स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने क्यों कहा था, "वेदों की ओर लौटो"

विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
28-01-2023 10:31 AM
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स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने क्यों कहा था, "वेदों की ओर लौटो"

स्वामी दयानंद सरस्वती (1824-1883), एक महान शिक्षाविद्, समाज सुधारक और सांस्कृतिक राष्ट्रवादी थे। दयानंद सरस्वती जी का सबसे बड़ा योगदान शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में क्रान्ति लाने वाले आर्य समाज की नीव रखना था । स्वामी दयानंद सरस्वती जी भारत के सबसे महत्वपूर्ण सुधारकों और आध्यात्मिक शक्तियों में से एक हैं । दयानंद जी का प्रभावशाली व्यक्तित्व आर्य समाज आंदोलन के पौरुष और लगभग इसके प्रत्येक अनुयायी में असाधारण रूप से प्रतिबिंबित होता है। वे एक धार्मिक नेता से कहीं बढ़कर थे। हिंदू सुधार संगठन आर्य समाज के संस्थापक के रूप में, उन्होंने भारतीय समाज और धर्म की अवधारणा पर गहरा प्रभाव छोड़ा । स्वामी दयानंद ने 7 अप्रैल, 1875 को बंबई (वर्तमान मुंबई) में 10 सिद्धांतों के साथ आर्य समाज की स्थापना की, जो विशुद्ध रूप से ईश्वर, आत्मा और प्रकृति पर आधारित हैं । आर्य समाज ने अलग-अलग धर्मों और समुदायों की कई ऐसी कुप्रथाओं की निंदा की, जिनमें मूर्ति पूजा, पशु बलि, तीर्थयात्रा, , मंदिरों में चढ़ावा, जाति, बाल विवाह, मांस खाने और महिलाओं के खिलाफ भेदभाव जैसी प्रथाएं शामिल हैं । उन्होंने तर्क दिया कि ये सभी प्रथाएं सही समझ और वेदों के ज्ञान के विपरीत हैं । आर्य समाज संगठन ने अपनी धारणाओं एवं मान्यताओं से भारतीयों की धार्मिक धारणाओं में भारी बदलाव लाये । इस समुदाय की स्थापना करके, उन्होंने इस विचार को स्थापित किया कि सभी कार्यों को मानव जाति को लाभ पहुंचाने के मुख्य उद्देश्य के साथ किया जाना चाहिए । दयानंद अस्पृश्यता के घोर विरोधी थे। अस्पृश्यता के विरोध में उन्होंने लिखा "अस्पृश्यता हमारे समाज का एक भयानक अभिशाप है। प्रत्येक जीव में एक आत्मा होती है जो स्नेह की पात्र होती है, प्रत्येक मनुष्य में एक आत्मा होती है जो सम्मान के योग्य होती है। जो कोई भी इस मूल सिद्धांत को नहीं जानता है वह वैदिक धर्म के सही अर्थ को नहीं समझ सकता है।”
आर्य समाज के 10 प्रमुख सिद्धांत निम्न प्रकार हैं:
• ईश्‍वर वास्‍तविक ज्ञान और ज्ञान से जागृत कौशल का कारण है।
• ईश्वर सर्वव्यापी , बुद्धिमान और आनंदमय है । वह निराकार, सर्वज्ञ, न्यायप्रिय, दयालु, अजन्मा, अनंत, अपरिवर्तनीय, अनादि, अप्रतिम, सबका आधार, सबका स्वामी, सर्वव्यापक, आसन्न, अनादि, अमर, निर्भय, सबको बनाने वाला, शाश्वत और पवित्र है । वही पूजा के योग्य है। • वेद सभी प्रकार के वास्‍तविक ज्ञान के शास्त्र हैं। उन्हें पढ़ना, पढ़ाना, सुनाना और पढ़ा हुआ सुनना सभी आर्यों का परम कर्तव्य है।
• सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
• सभी कार्यों को धर्म के अनुसार किया जाना चाहिए, अर्थात सही और गलत क्या है, इस पर विचार करने के बाद ही कार्यों को किया जाना चाहिए ।
• आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य विश्व में विद्यमान सभी जीवो का भौतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक कल्याण करना है।
• सभी के प्रति हमारा आचरण प्रेम, धर्म और न्याय द्वारा निर्देशित होना चाहिए।
• हमें अविद्या (अज्ञानता) को दूर करना चाहिए और विद्या (ज्ञान) को बढ़ावा देना चाहिए।
• किसी को भी केवल अपनी भलाई को बढ़ावा देने से ही संतुष्ट नहीं होना चाहिए; इसके विपरीत, सभी की भलाई को बढ़ावा देने में अपनी भलाई की तलाश करनी चाहिए।
• सभी के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए समाज के नियमों का पालन करने के लिए स्वयं को प्रतिबंधित मानना चाहिए, जबकि व्यक्तिगत कल्याण के नियमों का पालन करने में सभी को स्वतंत्र होना चाहिए। दयानंद जी को पूरा विश्वास था कि जब तक शिक्षा का प्रसार नहीं होगा तब तक राष्ट्र समृद्ध नहीं हो सकता। लेकिन उनके अनुसार हमारी शिक्षा प्रणाली पश्चिमी शिक्षा की हूबहू नकलमात्र भी नहीं होनी चाहिए। उनका मानना था कि आठ साल के बच्‍चों को माता पिता द्वारा विद्यालय भेजे जाने के लिए एक कानून होना चाहिए । हर लड़के और लड़की को गुरुकुलों में भेजा जाना चाहिए जहां वे अपने गुरुओं के पास रहे । लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग गुरुकुल होने चाहिए । गुरुकुल में राजा का बेटा और किसान का बेटा बराबर होना चाहिए । उन सभी से समान रूप से काम करवाया जाना चाहिए । गुरुकुल शहर से दूर शांति के माहौल में होने चाहिए । हमारी संस्कृति और वेद जैसी महान पुस्तकों से हमारे छात्रों को परिचित कराया जाना चाहिए । गणित, भूविज्ञान, खगोल विज्ञान और अन्य विज्ञान जो आधुनिक जीवन में महत्वपूर्ण हैं, उन्हें भी साथ-साथ पढ़ाया जाना चाहिए । स्वामी दयानंद ने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न स्थानों पर गुरुकुलों की स्थापना की । उनमें से कांगड़ी आज भी प्रसिद्ध है।
शिक्षा के क्षेत्र में आर्य समाज का योगदान सराहनीय है। उनके द्वारा भारत के उत्तरी और पूर्वी हिस्सों में शिक्षा संस्थानों की स्थापना, विशेष रूप सेहरिद्वार में ‘गुरुकुल अकादमी’ का गठन हिंदू शिक्षा के प्राचीन आदर्श और परंपराओं को पुनर्जीवित करने का एक अच्‍छा उदाहरण है । शिक्षा के अतिरिक्त आर्य समाज आंदोलन के सदस्य देश की अन्य लोक सेवाओं में भी सबसे आगे हैं । स्वामी दयानंद का योगदान और महत्व देश में तब तक जीवित रहेगा जब तक आर्य समाज मौजूद है और धार्मिक और सामाजिक सुधारों की अपनी गतिविधियों को जारी रखता है। स्वामी दयानंद राजनीति में एक आदर्शवादी थे और उन्हें वेदों के अध्ययन से प्रेरणा मिली ।
स्वामी दयानन्द एकात्‍मक शासन के विरुद्ध थे। अपने सत्यार्थ प्रकाश में वे कहते हैं कि “पूर्ण शक्ति एक व्यक्ति को नहीं सौंपी जानी चाहिए। एक निरंकुश राजा कभी भी दूसरों को अपने बराबर नहीं होने देता। एक निरंकुश राजा अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए तत्‍पर होता है।” स्वामी दयानंद ने राज्य की एकता का प्रतिनिधित्व करने के लिए राष्ट्रपति की भूमिका को स्वीकार किया है। उनका मानना था कि लोगों पर शासन करने का अधिकार लोगों द्वारा स्वयं प्रदान किया जाना चाहिए, आज के लोकतंत्र की नींव है । स्वामी दयानंद कहते हैं, "तीनों विधानसभाओं को एक साथ मिलकर काम करने दें, और अच्छे कानून बनाएं, और सभी को उन कानूनों का पालन करना चाहिए ।” स्‍वामी दयानंद शैक्षिक और धार्मिक निकायों को स्वायत्तता प्रदान करते हैं। हालांकि वे सीधे तौर पर राजनीति में शामिल नहीं थे, लेकिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी राजनीतिक टिप्पणियां कई राजनीतिक नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत थीं। उदाहरण के लिए, वह 1876 में 'भारतीयों के लिए भारत' के रूप में 'स्वराज्य' का आह्वान करने वाले पहले व्यक्ति थे, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने अपनाया। अपनी सबसे प्रभावशाली रचनाओं में से एक पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में व्यक्त विचारों के द्वारा उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान दिया। वास्तव में स्वामी दयानंद के प्रयासों ने लोगों को पाश्चात्य शिक्षा के चंगुल से मुक्त कराया।
दयानंद सरस्वती जी ने लोकतंत्र और राष्ट्रीय जागृति के विकास में भी योगदान दिया। ऐसा कहा जाता है कि “राजनीतिक स्वतंत्रता का विचार दयानंद जी के पहले उद्देश्यों में से एक था। वास्तव में वह स्वराज शब्द का प्रयोग करने वाले पहले व्यक्ति थे। ” वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे केवल भारत में निर्मित स्वदेशी चीजों का उपयोग करें और विदेशी चीजों को त्याग दें। वह हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता देने वाले पहले व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती जी लोकतंत्र और स्वशासन के प्रबल पक्षधर थे। शिक्षा के माध्यम से हिंदू समाज के पूर्ण परिवर्तन की उनकी दृष्टि के साथ उन्होंने भविष्य के विकास का उद्घाटन किया।

संदर्भ:

https://bit.ly/3kitjRd
5https://bit.ly/3Xd7K3h
https://bit.ly/2P37Lb7

चित्र संदर्भ

1. वेदों से संबंधित दयानंद सरस्वती के विचारों को संदर्भित करता एक चित्रण (prarang)
2. आर्य समाज को समर्पित 2000 का डाक टिकट को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. वेदों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को संदर्भित करता एक चित्रण (amazon)

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