जीवन रक्षक दवाओं को आम आदमी की पहुंच में लाना क्यों है आवश्यक; इस मामले में क्या कर रही है सरकार?

विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
01-02-2023 11:52 AM
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जीवन रक्षक दवाओं को आम आदमी की पहुंच में  लाना क्यों है आवश्यक; इस मामले में क्या कर रही है सरकार?

‘राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण’ (National Pharmaceutical Pricing Authority) ने दर्द निवारक दवाओं और कैंसर, गठिया, हृदय रोग, जीवाणु संक्रमण, फेफड़ों की सूजन, क्षय रोग, थायरॉयड (Thyroid), मिर्गी आदि के इलाज के लिए उपयोग की जाने वाली दवाओं सहित 93 आवश्यक दवाओं की अधिकतम कीमत तय कर दी है। सरकार के इस कदम से दवाएं सस्ती होने की संभावना है। इसके साथ यह प्रावधान भी किया गया है कि अनुपालन करने में विफल रहने वाले निर्माताओं को सरकार के पास अधिक शुल्क जमा करना होगा। दवा निर्माताओं को अनिवार्य रूप से ‘इंटीग्रेटेड फार्मास्युटिकल डेटाबेस मैनेजमेंट सिस्टम’ (Integrated Pharmaceutical Database Management System (IPDMS) के माध्यम से दवा नियामक को दवाओं की मूल्य सूची जारी करने और राज्य दवा नियंत्रक और डीलरों को एक प्रति जमा करने के लिए कहा जाता है।
उदाहरण के लिए, हृदय के स्वास्थ्य के लिए उपयोग की जाने वाली 0.25 मिलीग्राम डिगॉक्सिन (Digoxin) दवा की कीमत 7.14 रुपये प्रति गोली (Tablet) तय की गई है, और तपेदिक के इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाली 1000 मिलीग्राम पायरैजीनैमाइड (Pyrazinamide) दवा की कीमत 9.39 रुपये प्रति गोली रखी गई है। इसी तरह, कैंसर के इलाज के लिए 20 मिलीग्राम डोसिटेक्सल (Docetaxel) दवा की एक शीशी की अधिकतम कीमत 2,558.14 रुपये रखी गई है, जो पहले 5,000 रुपये प्रति शीशी से अधिक हुआ करती थी। अधिकतम कीमत से कम खुदरा मूल्य वाले दवा निर्माता पुराने अधिकतम मूल्य को जारी रख सकेंगे । इसके अतिरिक्त, प्रत्येक खुदरा विक्रेता और व्यापारी को अपने व्यापार स्थल पर मूल्य सूची को इस तरह से प्रदर्शित करना आवश्यक है जिससे यह सभी के लिए भी आसानी से उपलब्ध हो सके। पिछले वर्ष नवंबर में, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा 384 महत्वपूर्ण जीवनरक्षक दवाओं को अधिसूचित किया गया और उन्हें मूल्य नियंत्रण के तहत लाया गया ।
साथ ही सरकारी और निजी सभी अस्पतालों के लिए इन दवाओं का भारी मात्रा में भंडार रखना आवश्यक बनाया गया है। महामारी की शुरुआत के बाद से, प्राधिकरण द्वारा सस्ती कीमतों पर आवश्यक दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए कई उपाय किए गए हैं और कई चिकित्सा उपकरणों को मूल्य नियंत्रण के तहत लाया गया है। इस महीने की शुरुआत में, अन्य देशों में बढ़ते कोविड मामलों को देखते हुए, ‘राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण’ द्वारा पांच चिकित्सा उपकरणों, पल्स ऑक्सीमीटर (Pulse Oximeter), ब्लड प्रेशर मॉनिटरिंग मशीन (Blood Pressure Monitoring Machine), नेबुलाइज़र (Nebulizer), डिजिटल थर्मामीटर (Digital Thermometer) और ग्लूकोमीटर (Glucometer) के व्यापार लाभ की सीमा को तय करने की समय सीमा 31 मार्च तक बढ़ा दी है । ये चिकित्सा उपकरण कोविड-19 के उपचार के लिए उपयोग किए जाने वाले आवश्यक चिकित्सा उपकरण हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में भयावह बीमारियों की उपचार लागत ने जीवित रहने की दर को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। स्तन कैंसर के मामलों में, भारत और दक्षिण अफ्रीका (Africa) में महंगी उपचार लागत के कारण पांच साल तक जीवित रहने की दर क्रमशः 65% और 45% होने का अनुमान है। इसके विपरीत, उच्च आय वाले देशों में यह लगभग 90% है। इस निराशाजनक स्थिति के संबंध में, कैंसर की दवाओं के मूल्य निर्धारण और इसके प्रभावों पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization (WHO) की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि शुरुआती चरण के सकारात्मक स्तन कैंसर के लिए मानक उपचार के इलाज की लागत, भारत और दक्षिण अफ्रीका में लगभग 10 वर्षों की औसत वार्षिक मजदूरी और संयुक्त राज्य अमेरिका में 1.7 वर्षों की औसत वार्षिक मजदूरी के बराबर है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, अन्य चिकित्सा देखभाल और व्यवधान (जैसे शल्य चिकित्सा और रेडियोथेरेपी (Radiotherapy)) और सहायक देखभाल से जुड़ी लागत समग्र देखभाल लागत को और भी अधिक पहुंच से बाहर बना देती है । स्तन कैंसर के उपचार के लिए नियत दवाओं की एक महीने की लागत लगभग ₹48,000 रुपए से ₹95,000 रुपए के बीच हो सकती है और रोगी को जीवन भर इन दवाओं को लेना होता है । इन महत्वपूर्ण दवाओं तक पहुंच की कमी ने न केवल रोगियों और उनके परिवारों के जीवन को गहरे वित्तीय तनाव में धकेल देती है, बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्याभूत मौलिक अधिकार के साथ जीने के उनके अधिकार को भी खतरे में डाल देती है। स्तन कैंसर की दवाओं की अत्यधिक लागत को दो संबंधित कारकों की परस्पर क्रिया द्वारा समझाया गया है। पहला, बड़ी दवा कंपनियों द्वारा तर्क दिया जाता है - कि वे बाजार में एक नया अणु लाने के लिए 3 बिलियन डॉलर (लगभग 300 करोड़) से अधिक खर्च करते हैं, जिसे नवाचार के लिए बाजार में बने रहने के लिए उन्हें पुनः अनुसंधान करने की आवश्यकता होती है। लेकिन , विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अनुसंधान और विकास पर खर्च का, दवा कंपनियों द्वारा कैंसर की दवा की कीमतों को निर्धारित करने के तरीके से बहुत कम या कोई संबंध नहीं होता है। कंपनियाँ मुनाफ़े को अधिकतम करने के लिए अधिकतम कीमतें निर्धारित करती हैं, इस प्रकार रोगियों को चिकित्सा सुविधाओं का लाभ उठाने से वंचित करती हैं। दूसरा कारक जो कंपनियों को उनके उच्च लाभ को बनाए रखने की अनुमति देता है, वह बौद्धिक संपदा संरक्षण है।
पिछले तीन दशकों में, फार्मा कंपनियों ने अपनी सरकारों को उन अधिकारों को मजबूत करने के लिए सफलतापूर्वक राजी किया है जो वे पेटेंट (Patent – अधिकार पत्र) और अन्य प्रकार के बौद्धिक संपदा अधिकारों से प्राप्त करते हैं, जिसके द्वारा वे अपने उत्पादों पर एकाधिकार नियंत्रण का प्रयोग कर सकते हैं। आमतौर पर, एक दवा पर पेटेंट अधिकार उसके पेटेंट अवधि की समाप्ति तक रहता है, जिसके बाद सामान्य प्रतिस्पर्धा से इसकी कीमत में कमी आती है। हालांकि, कैंसर सहित कई गैर-संचारी रोगों के मामले में स्थिति काफी भिन्न हो सकती थी। इसके अतिरिक्त, फार्मास्युटिकल पेटेंट (Pharmaceutical patent) के मामले में, स्वास्थ्य उद्योग में अग्रणी कंपनियां अक्सर पुरानी दवाओं से जुड़े वृद्धिशील नवाचारों पर पेटेंट प्राप्त कर लेती हैं, इस प्रकार दवाओं पर उनके एकाधिकार का विस्तार होता जाता है। भारत में, हालांकि, स्तन कैंसर की दवाएं वर्तमान में पेटेंट संरक्षण के अधीन हैं, जिसका अर्थ है कि भारतीय कंपनियां अधिकार धारकों की सहमति के बिना इन दवाओं का निर्माण नहीं कर सकती हैं। पल्बोसिक्लिब (Palbociclib) पर फाइजर (Pfizer) के पेटेंट अधिकार 2023 में समाप्त हो जाएंगे, जबकि रिबोसिक्लिब (Ribociclib) पर नोवार्टिस (Novartis) के अधिकार और एबेमासिक्लिब पर एली लिली के अधिकार क्रमशः 2027 और 2029 के बीच समाप्त हो जाएंगे। इसलिए, इन दवाओं पर उच्च कीमतें कम से कम 2029 तक जारी रहेंगी, और संभवत: इससे भी आगे, अगर इन दवाओं को लोकप्रिय किया जाता है।इन महत्वपूर्ण दवाओं तक पहुंच की कमी ने न केवल रोगियों और उनके परिवारों के जीवन को गहरे वित्तीय तनाव में धकेल दिया है, बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्याभूत मौलिक अधिकार के साथ जीने के उनके अधिकार को भी खतरे में डाल दिया है। भारत में दवा दोस्त कंपनी जैसी कई औषधालय श्रृंखलाओं द्वारा कई निर्धारित दवाओं के सस्ते विकल्पों का सुझाव देकर, उपभोक्ताओं को अधिक सस्ती दवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं।
दवा दोस्त, औषधालय श्रृंखला, ने 2018 में भारतीयों के लिए दवाओं को सस्ता बनाने के उद्देश्य के साथ काम करना शुरू किया। उनके द्वारा बताया गया है कि दवा कंपनियों के पास आमतौर पर बिक्री प्रतिनिधियों की एक फौज होती है, जो यह सुनिश्चित करती है कि उनके ब्रांड की दवाएं अधिकतम चिकित्सकों द्वारा निर्धारित की जाएं । चूंकि कंपनियां स्वयं अपनी दवाओं की मांग उत्पन्न करती हैं, इसलिए वे अधिकांश मुनाफा लेती हैं और खुदरा विक्रेताओं, थोक विक्रेताओं और वितरकों के साथ सीमित प्रतिशत साझा करती हैं। साथ ही एक ही फार्मा कंपनी के एक अलग व्यावसायिक प्रभाग द्वारा एक ही मूल ब्रांड के तहत सामान्य दवाओं (Generic Medicines) का उत्पादन किया जाता है, किंतु कंपनी के प्रतिनिधियों द्वारा अतिरिक्त लाभ के कारण इन को आगे नहीं बढ़ाया जाता है। दवा दोस्त का उद्देश्य सभी दवाओं पर न्यूनतम 50 प्रतिशत बचत प्रदान कर यह सुनिश्चित करना है कि लोगों के पास दवाओं तक समान पहुंच हो। जब उपभोक्ता दवा दोस्त की वेबसाइट या किसी स्टोर पर किसी दवा के बारे में पूछताछ करते हैं, तो वे उन्हें जेनेरिक दवाओं का एक विकल्प भी प्रदान करते हैं जिसे डॉक्टरों की एक टीम द्वारा जांचा और सुझाया जाता है।

संदर्भ :-
https://bit.ly/3XAL1yc
https://bit.ly/3woymSW
https://bit.ly/3wp7e6v

चित्र संदर्भ
1. अस्पताल में इलाज कराती महिला को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
2. एक मेडिकल स्टोर को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
3. मेडिकल स्टोर में भीड़ को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4  रेडियोथेरेपी को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
5. फाइजर (Pfizer) को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
6.सामान्य दवाओं (Generic Medicines) को संदर्भित करता एक चित्रण ( The Indian Practitioner)

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