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
07-09-2025 09:00 AM
Meerut-Hindi

दुर्गा विसर्जन, दुर्गा पूजा उत्सव का समापन है, जब भक्त माँ दुर्गा को श्रद्धा और भावनाओं के साथ विदा करते हैं। यह विसर्जन विजयादशमी के दिन होता है, जो बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है। विसर्जन का शुभ मुहूर्त अत्यंत महत्वपूर्ण होता है और इसे श्रवण नक्षत्र तथा दशमी तिथि में करना श्रेष्ठ माना गया है। पारंपरिक रूप से दोपहर का समय उपयुक्त माना गया है, हालांकि आजकल कई स्थानों पर प्रातःकाल भी विसर्जन की परंपरा अपनाई जाने लगी है। दुर्गा पूजा भारत के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। विशेषकर पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, झारखंड और त्रिपुरा में इसे अत्यंत भव्यता से मनाया जाता है। इसके अलावा दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे अनेक राज्यों में भी दुर्गा उत्सव और नवरात्रि बड़ी श्रद्धा और धूमधाम के साथ आयोजित होते हैं। यह उत्सव सामान्यतः नौ दिनों तक चलता है, लेकिन कई लोग इसे पाँच या सात दिनों तक भी मनाते हैं। षष्ठी से पूजा प्रारंभ होकर दशमी के दिन विसर्जन के साथ इसका समापन होता है।
सनातन धर्म में विसर्जन का गहरा दार्शनिक महत्व है। यह केवल किसी उत्सव का अंत नहीं, बल्कि उसकी पूर्णता का प्रतीक है। दुर्गा पूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन इस बात का द्योतक है कि नौ दिनों की आराधना के बाद हम उन्हें उन पंचतत्वों में लौटा रहे हैं, जिनसे उनका स्वरूप निर्मित हुआ था। यह हमें सिखाता है कि भौतिक रूप क्षणभंगुर है, जबकि दिव्यता अनंत और शाश्वत है। मूर्ति का विसर्जन सृजन, पालन और संहार के चक्र की याद दिलाता है और यह विश्वास भी कि माँ दुर्गा हर वर्ष लौटकर आएँगी। विसर्जन के दिन भक्त विशाल शोभायात्राएँ निकालते हैं। ढोल-नगाड़ों की धुन, भक्ति गीतों की गूँज और उत्साहपूर्ण वातावरण में माँ दुर्गा की प्रतिमा को नदियों, तालाबों या समुद्र में विसर्जित किया जाता है। यह पल भावनात्मक भी होता है क्योंकि भक्त माँ को विदा करते हैं, जिन्हें शक्ति स्वरूपा, करुणामयी और जगत की पालनहार माना जाता है। मान्यता है कि कैलाश पर्वत लौटने से पहले माँ अपने भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं। इसलिए दुर्गा विसर्जन केवल विदाई नहीं, बल्कि श्रद्धा, विश्वास और पुनर्मिलन की आशा का उत्सव भी है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/43AZu
https://shorturl.at/VHFtF
https://tinyurl.com/29mpz9e4
https://short-link.me/1cjbj
https://tinyurl.com/aayf8mfu
संस्कृति 2095
प्रकृति 759