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हमारा देश भारत विविध संस्कृतियों और परंपराओं वाला देश है। भारत की यह विविधता यहाँ की स्थापत्य कला में भी परिलक्षित होती है। देश की स्थापत्य कला में चार चाँद लगाने में हमारे शहर लखनऊ की वास्तुकला का अत्यधिक योगदान है। लखनऊ अपने शाही इमामबाड़ों, महलों, बगीचों और बारादरी के लिए विश्व प्रसिद्ध है। क्या आप जानते हैं कि लखनऊ को "पूर्व का क़ुस्तुंतुनिया" (Constantinople of the East) भी कहा जाता है क्योंकि इसकी स्थापत्य शैली क़ुस्तुंतुनिया (वर्तमान में इस्तांबुल) से मिलती जुलती है? हमारे शहर का रूमी दरवाज़ा, जिसका नाम तुर्की के महान सूफी “मेवलाना रूमी” के नाम पर रखा गया है, और बड़ा इमामबाड़ा एक ऐसा ही वास्तुशिल्प चमत्कार का उदाहरण है। आइए, हम इन इमारतों पर यूरोप के विदेशी प्रभावों को देखते हुए इनकी स्थापत्य शैली और प्राचीन शिल्प कौशल पर कुछ प्रकाश डालें।
18वीं सदी में मुग़ल साम्राज्य के कमज़ोर होने के बाद अवध जैसी क्षेत्रीय शक्तियों ने अपना दबदबा कायम करना शुरू कर दिया था । शक्ति का यह स्थानांतरण सबसे पहले वास्तुकला और जीवन शैली में परिलक्षित हुआ। नवाबों को, जो मूल रूप से फारसी थे, अपने शहरों, इमारतों और सांस्कृतिक विरासत के पहलुओं में प्रदर्शित मुगल वैभव की कल्पना, विरासत में मिली थी। नवाबों की संपत्ति ने कई यूरोपीय लोगों को आकर्षित किया जिनका प्रभाव नवाबी शहर के निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता है। नवाबों द्वारा शहर में चौकों, बगीचों, बाज़ारों से घिरे हुए महलों, आवासीय भवनों का निर्माण कराया गया, जो 17वीं और 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यूरोप में विकसित हुई वास्तुकला, कला और डिज़ाइन की एक अत्यधिक अलंकृत और विस्तृत शैली बारोक शैली (Baroque Style) पर आधारित था। इस यूरोपीय शैली का प्रभाव इमामबाड़ों के अलावा बगीचों और रूमी दरवाजे़ जैसे सजावटी द्वारों पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
बड़ा इमामबाड़ा और छोटा इमामबाड़ा के बीच स्थित प्रसिद्ध रूमी दरवाजे़ का निर्माण कार्य 1780 के दशक में अवधी नवाब 'नवाज आसफ-उद-दौला' द्वारा शुरू कराया गया था। इस दरवाजे़ को 'तुर्की गेट' के नाम से भी जाना जाता है। साठ फीट ऊंचा यह अलंकृत दरवाज़ा अपने ऊपरी हिस्से में आठ-मुखी छतरी जैसी संरचना के कारण विशिष्ट रूप से उल्लेखनीय है। लखनऊ का प्रतीक माने जाने वाला यह “रूमी दरवाज़ा” पहले पुराने शहर के प्रवेश द्वार के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इस दरवाजे़ की स्थापत्य कला तुर्की में क़ुस्तुंतुनिया में एक प्राचीन द्वार की डिज़ाइन के समान है। इस दरवाजे़ की स्थापत्य शैली स्पष्ट रूप से नवाबी है, जो इस्तेमाल की गई सामग्री के आधार पर मुगल स्थापत्य शैली से भिन्न हैं क्योंकि मुगल स्थापत्य शैली में लाल बलुआ पत्थर को प्राथमिकता दी जाती थी। वहीं इसमें चुने में लेपित ईंटों का इस्तेमाल किया गया है, जिससे इसमें मूर्तिकला का निरूपण कहीं अधिक विस्तृत रूप में संभव हो पाया है जिसे पत्थर पर करना लगभग असंभव था। दरवाजे़ पर फूलों की जटिल नक्काशी की गई है। बताया जाता है कि जब इस दरवाजे़ का निर्माण किया गया था और यह दरवाज़ा अपने पूर्ण रखरखाव की स्थिति में था, उस समय इसके प्रवेश द्वार के शीर्ष पर एक विशाल लालटेन थी, जो रात में जलाई जाती थी, जिसमें मेहराव से पानी की धाराएं बहती थी। शहर में पहली बार आने वाले पर्यटकों के लिए रूमी दरवाज़ा अवश्य देखने योग्य है। वास्तव में यह हमारे शहर लखनऊ की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर है।
हमारा शहर लखनऊ वास्तुशिल्प चमत्कारों का घर है, और ऐसी ही एक अन्य उत्कृष्ट कृति है बड़ा इमामबाड़ा। बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ के सबसे लोकप्रिय पर्यटक आकर्षणों में से एक है, जो दुनिया भर से पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह न केवल लखनऊ बल्कि भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रमाण है।
वास्तुकला की मुगल शैली में निर्मित बड़ा इमामबाड़ा एक भव्य स्मारक है जिसका निर्माण 1784 में नवाब ‘आसफ-उद-दौला’ द्वारा कराया गया था। अपनी अनूठी डिज़ाइन और नक्शे के कारण इस स्मारक को अस्फी मस्जिद या भूल भुलैया के नाम से भी जाना जाता है।
बड़ा इमामबाड़ा की संरचना अत्यधिक जटिल है। इसमें मुख्य इमारत, एक मस्जिद, एक बावड़ी और कई आंगन शामिल हैं। मुख्य इमारत 260 स्तंभों पर एक ऊंचे मंच पर बनी है। प्रत्येक स्तंभ समान चौड़ाई और ऊंचाई और समान दूरी पर हैं । इमारत की छत लकड़ी से बनी है और कहा जाता है कि यह एशिया की सबसे बड़ी छतों में से एक है। इसके भूतल पर तीन हॉल हैं जो तीन अलग अलग शैलियों - चीनी, फ़ारसी और भारतीय - में बने हैं। भारतीय हॉल की छत अर्ध गोलाकार है जो आधे कद्दू के आकार की दिखती है। इमाम बारगाह को फ़ारसी हॉल में रखा गया है।
बड़ा इमामबाड़ा की सबसे दिलचस्प विशेषता, गलियारों और मार्गों की एक भूल भुलैया है, जो छत तक जाती है। कहा जाता है कि भूल भुलैया को घुसपैठियों को भ्रमित करने और स्मारक को किसी भी हमले से बचाने के लिए डिज़ाइन किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि छत तक पहुंचने के 1000 से भी ज्यादा रास्ते हैं, लेकिन वापस आने के लिए केवल एक ही रास्ता है। यह वास्तुकला का भी चमत्कार है, क्योंकि यह संरचना इतनी विशाल होने के बावजूद बिना किसी खंभे या बीम के बनी हुई है।
इस भवन की वह वस्तु जिसके कारण इसे भूलभुलैया कहा जाता है, इस भवन के द्वार हैं। यहाँ हर 10 से 15 फ़ुट पर चार दरवाजे़ हैं, जिनमें से एक दरवाज़ा सही रास्ते पर ले जाता है बाकी तीन गलत रास्ते पर। आपने यह कहावत तो सुनी ही होगी कि "धीरे बोलो दीवारों के भी कान होते हैं।" इस इमारत की दीवारें वाकई में इस कहावत को सच साबित करती हैं। क्योंकि इसकी तीसरी मंज़िल पर बड़ी-बड़ी दीवारें हैं जो किनारे से खोखली हैं। इस प्रकार, जब कोई दीवारों के पास फुसफुसाता है तो इसे 10-20 फ़ुट की दूरी तक भी सुना जा सकता है।
इसकी चौथी मंजिल पर छत है जहां से रोमन गेट, क्लॉक टॉवर, छोटा इमामबाड़ा, लखनऊ जामा मस्जिद और अन्य स्मारकों के साथ लखनऊ का सुंदर दृश्य दिखाई देता है। बड़ा इमामबाड़ा के इतिहास के विषय में कहा जाता है कि इसे अकाल के समय बनाया गया था और नवाब आसफ-उद-दौला ने स्मारक के निर्माण के लिए हज़ारों श्रमिकों को नियुक्त किया था। श्रमिकों को खाद्यान्न के रूप में भुगतान किया जाता था, जिसे परिसर के अंदर एक गोदाम में संग्रहीत किया जाता था। बाद में अकाल के दौरान गोदाम खोला गया और अनाज लोगों के बीच वितरित किया गया।
बड़ा इमामबाड़ा का तीसरा मुख्य आकर्षण एक बावड़ी है जो ज़मीन के स्तर से नीचे स्थित है। बावड़ी का उपयोग जलाशय के मार्ग के रूप में किया जाता था। साथ ही यह भी माना जाता है कि नवाब और उनके परिवार के लिए यहाँ एक गुप्त मार्ग था जिसका प्रयोग वे संकट के समय करते थे। क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि यह एक सुरंग द्वारा गोमती नदी से जुड़ी हुई है। सूखे या बाढ़ के दौरान भी बावड़ी का जल स्तर कभी नहीं बदलता है।इसके ठीक बगल में एक स्मारक भी है जिसे बौला कुआं कहा जाता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ नवाब के वज़ीर मेवालाल, ब्रिटिश सेना से खज़ाने की रक्षा के लिए, खज़ाना और उसकी चाबी लेकर कूद पड़े थे।
बड़ा इमामबाड़ा की एक और आकर्षक विशेषता असफ़ी मस्जिद है, जो परिसर के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। यह भारत की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है और इसमें सुंदर गुंबद और मीनारें हैं। मस्जिद में एक अद्वितीय ध्वनिक प्रणाली भी है, जहां एक कोने से फुसफुसाने पर ध्वनि को विपरीत कोने में स्पष्ट रूप से सुना जा सकता है। इसका उपयोग नवाब युद्ध के समय अपने सलाहकारों और सेनापतियों से संवाद करने के लिए करते थे। मस्जिद में एक समय में 20,000 लोग रह सकते हैं और अभी भी यहाँ धार्मिक सभाएँ एवं प्रार्थनाएँ आयोजित की जाती हैं।
संदर्भ
https://shorturl.at/ejGM5
https://shorturl.at/dfuEX
https://shorturl.at/hjuC7
चित्र संदर्भ
1. लखनऊ के रूमी दरवाज़े को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. सामने से लखनऊ के बड़ा इमामबाड़ा परिसर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. बड़ा इमामबाड़ा की भूलभुलैया की छत को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. लखनऊ के बड़ा इमामबाड़ा के भीतर के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. इमामबाड़ा परिसर के भीतर स्थित असफ़ी मस्जिद को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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