अगर ज़ंगरोधी सुई का आविष्कार नहीं हुआ होता, तो कैसे संभव होती लखनऊ की चिकनकारी कढ़ाई ?

सभ्यताः 10000 ईसापूर्व से 2000 ईसापूर्व
30-05-2023 09:45 AM
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अगर ज़ंगरोधी सुई का आविष्कार नहीं हुआ होता, तो कैसे संभव होती लखनऊ की चिकनकारी कढ़ाई ?

ज़ंगरोधी इस्पात को कई वातावरणों यानि वायुमंडल तथा कार्बनिक और अकार्बनिक अम्लों से खराब नहीं होने की अपनी संक्षारक प्रतिरोधी क्षमता के लिए जाना जाता है। इस्पात की सतह पर बहुत पतली (लगभग 5 नैनोमीटर (Nanometer)) ऑक्साइड (Oxide) परत, इस्पात के उपकरणों को ज़ंग से बचाती हैं। हालांकि इस ऑक्साइड परत को निष्क्रिय परत के रूप में संदर्भित किया जाता है, क्योंकि यह संक्षारक वातावरण की उपस्थिति में सतह को विद्युत रासायनिक रूप से निष्क्रिय कर देती है। वहीं ज़ंगरोधी इस्पात में क्रोमियम (Chromium) मिलाने के कारण यह निष्क्रिय परत बनती है। निष्क्रिय परत बनने के लिए ज़ंगरोधी इस्पात में कम से कम 10.5% क्रोमियम होना चाहिए। जितना अधिक क्रोमियम मिश्रित किया जाता है, निष्क्रिय परत उतनी ही स्थिर होती जाती है, और बेहतर संक्षारण प्रतिरोध होता है। ज़ंगरोधी इस्पात में संक्षारक प्रतिरोध को बढ़ाने के लिए निकल (Nickel), मैंगनीज (Manganese) और मोलिब्डेनम (Molybdenum) जैसे अन्य तत्वों को जोड़ा जा सकता है। ज़ंगरोधी इस्पात का उपयोग आधुनिक युग में ही नहीं बल्कि प्राचीन काल से होता आ रहा है, जिसका प्रमाण हमें उत्तर प्रदेश के प्राचीन पौराणिक शहर, हस्तिनापुर पर हुए विभिन्न उत्खननों में कई पुरावशेष से मिलता है। इन तमाम पुरावशेषों में लोहे की प्राप्ति एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण खोज है। यहाँ पर पिघले हुए लोहे के टुकड़े, चित्रित धुषरमृद्भांड के उपरी सतह से मिले हैं। मिले हुए भंडारण को हस्तिनापुर के द्वितीय काल का अवशेष माना जाता है।हस्तिनापुर से 1940 के दशक की शुरुआत में 2400 साल पुरानी ज़ंग प्रतिरोधी सिकल-ब्लेड (Sickle-blade) पाई गई थी। सिकल-ब्लेड की खोज महत्वपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य है जो कृषि कार्यों में लोहे की प्रभावी भूमिका को प्रदर्शित करती है। 2300 से अधिक वर्षों तक दबे होने के बावजूद, ब्लेड काफी अच्छी स्थिति में पाई गई। जिसने इसके निर्माण तकनीक और संक्षारण व्यवहार को निर्धारित करने के लिए विशेषज्ञों को विवश कर दिया, और इस प्राचीन भारतीय लोहे के संक्षारण व्यवहार की जांच के लिए अनेक अध्ययन किये गए। विश्लेषण द्वारा संबंधित संस्कृति द्वारा प्रयोग की गई उत्पादन तकनीक के बारे में बहुमूल्य जानकारी का पता चला। सिकलब्लेड का विश्लेषण ऑप्टिकल माइक्रोस्कोपी (Optical microscopy), स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (Scanning electron microscopy) के साथ ऊर्जा फैलाव स्पेक्ट्रोस्कोपी (Spectroscopy), और एक्स-रे डिफ्रेक्टोमीटर (X-ray diffractometer) का उपयोग करके किया गया। विश्लेषण के परिणाम इस तथ्य की ओर ले जाते हैं कि सिकलब्लेड फेराइट (Ferrite), विडमैनस्टेटन (Widmanstatten) और पर्लाइट (Perlite) संरचनाओं से युक्त विषम सूक्ष्म संरचना को दर्शाता है, जो कि फुल्लिका भट्टी प्रक्रिया द्वारा उत्पादित प्राचीन भारतीय गढ़ा लोहे की विशेषता थी। वहीं इस ब्लेड में फॉस्फोरस (Phosphorous), अपेक्षाकृत उच्च मात्रा में पाई गई और ऐसा माना जा रहा है कि ये सिकलब्लेड के संक्षारण प्रतिरोध व्यवहार के लिए जिम्मेदार हो सकती है। क़ुतुब मीनार, दिल्ली के लोहे के स्तंभ सहित प्राचीन भारतीय लोहे पर किए गए अध्ययनों से भी उच्च फास्फोरस सामग्री (0.25% तक) की उपस्थिति का पता चला था। सिकलब्लेड के नमूने में फास्फोरस की मात्रा अधिक होने का एक संभावित कारण फास्फोरस युक्त अयस्क का उपयोग हो सकता है क्योंकि भारतीय लौह अयस्क P 2 O 5 में अपेक्षाकृत समृद्ध हैं। वहीं यदि हम आलमगीरपुर की बात करें तो यहाँ से भी जो लोहे के अवशेष प्राप्त हुए हैं वे भी चित्रित धूसर मृद्भांड भंडार से ही मिले हैं। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में तीर, भाला, कील, पिन आदि मिले हैं। आलमगीरपुर से मिले अवशेषों द्वीतीय काल से सम्बंधित माना गया है।
हाल के वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण और युगांतरकारी खोजों में से एक चित्रित धूसरचीनी मिट्टी के मृद्भांड की थी।चित्रित धूसर मृद्भांड उत्तर भारत में पश्चिमी गंगा के मैदान और घग्घर हाकरा घाटी की एक लौह युगीन संस्कृति से सम्बंधित मृद्भांड है, जो परंपरागत रूप से 1200 से 600-500 ईसा पूर्व की है, हालांकि नए प्रकाशनों ने 1500 से 700 ईसा पूर्व या 1300 से 500-300 ईसा पूर्व तक के समय का सुझाव दिया है। इस मृद्भांड परंपरा के साथ ही एक और परंपरा प्रफुल्लित हुई और उसको हम ”लाल और काली मिश्रित मृद्भांड परंपरा” के नाम से जानते हैं। यह परंपरा पूर्वी गंगा मैदान में पायी जाती है। अभी तक करीब 1100 से अधिक चित्रित धूसर मृद्भांड से सम्बंधित पुरास्थल खोजे जा चुके हैं। ये काले रंग के ज्यामितीय चित्रों द्वारा सजाये हुए भूरे रंग के मृद्भांड होते हैं। चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृति मध्य और उत्तर वैदिक काल से मेल खाती है जिसे की जनपद युग के पहले और सिन्धु घाटी सभ्यता के बाद वाले समय को माना जाता है।जबकि गेरू रंगीन मिट्टी के बर्तनों की संस्कृति आम तौर पर 2000-1500 ईसा पूर्व की है। राजस्थान के जोधपुर के पास पाए जाने वाले विशिष्ट मिट्टी के बर्तन के प्रारंभिक नमूने तीसरी सहस्राब्दी से हैं।यह संस्कृति दूसरी सहस्राब्दी की शुरुआत में गंगा के मैदान में पहुंच गई। हाल ही में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में खुदाई में तांबे की कुल्हाड़ियों और मिट्टी के बर्तनों के कुछ अवशेषों की खोज की।मिट्टी के बर्तनों में एक लाल पट्टी थी, लेकिन पुरातत्वविदों की उंगलियों पर यह एक गेरू रंग छोड़ रही थी, इसलिए इसका नामगेरू रंगीन मिट्टी पड़ा। इसे कभी-कभी काले रंग की पट्टियों और कटे हुए पैटर्न (Pattern) से सजाया जाता था। यह अक्सर तांबे के ढेर के साथ पाया जाता है, जो तांबे के हथियारों और अन्य कलाकृतियों जैसे मानववंशीय आंकड़ों के संयोजन हैं।

संदर्भ :-
https://bit.ly/3vkgAON
https://bit.ly/3f665sm
https://bit.ly/3oD2A00
https://bit.ly/3u0OV3O
https://bit.ly/3oAmGru

 चित्र संदर्भ
1. ज़ंगरोधी सुई को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. स्टेनलेस स्टील (नीचे की पंक्ति) एल्यूमीनियम-कांस्य (शीर्ष पंक्ति) या तांबा-निकल मिश्र धातु (मध्य पंक्ति) की तुलना में नमक-पानी के क्षरण को बेहतर ढंग से रोकता है। को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. स्टेनलेस स्टील का उपयोग औद्योगिक उपकरणों के लिए किया जाता है, को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
4. स्टेनलेस स्टील के लोटों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. धूसर मृद्भांड को दर्शाता चित्रण (wikimedia)

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