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फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे लोकप्रिय सोशल मीडिया मंचों (Social Media Platforms) की बढ़ती लोकप्रियता के साथ ही, आज लोग (विशेषतौर पर युवा पीढ़ी) सुंदर या स्मार्ट (Smart) दिखने के लिए त्वरित फैशन (Fast Fashion) को तेज़ी से अपना रहे हैं। लोग अपनी जरूरत के हिसाब से नहीं बल्कि, नए ट्रैंड (Trend) के हिसाब से अपने कपड़े बदलने और उनकी गिनती बढ़ाने लगे हैं। किंतु क्या आप जानते हैं कि वस्त्र उद्योग में दिन-प्रतिदिन कपड़ो की इस बढ़ती हुई मांग का देश के किसानों और हमारे पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?
2018 में भारत वैश्विक कपड़ा और परिधान निर्यात में छठे स्थान पर रहा। इसी बीच, भारत का कपड़ा और परिधान आयात भी बढ़ रहा है। 2015 और 2019 के बीच भारतीय आयात में 22.8% की वृद्धि दर्ज की गई। भारतीय कपड़ा और वस्त्र उद्योग देश के सबसे पुराने और सबसे बड़े उद्योगों में से एक है, जिसमें हाथ से काते और बुने हुए वस्त्रों से लेकर पूँजी-गहन कारखानों में निर्मित जटिल उत्पादों तक, एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है।
बड़ी मात्रा में कम लागत व कम गुणवत्ता, वाले प्रयोज्यपरिधानों (Disposable Garments) का बड़े पैमाने पर उत्पादन करना त्वरित फैशन कहलाता है। एचएंडएम (H&M), फॉरएवर 21 (Forever 21), गैप (Gap) और जारा (Zara) के साथ-साथ बूहू (Boohoo), शीन और क्लब स्टोर (Sheen and Club Stores) जैसे कई नए वस्त्र निर्माता भी त्वरित फैशन उद्योग का चेहरा बनकर उभर रहे हैं।
फैशन उद्योग में प्रति वर्ष 80 बिलियन कपड़ों का उत्पादन किया जा रहा है। यह हमारे ग्रह (पृथ्वी) पर प्रति व्यक्ति, दस कपड़े बना रहा है। फैशन उद्योग 20 साल पहले की तुलना में 400% से भी अधिक कपड़ों उत्पादन कर रहा है। कपड़ों का पुनर्चक्रण करने वाली संस्था ट्राईड (Textile Recycling for Aid and Development (TRAID) के अनुसार, आमतौर पर कोई भी परिधान फेंकने से पहले औसतन केवल 10 बार ही उपयोग किया जाता है।
कपड़ों की कीमतें गिरने के साथ-साथ उनकी गुणवत्ता भी घटती जाती है। इसी तथ्य पर आधारित यह पुनर्चक्रण उपभोक्ताओं को नवीनतम फैशन रुझानों के साथ बने रहने के लिए अधिक उत्पाद खरीदने के लिए प्रोत्साहित करता है। साथ ही यह भारत में मौजूदा पारंपरिक भारतीय वस्त्रों को बनाने में जुटे लघु उद्योगों को भी खत्म कर रहा है। इसके अतिरिक्त त्वरित फैशन को जबरन श्रम तस्करी से जोड़ा जाता है। उच्च उत्पादन दर को बनाए रखने के लिए, त्वरित फैशन व्यवसाय बाल श्रमिकों को भी अवैध रूप से काम पर लगाता है। यह स्थिति इतनी अनैतिक है कि ये त्वरित उद्योग श्रम नियमों को भी तोड़ने में परहेज नहीं करते। त्वरित फैशन उद्योग के अंतर्गत काम करने वाले कर्मचारियों के लिए जोखिम भरी कामकाजी परिस्थितियों के अलावा यह उन्हें एक स्थिर आय भी प्रदान नहीं करता है। नतीजतन, त्वरित फैशन, गरीबी को कम नहीं करता है, बल्कि इसे और बढ़ा देता है।
भारतीय कपड़ा उद्योग को प्राचीन काल से ही पूरी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ में से एक माना जाता है। साथ ही यह भी माना जाता है कि इतिहास में कपड़ा क्षेत्र ने ही भारत को "सोने की चिड़िया" बनने में भी मदद की थी। भारत में रेशम और सूती वस्त्रों को सोने और चांदी की परत से भी जड़ा जाता था।
लेकिन ब्रिटिश प्रशासन में भारतीय वस्त्र उद्योगों पर कई शुल्क लगाए गए, भारतीय वस्त्रों को विदेशी बाजारों में बेचने से प्रतिबंधित कर दिया गया था, और बुनकरों का शारीरिक शोषण भी किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप भारत में छोटे स्तर के कपड़ा उद्यमों का सफाया हो गया। भारतीय वस्त्र उद्योगों के पतन के साथ ही, अंग्रेजों ने मैनचेस्टर (Manchester) की सूती मिलों में बड़े पैमाने पर कपड़ों का उत्पादन करके बाज़ार में उत्पादित वस्त्रों की बाढ़ ला दी।
हालांकि, बाद में धीरे-धीरे मैनचेस्टर की मिलों को झिंजियांग (Xinjiang) और चीन के अन्य कारखानों द्वारा कई त्वरित -फ़ैशन उत्पादों (Ramesh & Fast-Fashion Brands) द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया। इन कपड़ा उद्योगों ने चीन के सस्ते और कम गुणवत्ता वाले कपड़ों के साथ भारतीय बाजारों में अपनी पहुंच स्थापित कर दी। तकनीक की मदद और प्रवृत्तियों की समझ के साथ, चीनी कारखाने भारी मात्रा में कम गुणवत्ता और कम लागत वाले सस्ते कपड़े भारत में ला रहे हैं और त्वरित फैशन की लत को हथियार बनाकर, यह भारतीय पारंपरिक कपड़ा उद्योगों को रोक रहे है।
हालांकि, दुनिया भर के कई प्रभावशाली लोगों द्वारा त्वरित फैशन को बहिष्कृत भी किया जाने लगा है, क्योंकि उनका मानना है कि यह कई संदर्भों में अमानवीय है। भारत स्थानीय रूप से निर्मित या नैतिक स्वदेशी कपड़ों के लेबल जैसे अर्बन मंकी (Urban Monkey), द पर्पल सैक (Purple Sack), द टैसल लाइफ (The Tassel Life) और स्कॉर्पियन सीज़र्स (Scorpion Scissors) पर ध्यान केंद्रित कर सकता है, जो हालांकि थोड़े महंगे जरूर हैं लेकिन नैतिक और स्वदेशी रूप से उत्पादित हैं।
त्वरित फैशन, कपड़ों के तेजी से उत्पादन को लगातार बढ़ावा देने के लिए कपास की भारी मांग पैदा करता है। भारत में कपास के किसान, अपनी फसल की मांग में भारी बढ़ोतरी का अनुभव कर रहे थे। बीज उत्पादक कंपनी मोनसेंटो (Monsanto) का भारत के बाज़ार में बीजों की बिक्री पर पर एकाधिकार है और उसने भी कपास के बीजों की बिक्री में तेज़ी का दावा किया है, जो परिधान उद्योग की भारी मांग को भी पूरा करने में सक्षम है। हालाँकि, कपास के ये नए बीज और उन्हें उगाने के लिए आवश्यक कीटनाशक बहुत महंगे होते हैं और किसानों को अपंग कर्ज़ में डाल रहे हैं।
कीटनाशक ग्रामीण समुदायों में विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी जटिलताएँ पैदा कर रहे हैं।
भारतीय किसान छिड़काव करते समय इन कीटनाशकों को सूंघ लेते हैं या ये कीटनाशक उनकी त्वचा पर चिपक जाते हैंजिससे किसान कई प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त छिड़काव करते समय ये कीटनाशक वातावरण में भी घुल जाते हैं, जो उनके पीने के पानी, मिट्टी और वायु की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। इन रसायनों का उपयोग करने वाले कृषि समुदायों में पैदा हुए बच्चों में जन्म दोष के कई मामले सामने आए हैं। कीटनाशकों का छिड़काव करने वाले किसानों में कैंसर, सिजोफ्रेनिया (Schizophrenia) और अवसाद जैसी बीमारियों के मामले सामने आए हैं।
फैशन उद्योग हर साल लगभग 53 मिलियन टन फाइबर (Fiber) का उत्पादन करता है, जिसमें से 70% कचरे के ढेर में समाप्त हो जाता है। 2050 तक फाइबर का उत्पादन 160 मिलियन टन तक पहुंचने की उम्मीद है। नए कपड़े बनाने के लिए 1% से भी कम पुराने फाइबर का पुन: उपयोग किया जाता है, जिससे अरबों डॉलर के पुराने कपड़ों का नुकसान होता क्योंकि इन कपड़ों को पुन: उपयोग नहीं किया जाता है और कचरे के रूप में फेंक दिया जाता है। अब व्यर्थ पड़े कूड़े के रूप में यह पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UN Environment Programme) के अनुसार, वैश्विक फैशन उद्योग पानी का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कपास के उत्पादन से लेकर अंतिम उत्पाद की खुदरा वितरण तक, जींस (Jeans) की केवल एक जोड़ी बनाने के लिए 3,781 लीटर पानी का प्रयोग होता है। इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स (Indian Chamber of Commerce) द्वारा सह-निर्मित एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के घरेलू कपड़ा और परिधान उद्योग ने सभी प्रकार के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2% योगदान दिया और 2018 में कुल औद्योगिक उत्पादन में घरेलू कपड़ा और परिधान उद्योग का ही14% हिस्सा था। भारत में निर्यात केअतिरिक्त , फैशन की घरेलू मांग तेजी से बढ़ रही है। परिधान पर प्रति व्यक्ति व्यय 2023 तक 6,400 रुपये तक पहुंचने की उम्मीद है और मध्यम वर्ग के उपभोक्ताओं की बढ़ती आय इसका एक प्रमुख कारक है। भारत पश्चिम के बाहर परिधान के लिए सबसे आकर्षक उपभोक्ता बाजारों में से एक बनने के लिए तैयार है। 300 से अधिक अंतरराष्ट्रीय फैशन ब्रांडों के भारत में 2022-'23 में स्टोर खोलने की उम्मीद है। त्वरित फैशन अच्छा दिखने के लिए झूठी मांग पैदा करने के विचार पर आधारित है, ताकि बिक्री के लिए अधिक कपड़े तैयार किए जा सकें।
लेकिन जब कपड़े नहीं बिकते हैं, तो बड़े पैमाने पर इन कपड़ों की बर्बादी होती है। बिना बिके कपड़े कचरे के ढेर में चले जाते हैं और प्रदूषण का एक चक्र बना देते हैं। त्वरित फैशन के सभी तत्व जैसे अधिक उत्पादन, कम गुणवत्ता, प्रतिस्पर्धी मूल्य मुख्य रूप से पर्यावरण और उत्पादन में शामिल लोगों पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं।
इंडियन टेक्सटाइल जर्नल (Indian Textile Journal) के अनुसार, भारत में हर साल 1 मिलियन टन से अधिक कपड़ा फेंक दिया जाता है, जिनमें से अधिकांश घरेलू स्रोतों से आते हैं। कपड़ा कचरा भारत में नगरपालिका के ठोस कचरे का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है।
संदर्भ
https://bit.ly/3WcQYQM
https://bit.ly/2EVUbR4
https://bloom.bg/3WjCZJ8
https://bit.ly/3W7nDqW
चित्र संदर्भ
1. फ़ास्ट फैशन का विरोध जताते लोगों को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. भारतीय बुनकरों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. रंगीन कपड़ों को दर्शाता एक चित्रण (Stockvault)
4 .प्राचीन भारत के वस्त्र निर्माण को दर्शाता एक चित्रण (Look and Learn)
5 लैंडफिल का एक उदाहरण, जहां फास्ट फैशन के सामान खत्म हो सकते हैं। को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. कपास के खेत को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. कपडा उद्योग में काम करती महिलाओं को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
8. कपड़ों की बर्बादी को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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