भारतीय कला क्षेत्र के लिए कैसे महत्त्वपूर्ण रहा ‘लखनऊ कला महाविद्यालय?

द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
28-12-2022 12:05 PM
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भारतीय कला क्षेत्र के लिए कैसे महत्त्वपूर्ण रहा ‘लखनऊ  कला महाविद्यालय?

हमारा शहर लखनऊ कला, संस्कृति, व्यंजन , वास्तुकला, और अपने बहुरूपदर्शक अनुभवों में भव्यता का सार रखता है। एक जीवंत पाक दृश्य और उत्तम ऐतिहासिक स्मारकों से लेकर समृद्ध कला, संस्कृति और औपनिवेशिक आकर्षण के अवशेषों तक, नवाबों के शहर, लखनऊ में निवासियों और पर्यटकों के लिए संग्रहालय, स्मारक, और बहुत कुछ है। वास्तव में, यह प्राचीन, प्राच्य और औपनिवेशिक वास्तुकला का एक समामेलन है। लखनऊ में बहुत से ऐसे संस्थान हैं जो अपनी प्राचीन धरोहर को सहेजते हुए आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं और देश और विदेश में लखनऊ का नाम रोशन कर रहे हैं । ऐसे ही संस्थानों में से एक है लखनऊ का ‘लखनऊ कला महाविद्यालय’।
‘लखनऊ कला महाविद्यालय - (Lucknow Arts College) की स्थापना वर्ष 1911 में तत्कालीन सत्ताधारी ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई थी। इस कॉलेज के सबसे पहले प्रधानाचार्य श्री नाथेनियल हर्ड (Mr. Nathenial Herd) थे। उन्होंने पश्चिमी यथार्थवाद पर विशेष रूप से जोर दिया था, जिसके कारण शिक्षण की पश्चिमी संकल्पनाओं और तरीकों को अपनाया गया था और विभिन्न कला और शिल्प पाठ्यक्रम भारतीय संवेदनाओं को अनदेखा करते हुए पश्चिमी पैटर्न पर तैयार किए गए थे। लेकिन उस समय इस तरह भारतीय संवेदनाओं को अनदेखा करना लखनऊ की कला के वर्चस्व को कम करने और आम लोगों की विचारधारा और जीवन स्तर में बदलाव लाने के लिए एक ढाल के समान था । 1 नवंबर 1892 को विद्यालय को औद्योगिक डिजाइन स्कूल- (School of Industrial design) के रूप में स्थापित किया गया था। प्रारंभ में लाल बारादरी के पास विंगफील्ड मंज़िल (Wingfield Manzil) नामक स्थान के पासइस महाविद्यालय की स्थापना की गई , फिर यह अमीनाबाद, बाद में बाँस मंडी और उसके बाद इसके वर्तमान स्थान मनकामनेश्वर मंदिर सड़कपर आ गया। 1917 में विद्यालय को ‘गवर्नमेंट कॉलेज स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स’ (Government College School of Arts and Crafts) के रूप में फिर से नामित किया गया। 1925 में इंडियन स्कूल ऑफ पेंटिंग (Indian school of painting) को विद्यालय के पाठ्यक्रम में जोड़ा गया, और 1963 में ग्राफिक कला– (graphic arts) के पाठ्यक्रम भी पेश किए गए। 1975 में यह विद्यालय लखनऊ विश्वविद्यालय में एक अलग कॉलेज के रूप में संविलीन हो गया और इसके साथ ही कॉलेज के तीन राष्ट्रीय डिप्लोमा (Diploma) पाठ्यक्रमों को डिग्री (Degree) पाठ्यक्रमों में बदल दिया गया। वर्तमान में कॉलेज, कला से संबंधित विभिन्न डिग्रियों, पाठ्यक्रमों और विषयों को चलाता है।
कॉलेज के पहले भारतीय प्राचार्य श्री असित कुमार हलदर और श्री एल.एम. सेन ने वर्ष 1925 में सभी को विद्यालय की प्रणाली में उदारीकरण, जिसे हम आम तौर पर पारंपरिक भारतीय विद्यालय के रूप में मानते हैं, की आवश्यकता महसूस कराई । इस संबंध में श्री वीरेश्वर सेन, श्री हिरण्मय रॉय चौधरी, श्री शिधर महापात्र, श्री एच.एल.मेढ़ और श्री सुधीर रंजन खस्तगीर का भी उल्लेख किया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने इस कॉलेज की महान परंपराओं को इस कॉलेज के शिक्षार्थियों की आने वाली कई पीढ़ियों तक बनाए रखा।कॉलेज के 6वें दशक की शुरुआत के साथ, श्री एम.एल. नागर, श्री आर.एस. बिष्ट, श्री ए.एस. पंवार, श्री बी.एन. आर्य, श्री एन.एन. महापात्रा, श्री मो. हनीफ, श्री यू.एन. वर्मा आदि ने शैक्षिक सुधारों को लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
महाविद्यालय द्वारा दृश्य कला के क्षेत्र में उच्चतम गुणवत्ता के प्रशिक्षण की पेशकश करने वाले देश के प्रमुख कला संस्थानों में से एक के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए, आधुनिक एवं विशिष्ट शैली एवं तकनीकी अवधारणाओं को अपनाया गया। श्री जय कृष्ण अग्रवाल, श्री पी.सी और श्री सतीश चंद्र जैसे कलाकारों को विभाग में जोड़ा गया। इसलिए इस महाविद्यालय से स्नातक करने वाले छात्रों ने दृश्य कला के क्षेत्र में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी संख्या में अपनी छवि बनाई हैं । इस महाविद्यालय में अब तक अठारह राष्ट्रीय शैक्षिक पुरस्कार छात्रों और शिक्षकों को दिए जा चुके हैं और दो पूर्व प्रधानाचार्यों को कई अन्य राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों और सम्मानों के अलावा पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया है।
पेशेवर प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए महाविद्यालय में ग्राफिक्स (Graphics), सिरेमिक (Ceramics), फोटोग्राफी (Photography), लकड़ी के काम(Woodwork) , लोहे और भारी धातु के काम, कंप्यूटर ग्राफिक्स और पेंटिंग, मूर्तिकला और वाणिज्यिक कला के स्टूडियो के लिए दृश्य कला की विभिन्न शाखाओं के गहन अध्ययन के लिए पूरी तरह से सुसज्जित कार्यशालाएं हैं। साथ ही पूर्ण विकसित पुस्तकालय और संग्रहालय भी है। आईए अब जानते है ‘कला से संबंध रखने वाले दो महत्तवपूर्ण एवं अहम कलाकारों के बारे में । वृंदावन के प्रसिद्ध कलाकार और पद्मश्री प्राप्तकर्ता, श्री कृष्ण कन्हाई जी, जो अपने अद्वितीय 24कैरेट सोने के पत्तों के चित्रों के लिए प्रसिद्ध हैं, उन कई कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने वर्षों से भगवान कृष्ण में अपनी कला के लिए प्रेरणा पाई है। श्री कृष्ण कन्हाई का जन्म 21 अगस्त 1961 को हुआ था। वे एक भारतीय कलाकार और चित्रकार हैं। कन्हाई को पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। उन्हे कई बार जादुई कला वाले कलाकार के रूप में वर्णित किया गया है।
एक दूसरी प्रसिद्ध भारतीय कलाकार, गोगी सरोज पाल, जिन्होंने ‘लखनऊ कला महाविद्यालय’ से चित्रकला में डिप्लोमा किया है, का जन्म 1945, नियोली, उत्तर प्रदेश, में हुआ था। उनके कला कार्यों में आमतौर पर महिलाएं उनके विषय के रूप में होती हैं। उनके कई चित्रों में एक काल्पनिक तत्व भी होता है जो महिला स्थिति पर टिप्पणी करता है। उनकी शुरुआती रचनाएँ अधिक यथार्थवादी थीं, लेकिन समय के साथ वे सरल, अधिक शैलीबद्ध चित्रों में चली गईं जिसका भी काफी प्रभाव है। इन वर्षों में उन्होंने लगभग 30 एकल शो किए हैं और ललित कला अकादमी से राष्ट्रीय पुरस्कार सहित कई पुरस्कार जीते हैं।इस तरह हमें पता चलता है कि ‘लखनऊ कला महाविद्यालय’ (Lucknow Arts College) किन विभिन्न कड़ियों से गुजर कर आज के वर्तमान महाविद्यालय रूप में हमारे सामने खड़ा है। इस महाविद्यालय ने कई विशेष कलाकारों को जन्म दिया है जिनके द्वारा न केवल भारत बल्कि संपूर्ण विश्व में लखनऊ तथा उसकी कला का नाम रोशन किया गया है।

संदर्भ–

https://bit.ly/3PCBZNY
https://bit.ly/3PCFcNj
https://bit.ly/3PCC44e
https://bit.ly/3PENqVh

चित्र संदर्भ

1. ‘लखनऊ कला महाविद्यालय” के प्रांगण को दर्शाता एक चित्रण (facebook)
2. ‘लखनऊ कला महाविद्यालय” को दर्शाता एक चित्रण (facebook)
3. ‘लखनऊ कला महाविद्यालय में कला दीर्घा” को दर्शाता एक चित्रण (facebook)
4. भारतीय कलाकार, गोगी सरोज पाल, को दर्शाता एक चित्रण (youtube)

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