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कपड़े पहनना अधिकांश मानव समाजों में एक विशेष मानवीय विशेषता है। कई समाजों में, वस्त्र सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति, जैसे कि व्यक्तिगत, व्यावसायिक, धर्म, और लिंग आदि के मानकों को दर्शाते हैं । वस्त्र अलंकरण और व्यक्तिगत शैली की अभिव्यक्ति के रूप में भी कार्य करते हैं। पूर्व-वैदिक काल से ही भारत में कपड़े पहनने का इतिहास अद्वितीय रहा है। दिलचस्प बात यह है कि वैदिक भारत में शरीर को मानव व्यक्तित्व का अभिन्न अंग माना जाता था। इसलिए शरीर के अंगों के प्रदर्शन पर कोई कलंक नहीं लगा था। पूर्व-वैदिक काल के दौरान भारत में बिना सिले कपड़े पहने जाते थे, जिन्हें शरीर पर शैलीबद्ध तरीकों से लपेटा जाता था। एक संस्कृति के रूप में भी, भारत परंपरागत रूप से रूप की तरलता में विश्वास करता रहा है, जो लपेटे हुए कपड़ों के साथ अच्छी तरह मेल खाता है।
समय के साथ भारत में मध्य एशिया के प्रभाव से सिले हुए कपड़ों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। इसी कड़ी में हम आपको ऐसे परिधानों ‘अंगरखा’ और ‘जामा’ के बारे में बताने जा रहे हैं जो आज भी पारंपरिक वस्त्र के रूप में भारतीयों के बीच में अत्यंत लोकप्रिय है।1800 के दशक में भारतीय पहनावे के साथ इसे शानदार ढंग से जोड़ा गया था जिससे यह अन्य किसी पहनावे की तुलना में अधिक सौंदर्य की ओर अग्रसर हुए।
अंगरखा :
अंगरखा शब्द संस्कृत शब्द अंगरक्षक या ‘शरीर की सुरक्षा’ से निकला है। जामा के विपरीत, मूर्तिकला और कला के साक्ष्य बताते हैं कि यह पोशाक इस्लामिक शैली से बहुत पहले से ही भारत में मौजूद थी। यह वर्तमान समय में भी भारत में लोकप्रिय बना हुआ है, हालांकि इसकी लंबाई और कट में क्षेत्रीय अंतर देखने को मिलते हैं। अंगरखा पुरूषों एवं महिलाओं के द्वारा पहना जाने वाला एक ऊपरी वस्त्र है, लेकिन इतिहास में इसे पुरुषों द्वारा पजामे के ऊपर पहना जाता था। सामने से इस वस्त्र के एक हिस्से को दूसरे हिस्से के ऊपर लपेटा जाता है। पूरे परिधान को शरीर के चारों ओर लपेटा जाता है और गांठों या बटनों से बांधा जाता है जिन्हें गुंधी कहा जाता है। इसके सामने के आवरण ने घुड़सवार सेना की पोशाक में एक ढाल के रूप में कार्य किया। 1800 के दशक से ही, अंगरखा पूरे भारत में और विशेष रूप से पश्चिम भारत में, दरबार के वस्त्र के रूप में तेजी से लोकप्रिय हो गया। अंगरखा एक प्रकार का अंगरखी वस्त्र था। हालांकि, यह महिलाओं द्वारा पहने जाने वाला परिधान नहीं था। मुगलों के शासन के बाद इस को लिंग के हिसाब से विभाजित कर दिया गया था। संभवत: यह एक छोटा परिधान था जिसकी लंबाई कमर से थोड़ा नीचे तक थी । छोटे अंगरखे की उत्पत्ति कहां से हुयी यह सभी के लिए अज्ञात है, किंतु राजस्थान में आज भी निचले वर्ग के पुरूषों द्वारा इसका उपयोग किया जाता है ।
भारत में, अमीर और गरीब लोगों द्वारा समान वस्त्र पहने जाते थे, जिसमें मूल वस्त्र औरअलंकरण के आधार पर व्यक्तियों में अंतर किया जाता था।
अंगरखा औपचारिक रूप से या दैनिक रूप से भी पहना जा सकता है। अंगरखा विभिन्न कपड़ों जैसे ब्रोकेड (brocade), रेशम, मखमल, या मलमल और जामदानी में बनाया जाता था। यह कढ़ाई, विशेष रूप से चिकनकारी और जरदोजी, के साथ सादा या अत्यधिक अलंकृत हो सकता है, ।1800 के दशक से, अंगरखा पूरे भारत में और विशेष रूप से पश्चिम भारत में दरबार में पहने जाने वाले वस्त्र के रूप में तेजी से लोकप्रिय हो गया। क्षेत्रीय भिन्नताओं के साथ अंगरखा के कई संस्करण भी हैं।
जामा:
16वीं शताब्दी की शुरुआत में जामा ने फारस से भारत की यात्रा की । यह मुगल शासन के तहत दरबार में पहनने के लिए उपयुक्त एक औपचारिक परिधान के रूप में फला-फूला और दक्षिण राज्यों में भी लोकप्रिय हुआ। मुगल दरबार का दौरा करने वाले राल्फ फिच (Ralph Fitch) ने अपने वर्णन में राजा को एक सफेद शर्ट जैसे वस्त्र जो कि एक तरफ से एक डोरी से बंधा हुआ है, पहने हुए दर्शाया है। चैपलिन टेरी (Chaplain Terry ) के अनुसार मुगल भारत में यह परिधान काफी लोकप्रिय था। जामा अंगरखा की तुलना में बहुत लंबा था, और जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया, एक उपयुक्त चोली और चमकदार निचले आधे हिस्से के साथ लगभग फर्श तक की लंबाई वाला हो गया। यह हमेशा पूरी बाजू का होता था और कांख के नीचे बंधा होता था । दिलचस्प बात यह है कि मुसलमानों और हिंदुओं ने खुद को एक दूसरे से अलग करने के लिए जामा को अलग-अलग दिशाओं में बांधा, हिंदू द्वारा दाईं ओर और मुसलमानों द्वारा बाईं ओर। जामा को मुगल दरबार की महिलाओं द्वारा भी अपनाया गया था, जिन्होंने इसे पजामा के ऊपर एक ओढ़नी के साथ पहना था।
सामान्य तौर पर, जामा को एक ऐसे परिधान के रूप में जाना जाता है, जिसका वक्ष भाग शरीर के चारों ओर कसकर बंधा रहता है; कमर का हिस्सा थोड़ा ऊंचा होता है; लंबाई कम से कम घुटने तक आती है, और यह काफी घेरदार होता है। । जामा एक खुला वस्त्र था जिसे शरीर पर लपेटकर बांधा जाता था, इसका एक हिस्सा अंदर की ओर तथा दूसरा हिस्सा उसके ऊपर से लपेटा जाता था और उसे एक डोरी से बांध दिया जाता था। जामा औपचारिक रूप से पहनने के लिए एक बाहरी वस्त्र है: मुगल और राजपूत चित्रों में इसे बगल के ठीक नीचे, या तो दाईं ओर या बाईं ओर बंधा हुआ दिखाया गया है।
अंग्रेजों के आगमन के साथ, जामा धीरे-धीरे परिदृश्य से गायब हो गया और इसका स्थान शेरवानी और अचकन ने ले लिया, जिन्हें अधिक अंग्रेजी और व्यावहारिक माना जाता था। सौभाग्य से हमारे लिए, दुनिया भर के संग्रहालयों में पर्याप्त भव्य उदाहरण हैं। चूँकि जामा अंगरखा की तरह दैनिक पहनावा नहीं बन पाया था, फिर भी पहनने वाले के पद के आधार पर मौजूद अधिकांश उदाहरण अत्यधिक अलंकृत हैं। कफ और किनारों पर भारी सजावट के साथ उन्हें या तो कशीदाकारी कढ़ाई से सजाया जाता था, हाथ से ब्लॉक की सहायता से रंगा जाता था ,या ब्रोकेड (brocade)किया जाता था । कई में सबसे उत्तम सोने की पत्ती भी होती थी।
जामा और अंगरखा (या अंगरखी) के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से बयां करना कठिन है क्योंकि इन कपड़ों के उपयोग पर कोई विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है।
दोनों ही शब्द एक ही परिधान के लिए उपयोग हो सकते हैं, जिनमें पहले के मूल रूप से फ़ारसी और दूसरे के इसके लघु संस्करण के साथ, भारतीय होने की संभावना है ।
संदर्भ:
https://bit.ly/3YIqDw5
चित्र संदर्भ
1. अंगरखा के इतिहास को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. शिल्प संग्रहालय नई दिल्ली में प्रदर्शनी को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
3. जोधपुर (राजस्थान/भारतीय)। मेहरानगढ़ किला संग्रहालय - अंगरखा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. बीजापुर के सुल्तान अली आदिल द्वितीय शाह को दर्शाता एक चित्रण (getarchive)
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