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आज की तारीख में महिलाओं के लिए अपने अधिकारों की बात करना और अपने हक़ के लिए लड़ना बहुत आसान है। लेकिन हमारे देश में हमेशा से ऐसा नहीं था। अंग्रेजों के शासनकाल में महिलाओं के लिए पुरुषों के सामने आवाज उठाना तो दूर, घूंघट उठाना भी दूभर हुआ करता था। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उस समय की विषम परिस्थितियों में भी पंडिता रमाबाई नामक महिला ने अपने महिला सशक्तिकरण के प्रयासों से न केवल अपने बल्कि पूरे महिला समाज के जीवन को बदलकर रख दिया।
पंडिता रमाबाई सरस्वती, एक भारतीय समाज सुधारक थीं। उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा अपने संस्कृत के ज्ञान के लिए “पंडिता और सरस्वती” की उपाधि प्राप्त करने वाली देश की पहली महिला होने का गौरव प्राप्त है। वह 1889 के कांग्रेस सत्र में दस महिला प्रतिनिधियों में से एक थीं। 1880 के दशक की शुरुआत में इंग्लैंड (England) में रहने के दौरान, उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया। अपने धर्म परिवर्तन के बाद, उन्होंने भारत में जरूरतमंद महिलाओं के लिए धन जुटाने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की व्यापक रूप से यात्रा की। इसके बाद इस एकत्रित धन से उन्होंने बाल विधवाओं के लिए एक घर और एक शारदा सदन की स्थापना की। 1890 के दशक के अंत में, उन्होंने पुणे से चालीस मील पूर्व में स्थित केड गांव में “मुक्ति मिशन” नामक एक ईसाई धर्मार्थ संस्था की भी स्थापना की। बाद में इस मिशन का नाम बदलकर “पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन” कर दिया गया।
पंडिता रमाबाई सरस्वती का जन्म 23 अप्रैल 1858 के दिन रमाबाई डोंगरे के रूप में हुआ था। वह एक मराठी भाषी चितपावन ब्राह्मण परिवार से संबंध रखती थी। उनके पिता अनंत शास्त्री डोंगरे एक बड़े संस्कृत विद्वान थे। उन्होंने ही रमाबाई और उनकी माँ, लक्ष्मी को घर पर ही संस्कृत सिखाई। संपूर्ण परिवार अपना जीविकोपार्जन भारत भर के तीर्थ स्थलों पर सार्वजनिक रूप से पुराण का पाठ करके किया करता था।
1876-78 के अकाल के दौरान मात्र 16 साल की उम्र में, रमाबाई और उनके भाई श्रीनिवास अनाथ हो गए थे। 1880 में श्रीनिवास की भी मृत्यु हो गई, जिसके कुछ समय बाद रमाबाई ने एक बंगाली वकील, “बिपिन बिहारी मेधवी” से शादी कर ली। हालांकि इन दोनों की जाति अलग थी, और वह दोनों भारत के अलग-अलग क्षेत्रों से थे, जिस कारण समाज द्वारा उनकी शादी को अपरंपरागत माना जाता था। 16 अप्रैल, 1881 में उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने मनोरमा रखा। इसे उनका दुर्भाग्य ही कहेंगे कि 4 फरवरी, 1882 के दिन हैजा के कारण उनके पति बिपिन बिहारी मेधवी का भी निधन हो गया।
इसके बाद अपनी वैधव्यावस्था के पहले वर्षों में उन्होंने तीन बेहद महत्वपूर्ण कार्य किये। सबसे पहले उन्होंने आर्य महिला समाज की स्थापना की। यह उच्च जाति की हिंदू महिलाओं का एक समाज है, जो लड़कियों की शिक्षा के समर्थन में और बाल विवाह के खिलाफ काम करता है। इसके बाद उन्होंने अपनी पहली पुस्तक, मोरल्स फॉर वुमेन (Morals for Women), या मूल मराठी स्त्री धर्म नीति प्रकाशित की। 1882 में, भारत में ब्रिटिश सरकार ने देश में शिक्षा का अध्ययन करने के लिए हंटर कमीशन (Hunter Commission) नामक एक समिति की स्थापना की। शिक्षिका पंडिता रमाबाई ने हंटर कमीशन के समक्ष महिला शिक्षा की वकालत की। रमाबाई ने शिक्षित भारतीय पुरुषों के बीच महिला शिक्षा के विरोध की आलोचना की और उन पर महिलाओं की कमियों को गलत तरीके से बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का आरोप लगाया। उन्होंने महिला शिक्षा में सुधार के लिए विशिष्ट उपायों का प्रस्ताव रखा, जिनमें शिक्षकों को प्रशिक्षण देना और महिला स्कूल निरीक्षकों की नियुक्ति करना शामिल था।
रमाबाई ने यह भी तर्क दिया कि महिला स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की कमी को दूर करने के लिए भारतीय महिलाओं को मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश दिया जाना चाहिए। कहा जाता है कि उनकी गवाही ने महारानी विक्टोरिया (Queen Victoria) की सोच को भी प्रभावित किया था। रमाबाई ने महाराष्ट्र में, महिलाओं की शिक्षा और चिकित्सा देखभाल को आगे बढ़ाने के लिए कम्युनिटी ऑफ सेंट मैरी द वर्जिन (Community of St. Mary the Virgin (CSMV) सहित ईसाई संगठनों के साथ सहयोग किया।
पंडिता रमाबाई भारत में कई सामाजिक सुधार की योजनाओं से जुड़ी हुई थीं। उन्होंने अपना अधिकांश समय अमेरिका में और कुछ समय कनाडा में धन जुटाने में बिताया। यहां तक कि उन्होंने अमेरिकी मुद्दों को भी उठाया। उन्होंने जानवरों के प्रति क्रूरता की रोकथाम के लिए मैसाचुसेट्स सोसाइटी (Massachusetts Society) का सहयोग किया और 1888 में अंतर्राष्ट्रीय महिला परिषद की पहली बैठक में भाषण भी दिया।
1888 के अंत तक पंडिता रमाबाई भारत वापस आ गईं, यहां आकर उन्होंने शारदा सदन, या होम फॉर लर्निंग (Home for Learning) की स्थापना की। इस समुदाय की महिलाओं को ईसाई धर्म के सिद्धांत सिखाए गए, हालांकि वे अपनी हिंदू मान्यताओं को जारी रखने के लिए भी स्वतंत्र थीं। हालांकि रमाबाई को भारत में समस्याओं का भी सामना करना पड़ा क्यों कि उन्हें ईसाई मिशनरी प्रयास के हिस्से के रूप में देखा गया, हालांकि वही धारणा संयुक्त राज्य अमेरिका में धन जुटाने के लिए उपयोगी थी। उनके द्वारा स्थापित शारदा सदन को महिलाओं की शिक्षा (युवा लड़कियों से लेकर वयस्कों तक) और विधवाओं की सुरक्षा के लिए काम करने वाली शुरुआती पहलों में से एक माना जाता है। 1890 के दशक के अंत में मध्य भारतीय प्रांतों में जब अकाल और प्लेग फैला, तो उस समय उन्होंने अपना ध्यान अकाल पीड़ितों के आवास और शिक्षा की ओर लगा दिया और इस उद्देश्य के लिए एक नया संगठन बनाया।
वह एक उत्कृष्ट लेखिका भी थी और उन्होंने हिंदी और संस्कृत के साथ-साथ मराठी और अंग्रेजी में भी प्रकाशन किया। इंग्लैंड और अमेरिका के बारे में उनकी यात्रा पुस्तकें दिलचस्प ढंग से पूर्व में पश्चिमी यात्रा लेखक की परंपराओं को उलट देती हैं। उनका अंतिम, कार्य संपूर्ण बाइबिल का मराठी में अनुवाद था, जो उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ। उनकी मृत्यु के आधी सदी बाद, ए.बी. शाह ने उन्हें "आधुनिक भारत की मिटटी से जन्मी सबसे महान महिला और पूरे इतिहास में सबसे महान भारतीयों में से एक" कहकर संबोधित किया।
संदर्भ
https://tinyurl.com/26dmt998
https://tinyurl.com/mr22yw23
चित्र संदर्भ
1. पंडिता रमाबाई की तस्वीर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. पंडिता रमाबाई, मनोरमा, यूरोपीय और अन्य अमेरिकी मिशनरी समर्थको को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. पंडिता रमाबाई सरस्वती के चित्र को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. पंडिता रमाबाई की एक और तस्वीर को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
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