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लखनऊ को “नवाबों के शहर" का दर्जा दिलाने में न केवल यहां के शाही रहन-सहन का बल्कि यहां के स्वादिष्ट खान-पान का भी बेहद अहम योगदान रहा है। लजीज कबाब, बिरयानी, निहारी और स्वादिष्ट मिठाइयां इस शहर के इतिहास से गहराई से जुड़ी हुई हैं। सदियों से स्वादिष्ट भोजन शहर की आत्मा के साथ खूबसूरती से जुड़ा हुआ है,जिसकी कुछ लजीज झलकियां हमें इतिहास में गोता लगाने पर मिल जाती हैं।
प्राचीन समय में अवध के नवाबों के शासन काल के दौरान पाक कला अर्थात खाना पकाने की कला को बढ़ावा मिला। अपने दौर में इन शासकों ने खाना पकाने की तकनीक में सुधार किये और नए व्यंजनों के निर्माण को भी प्रोत्साहित किया। इसी क्रम में अवध के प्रसिद्ध नवाबों में से एक, हुसैन अली खान (Hussain Ali Khan) की मेज पर भी कई प्रकार के व्यंजन परोसे जाते थे, लेकिन इन सभी में वह पुलाव के सबसे बड़े शौकीन थे । इसी कारण उन्हें “नवाब हुसैन अली खान चावल वाले" का उपनाम भी दिया गया ।
कई प्रसिद्ध व्यंजन और विभिन्न प्रकार की रोटियां जैसे बाकरखानी और शीरमाल आदि भी नवाबों की रसोई से ही उत्पन्न हुए थे। ऐसा कहा जाता है कि अवध के तीसरे राजा मोहम्मद अली शाह के पुत्र राजकुमार अजीम-उश-शान द्वारा अपने ससुर के सम्मान में एक यादगार दावत का आयोजन किया गया था, जहाँ चावल से 70 प्रकार के नमकीन और मीठे व्यंजन बनाए गए थे, जिसमें अनार पुलाव और नौ अलग-अलग रंगों वाला चावल का व्यंजन ‘नवरतन पुलाव’ भी शामिल थे।
इस दावत में नवाब वाजिद अली शाह भी अतिथि थे। नवाब वाजिद अली शाह के समय में शेख हैदर बख्श और शेख फरहतुल्लाह को सबसे प्रसिद्ध रसोइयों में गिना जाता था । हैदर बख्श को 360 प्रकार की रोटियां बनाने के लिए जाना जाता था, जिसमें हाथी के कान नामक नरम रोटी भी शामिल थी, जबकि दूसरे रसोइये फरहतुल्लाह अपनी स्वादिष्ट लुकमी के लिए प्रसिद्ध थे। लखनऊ के अतीकुल्लाह के इमामबाड़े से सटे मोहल्ले नबेहरा में एक दुकान, “मिर्जा कबाबिया" अपने कबाब के लिए प्रसिद्ध थी, जिसके बारे में कहा जाता था कि यह शाही रसोई में बने कबाब से बेहतर होता था। इस दुकान में दिन में पांच सेर (करीब 4 किलो) मटन या गोष्ट का कीमा तैयार किया जाता था और शाम को उनके कबाब (Kebab) बेचे जाते थे।
दुर्भाग्य से, प्रामाणिक रूप से लखनऊ के व्यंजनों पर आधारित कोई निश्चित पाक कला पुस्तक (Cookbook) मौजूद नहीं हैं। हालांकि, कुछ पुरानी किताबें जरूर मौजूद हैं, लेकिन उनमें व्यंजनों के माप और निर्देश अक्सर भ्रमित कर देते हैं। व्यंजन बनाते समय, निर्देशों को समायोजित करने के लिए अपने सामान्य ज्ञान का उपयोग करना होता है और अंतिम उत्पाद के रंग और स्वाद को निर्धारित करने के लिए अपनी इंद्रियों का उपयोग करना जरूरी होता है। स्वाद और सुगंध को एक स्वादिष्ट व्यंजन की कुंजी समझा जाता है, जहां सामग्री की पहचान सूंघने से ही हो जाती है लेकिन पूरे पकवान का अनुमान लगाना मुश्किल होता है।
मिर्जा जाफर हुसैन (1899-1989) लखनवी व्यंजनों के एक उम्दा पारखी थे और लखनऊ में खाद्य संस्कृति के बारे में एक किताब “लखनऊ का दस्तरख्वान" के लेखक थे। वह एक शानदार शौकिया रसोइया थे और उन्हें पारंपरिक दावतों और लखनवी संस्कृति की सांझ का समृद्ध अनुभव था।
इस पुस्तक में जाफ़र हुसैन ने दर्ज किया कि पहले, जब आम लोग भोजन खरीदने के लिए पर्याप्त धन कमा लेते थे तभी खाना खाते थे,, तब उनके भोजन का कोई निश्चित समय नहीं था। हालांकि, धनी वर्ग के लोगों ने भोजन का समय निर्धारित किया हुआ था, यद्यपि वे पूरी तरह से इसके पाबंद नहीं थे । भोजन के दौरान, दस्तरख्वान (कपड़े या चमड़े का एक टुकड़ा), जमीन पर फैलाया जाता था, जिसके ऊपर बर्तन रखे जाते थे, फिर लोग उसके चारों ओर फर्श पर बैठ जाते थे और चबाते समय कोई शोर किए बिना अपने हाथों से खाते थे।
जाफर हुसैन के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति के पास भोजन के अलग-अलग कटोरे होते थे, लेकिन थाली में गर्म पुलाव या मुतंजन जैसे विशेष व्यंजन रखे जाते थे। प्रत्येक परिवार का अपना अनूठा व्यंजन होता था। मिट्टी के तंदूर में लकड़ी के कोयले से तंदूरी रोटियां सेकी जाती थीं। 1947 में विभाजन के बाद, अब पाकिस्तान में स्थित उत्तर-पश्चिम सीमांत (North West Frontier Province) से प्रवासियों के भारत आने के बाद, तंदूरी मुर्गा और रान (Tandoori Chicken and Mutton Leg) को तंदूर में पकाने की अवधारणा का आविष्कार किया गया था। संपन्न घरों में, रसोई के प्रबंधन का बहुत महत्व था । रसोई का प्रबंधन रसोइयों की एक टीम के साथ, दरोगा-ए-बावर्चीखाना द्वारा किया जाता था। साथ ही इन घरों में विशेष अवसरों पर अनुबंध पर रसोइए बुलाए भी जाते थे, और आपको जानकर हैरानी होगी कि लखनऊ के कुछ क्षेत्र अपने पेशेवर रसोइयों के लिए ही जाने जाते थे, जैसे चौक, हुसैनाबाद और डालीगंज ।
इसी दौरान उभरी इंडो-इस्लामिक संस्कृति, खासकर लखनऊ और दिल्ली में, अपने आतिथ्य के लिए जानी जाती है। भारत में धर्म, लिंग या उम्र की परवाह किए बिना भोजन की पेशकश करना और मेहमानों को भोजन के लिए आमंत्रित करना, प्राचीन काल से ही जीवन जीने की कला और परंपरा रही है। आतिथ्य सत्कार को प्रसन्नता और खुशी के संकेत के रूप में देखा जाता है, और यहां तक कि सीमित साधनों वाले लोग भी अपनी क्षमताओं के भीतर सर्वोत्तम भोजन प्रदान करते हैं। पश्चिमी आतिथ्य को अक्सर औपचारिक और अर्थपूर्ण रूप में देखा जाता है, जबकि भारत में आतिथ्य ईमानदार और वास्तविक माना जाता है। “लखनऊ का दस्तरख्वान" हमारे शहर की खाद्य संस्कृति पर जानकारी का एक महत्वपूर्ण स्रोत है और भारत-इस्लामी संस्कृति में आतिथ्य और मेहमानों के महत्व पर प्रकाश डालता है।
संदर्भ
पुस्तक ‘लखनऊ का दस्तरख्वान’
चित्र संदर्भ
1. “लखनऊ का दस्तरख्वान" पुस्तक को संदर्भित करता एक चित्रण (amazon)
2. अमीर-उल-उमरा सैय्यद हुसैन अली खान को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. नवाब वाजिद अली शाह को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. “लखनऊ का दस्तरख्वान" पुस्तक के मुख्य पृष्ठ को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. कशगरनान को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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