भगवान शिव के ‘रुद्र-डमरू’ व् अन्य प्राचीन अवनद्ध ताल वाद्ययंत्रों के स्वर ने जगाई चेतना

ध्वनि 1- स्पन्दन से ध्वनि
04-08-2023 10:51 AM
Post Viewership from Post Date to 15- Sep-2023 31st Day
City Subscribers (FB+App) Website (Direct+Google) Email Instagram Total
3320 589 3909
भगवान शिव के ‘रुद्र-डमरू’ व् अन्य प्राचीन अवनद्ध ताल वाद्ययंत्रों के स्वर ने जगाई चेतना

हमारे देश भारत में अलग-अलग समय और स्थानों के प्रचारकों द्वारा सभी प्रकार एवं श्रेणीयों के संगीत वाद्य यंत्रों का आविष्कार किया गया हैं।साथ ही, तकनीकी उद्देश्यों के लिए प्राचीन काल से ही इन वाद्ययंत्रों का व्यवस्थित ढंग से वर्गीकरण हुआ हैं। भारत में वाद्ययंत्रों का प्रचलित वर्गीकरण, कम से कम दो हज़ार साल पहले ही कर लिया गया था। इस वर्गीकरण का पहला उल्लेख भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में है।
नाट्यशास्त्र भरत मुनि द्वारा संकलित प्रदर्शन कलाओं का एक प्राचीन ग्रंथ है, जो 200 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी के बीच लिखा गया था। उन्होंने वाद्ययंत्रों को ‘घन वाद्य’, ‘अवनद्ध वाद्य’, ‘सुषिर वाद्य’ और ‘तत् वाद्य’ के रूप में वर्गीकृत किया हैं।
आइए, इनके वर्गीकरण का आधार जानते हैं:
अवनद्ध वाद्य या मेम्ब्रानोफोन्स(Membranophones), ताल वाद्ययंत्र हैं।
घन वाद्य या इडियोफोन(Idiophones), ठोस वाद्ययंत्र हैं।
सुषिर वाद्य या एयरोफ़ोन(Aerophones), पवन वाद्ययंत्र हैं।
तथा, तत् वाद्य या कॉर्डोफ़ोन (Chordophones), तार वाद्ययंत्र हैं।
अवनद्ध वाद्ययंत्र, जानवरों की खाल अथवा चर्म को, धातु या मिट्टी के बर्तन, लकड़ी के पीपे या किसी चौखट पर खींचकर एवं पक्का करके बनाएं जाते हैं। जानवरों की खाल पर प्रहार करने पर इन यंत्रों से ध्वनि उत्पन्न होती है। अवनद्ध वाद्ययंत्रों का सबसे पहला संदर्भ वेदों में पाया जाता है। वेदों में हमें जमीन में खोदे गए एक गड्ढे का उल्लेख मिलता है, जिसे भैंस या बैल की खाल से ढका गया था। फिर, किसी जानवर की पूंछ से या फिर पूंछ की हड्डी से इस खाल पर प्रहार करके, ध्वनि उत्पन्न की जाती थी।
अवनद्ध वाद्ययंत्रों की सबसे पुरानी ज्ञात छवियों में से कुछ छवियों को, भरहुत स्तूप के भित्ति चित्रों में देखा जा सकता है। भरहुत, मध्य प्रदेश के सतना जिले में स्थित एक गांव है, जो बौद्ध स्तूप के कुछ प्रसिद्ध अवशेषों के लिए जाना जाता है। क्या आप इन वाद्ययंत्रों के अंतर्गत आने वाले मुख्य ताल वाद्यों के बारे में जानते हैं? अगर नहीं, तो आइए पढ़ते हैं। अवनद्ध वाद्य श्रेणी के मुख्य ताल वाद्य निम्न प्रकार के हैं: 1.अंक्यढोल अंक्यढोल दोनों तरफ जानवरों की खाल से ढके होते हैं। इन्हें क्षैतिज रूप से पकड़ा जाता है और दोनों तरफ उंगलियों या छड़ी से प्रहार करके ध्वनि उत्पन्न की जाती है। अंक्यढोल के प्रमुख प्रकार मृदंग, खोल, पखावज आदि हैं।सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों पर मिली हुई मुहरों में, पुरुषों को गले में ऐसे ढोल लटकाकर बजाते हुए दिखाया गया है। 2.अलिंग्यढोल अलिंग्यढोल में जानवरों की खाल एक लकड़ी के गोल ढांचे पर लगी होती है। इस वाद्ययंत्र को एक हाथ से अपने सीने के करीब पकड़ा जाता है, जबकि दूसरे हाथ से इस वाद्ययंत्र को बजाया जाता है। अलिंग्य ढोल के कुछ प्रमुख प्रकार जैसे कि, डफ़ और डफ़ली बहुत लोकप्रिय हैं। 3.ऊर्ध्वकढोल ऊर्ध्वकढोल को हमारे सामने लंबवत तरीके में रखा जाता है। फिर, वाद्ययंत्र पर उंगलियों या छड़ी से प्रहार करके, ध्वनि उत्पन्न की जाती है। इसके प्रमुख प्रकार तबला जोड़ी और चेंदा हैं। 4.तबला जैसे कि हमनें ऊपर देखा है, तबला जोड़ी दो खड़े ऊर्ध्वकढोल का एक समूह होता है। दाहिनी ओर रखे गए वाद्ययंत्र को तबला और बायीं ओर रखे गए वाद्ययंत्र को बायन या दग्गा कहा जाता है।तबला जोड़ी का उपयोग हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और उत्तरी भारत के कई नृत्य रूपों के दौरान गायन और वाद्य में किया जाता है। हिंदुस्तानी संगीत के जटिल तालों को तबले पर बड़ी कुशलता से बजाया जा सकता है।
इस वाद्ययंत्र की पट्टियों और ढांचे पर लगाए गए लकड़ी के आयताकार कुंदो या टुकड़ों का उपयोग इस ढोल के समस्वरण या ट्यूनिंग (Tuning) हेतु किया जाता हैं।साथ ही, खाल के बीच में एक विशिष्ट स्याही का मिश्रण भी लगाया जाता है। इसके किनारों पर हथौड़े से प्रहार करके भी तबले का सटीक रूप से समस्वरण किया जा सकता है। 5.डमरू डमरू श्रेणी के वाद्ययंत्रों में, भारत के दक्षिणी क्षेत्र के तिमिला से लेकर हिमाचल प्रदेश के हुड्डका वाद्ययंत्र भी शामिल हैं। हुड्डका को हाथों से बजाया जाता है, जबकि तिमिला को कंधों से लटकाकर उंगलियों और छड़ी से बजाया जाता है।
इन चर्म वाद्ययंत्रों के इतिहास में ज्ञात सबसे पहला वाद्ययंत्र भगवान शिव जी का प्रिय ‘रुद्र-डमरू’ है। हमें त्रिपुरासुर-रहस्य, शिव-रहस्य, अमरकोश, संगीत-पारिजात, संगीत-मकरंद, शिव-ध्यान, शिव-निरंजन, स्कंदपुराण, संगीत-दर्पण और संगीत-रत्नाकर जैसे शास्त्रों में डमरू का उल्लेख मिलता हैं। वैदिक युग में भी दुंदुभि और भूमिदुंदुभि वाद्ययंत्रों का विशेष स्थान हुआ करता था। यह ‘साम गान’, जो कि साम वेद का एक वैदिक मंत्र था, के लिए भी एक सहायक वाद्ययंत्र था। अथर्ववेद के पांचवें मंडल में वर्णित 20वें और 21वें सूक्त में दुंदुभि का वर्णन मिलता है।दूसरी ओर, भूमिदुंदुभि का निर्माण भूमि में एक बड़ा गड्ढा खोदकर किया जाता था। फिर इस गड्ढे पर जानवरों की खाल को खींचकर मोड़ दिया जाता था। यह वाद्य जंगली बैल या सांड के पूंछ की हड्डी से बजाया जाता था। दुंदुभी, योद्धाओं के बीच भी बहुत लोकप्रिय थी। आमतौर पर महान युद्धों के दौरान योद्धाओं को खुश करने तथा उनमें युद्ध, विशेष त्योहारों, समारोहों और धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान उत्साह बढ़ाने के लिए इसे बजाया जाता था।
आज, हमारे द्वारा प्रयोग किए जाने वाले संगीत वाद्य यंत्र प्राचीन भारत में प्रयुक्त वाद्य यंत्रों से काफी भिन्न हैं। परंतु, हम इन वाद्य यंत्रों के साथ वर्तमान वाद्ययंत्रों की तुलना नहीं कर सकते हैं। क्योंकि, हमें ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में प्राप्त ये प्राचीन वाद्ययंत्र, अपने आप में काफी विशिष्ट और सुंदर हैं।

संदर्भ
https://tinyurl.com/5n767vws
https://tinyurl.com/34znw3nt
https://tinyurl.com/5eyptjr9
https://tinyurl.com/y4j9eamu

चित्र संदर्भ

1. डमरू को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. अवनद्ध ताल वाद्ययंत्रों को दर्शाता चित्रण (Needpix)
3. डफली को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
4. मृदंग को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. चेंदा वाद्ययंत्र को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
6. तबले को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
7. डमरू को दर्शाता चित्रण (PICRYL)

पिछला / Previous अगला / Next

Definitions of the Post Viewership Metrics

A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.

B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.

C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.

D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.