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लखनऊ शहर को अपने समृद्ध इतिहास, संस्कृति और स्वादिष्ट भोजन के लिए जाना जाता है। यहां पर बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी निवास करती है, इसलिए यहां पर मनाये जाने वाले इस्लामिक त्यौहार न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में अलहदा होते हैं। मुहर्रम के दौरान भी लखनऊ में कुछ ऐसी गतिविधियां आयोजित की जाती हैं, जो पूरी दुनिया में सबसे अनोखी मानी जाती हैं।
आगे बढ़ने से पहले जानते हैं मुहर्रम के बारे में: मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का एक महीना होता है, जो शिया समुदाय के बीच विशेष महत्व रखता है। मुहर्रम की उत्पत्ति कर्बला की ऐतिहासिक लड़ाई को संदर्भित करती है, जो वर्तमान इराक में हुई थी। कर्बला वर्तमान इराक में बगदाद से लगभग 100 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में स्थित एक शहर है। कर्बला के शहीदों को भारत और दुनिया भर में मुसलमानों द्वारा नायक के रूप में सम्मानित किया जाता है। तुफ़ातुज़ज़ा-इर, सफ़ीनातुन नजात और माफ़तिहुन नजात जैसे कुछ पवित्र लेखों में कहा गया है कि "कर्बला की मिट्टी", जिसे “खाक-ए-शिफ़ा” के नाम से जाना जाता है, में घातक बीमारियों को छोड़कर विभिन्न बीमारियों को दूर करने के औषधीय गुण होते हैं। उपचार के लिए खाक-ए-शिफ़ा का उपयोग करने या चुनने से पहले, अल्लाह से प्रार्थना करना ज़रूरीहोता है। खाक-ए-शिफ़ा चुनने के बाद सूरहअल-फ़ातिहा, सूरहयासीन, सूरहअल-कद्र, सूरहअल-काफिरुन, सूरहअल-इख़लास, सूरहअल-फ़लक, सूरहअल-नास और अल-कुर्सी जैसी आयतों का पाठ किया जाता है।
मुहर्रम के पहले दस दिनों के दौरान, जिसे पवित्र अवधि के रूप में जाना जाता है, लखनऊ में शिया समुदाय द्वारा इमाम हुसैन और उनके परिजनों की शहादत को गंभीरता से याद किया जाता है। इस दौरान वे काले कपड़े पहनते हैं और दिन के दौरान धर्मार्थ गतिविधियों में शामिल होते हैं। लखनऊ में मुहर्रम का उत्सव 68 दिनों तक चलता है, और इसे पूरी दुनिया में स्मरणोत्सव की सबसे लंबी अवधि माना जाता है। यह 29वीं ज़िल-हिज्जा की शाम से शुरू होती है और 8वीं रबी-अल-अव्वल की शाम को समाप्त होती है। पूरे मुहर्रम के दौरान, कर्बला में किए गए बलिदानों को याद करने के लिए लखनऊ में कई स्थानों पर जुलूस आयोजित किए जाते हैं। ये जुलूस एक परंपरा है, जो नवाबों के समय से चली आ रही है।
उदाहरण के लिए, शाही ज़री का जुलूस मुहर्रम की शुरुआत का प्रतीक है और यह एक भव्य जुलूस है ,जहां पवित्र ज़री (ताज़िया) को एक इमामबाड़े से दूसरे इमामबाड़े में ले जाया जाता है। ताज़िया एक अरबी शब्द है, जिसका मतलब होता है इमाम हुसैन के मज़ार की प्रतिकृति या नक्ल। पुराने लखनऊ के काजमैन क्षेत्र में कुशल ताज़िया निर्माता, इन जटिल संरचनाओं का निर्माण करते हैं। वे इन ताज़िया को लगभग 6 महीने पहले से बनाना शुरू कर देते हैं, क्योंकि मुहर्रम के लिए इनकी अन्य शहरों और गांवों में आपूर्ति की जाती है। ये ताज़िया इमाम हुसैन, उनके परिवार और कर्बला की लड़ाई के शहीदों के प्रति संवेदना व्यक्त करने का एक तरीका होता है।
इमामबाड़े में ताज़िया रखने का इतिहास तैमूर (जिसने 1398 ई. में भारत पर आक्रमण किया था।) के शासन काल जितना पुराना माना जाता है। कर्बला जाने में असमर्थ होने के कारण, उसने यहीं पर ताज़िया की प्रतिकृति बनवाई, इसके बाद से ही यहां ताज़िया बनाने की परंपरा शुरू हो गई। बाद में, इस क्षेत्र पर शासन करने वाले अवध के नवाबों ने ताज़िया बनाने की कला में सुधार किया और इसे शहादत का प्रतीक बना दिया। लखनऊ के ताज़िया को देश भर में कला का नमूना और एक जीवित परंपरा माना गया। ताज़िया बनाने की कला लखनऊ की संस्कृति में गहराई से निहित है और पीढ़ियों से चली आ रही है। इसे बनाने के लिए कारीगरों को जटिल कौशल और कलात्मक प्रतिभा की आवश्यकता होती है। ताज़िया निर्माताओं के लिए, ये पवित्र संरचनाएं केवल धार्मिक महत्व ही नहीं रखती हैं, बल्कि आय का एक स्रोत भी प्रदान करती हैं, जिससे मुहर्रम उनके लिए बहुत ही ख़ास अवसर बन जाता है।
लखनऊ में मुहर्रम के दिन एक चीज मुहर्रम की शोभायात्रा में विशेषतौर पर दिखाई देती है, वह है सफ़ेद रंग का चमकदार घोड़ा। यह घोड़ा वास्तव में ‘दुलदुल’ की प्रतिकृति होती है। माना जाता है कि दुलदुल,पैगंबर मुहम्मद से संबंधित उनका पसंदीदा सफेद खच्चर था।
मुहर्रम के दिन दुलदुल को सजाने की परंपरा हमारे शहर लखनऊ में भी काफी प्रचलित है, जिसमें शोक जुलूस में एक चमकदार सफेद घोड़े को शामिल किया जाता है। लखनऊ स्थित इमामबाड़े में दुलदुल की जीवित प्रतिकृति को चुना जाता है तथा इसे मुख्य रूप से केवल शोभायात्रा के उद्देश्य के लिए ही पाला जाता है। इस घोड़े की देख-रेख का भुगतान हुसैनाबाद और सम्बंधित ट्रस्ट द्वारा किया जाता है, जिसे 1838 में अवध के नवाब मुहम्मद अली शाह द्वारा स्थापित किया गया था।
7वीं मुहर्रम को युवा शहीद हजरत क़ासिम के सम्मान में मेहंदी जुलूस निकाला जाता है। 8वें मुहर्रम का जुलूस, आलम-ए-फतेह-ए-फुरात, हज़रत अब्बास की याद में मनाया जाता है, जो अपनी वफादारी और बहादुरी के लिए जाने जाते हैं। 10वें मुहर्रम को आयोजित जुलूस-ए-आशुरा सबसे महत्वपूर्ण अवसर होता है, जिस दिन इमाम हुसैन की शहादत पर शोक मनाया जाता है। नवाबी काल के दौरान, शिया और सुन्नी दोनों , उत्साह के साथ अज़ादारी प्रथाओं में भाग लेते थे। 1977 में उत्तर प्रदेश सरकार ने दंगों और हिंसा के कारण अज़ादारी से संबंधित जुलूसों पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि, विरोध, प्रदर्शन और शिया नेताओं के प्रयासों के बाद, सरकार द्वारा जनवरी 1998 में सीमित अज़ादारी जुलूसों की अनुमति दे दी गई थी। , हाल के वर्षों में, जिला प्रशासन ने जुलूसों की संख्या सीमित कर दी है, और अज़ादारी कार्यक्रमों के दौरान शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा उपाय किए गए हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/4szebfdw
https://tinyurl.com/27n5nnz8
https://tinyurl.com/yzbj5rav
https://tinyurl.com/2p87a6j9
https://tinyurl.com/jncc48u6
चित्र संदर्भ
1. दुलदुल को दर्शाता चित्रण (Youtube)
2. कर्बला को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. ताजिया जुलूस को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
4. ताजिया चित्रकला को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. लखनऊ में जुलूस के दौरान दुलदुल को दर्शाता चित्रण (Youtube)
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