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हम अक्सर औपनिवेशिक भारत के समय के अंग्रेजी लीडरों की, कहानियां या कृत्यों (उदाहरण के तौर पर
जलियांवाला बाग़ में जनरल डायर का आदेश) के बारे में सुनते रहते हैं! किंतु जैसा की हम सभी जानते हैं
की, कोई भी शासक या नायक, बिना सैनिकों के पूरी तरह शक्तिहीन होता हैं, इसलिए अंग्रेजी हुकूमत में भी
अंग्रेज़ों के सबसे बड़े हथियार देश विदेशों से भारत आये, उनके सैनिक ही थे! जिन्हे आमतौर पर भाड़े या
किराए के सैनिक (mercenaries) कहा जाता है।
16वीं और 17वीं शताब्दी के दौरान, जब भारत में शाही मुगल सत्ता चरमरा रही थी, और ब्रिटिश शक्तियां
तथा मुख्य रूप से मराठा नयी शक्तियों के रूप में उभर रहे थे। इस दौरान, बाहर देशों से कई लोग भारत
आये, जिन्हें बाद में भाड़े के सैनिकों के तौर पर भारत में रोजगार मिला। पूरे भारत में हजारों यूरोपीय लोगों
ने शासकों के दरबार में सैनिकों के रूप में अपनी सेवा प्रदान की। यूरोपीय भाड़े के सैनिकों ने 300 वर्षों तक
भारतीय शासकों के दरबार में सेवा की, जिसकी शुरुआत 16वीं शताब्दी में गोवा से पुर्तगाली सैनिकों के बड़े
पैमाने पर दल बदल के साथ हुई। इसके बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company)
के ब्रिटिश सैनिकों और आम लोगों के दल बदल की एक नई श्रृंखला प्रारंभ हुई।
1498 में पुर्तगाली खोजकर्ता वास्को ड गामा (Vasco Da Gama) की भारत की पहली ऐतिहासिक यात्रा के
दौरान, उन्होंने मालाबार तट पर विभिन्न राजाओं के नियोजन में, इतालवी भाड़े के सैनिकों का वर्णन किया
था। पुर्तगाली इतिहासकार जोआओ डी बैरोस (Joao de Barros) के अनुसार, 1565 में विभिन्न भारतीय
राजाओं की सेनाओं में कम से कम 2,000 पुर्तगाली लड़ रहे थे। इन भाड़े के सैनिकों में स्वदेशी गोअन
(Goan), कैथोलिक और पूर्वी भारतीय सैनिक और नाविक शामिल थे। इसी दौरान मराठा सम्राट छत्रपति
शिवाजी ने भी अपनी नौसेना में कई पुर्तगाली और सैकड़ों गोवा कैथोलिक और पूर्वी भारतीयों को नियुक्त
किया।
मुगल सम्राट शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान, इतने सारे यूरोपीय लोगों ने मुगल सेना में सेवा प्रदान की,
कि उनके लिए दिल्ली के बाहर फिरिंगिपुरा (विदेशियों का शहर) नामक एक अलग उपनगर बनाया गया।
इसके निवासियों में पुर्तगाली, फ्रांसीसी और अंग्रेजी भाड़े के सैनिक शामिल थे, जिनमें से कई आगे चलकर
इस्लाम में परिवर्तित हो गए थे। इन भाड़े के सैनिकों ने एक विशेष फ़िरिंगी (विदेशियों) रेजिमेंट का गठन
किया।
दक्कन सल्तनत की सेनाओं में काम करने वाले कई भाड़े के सैनिक थे, जिन्होंने मध्य और दक्षिणी भारत
के अधिकांश हिस्से को नियंत्रित किया था। दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में भाड़े के सैनिकों की एक
जाति / समुदाय आज भी है, जिसे "बंट" (Bant) कहा जाता है। इस समुदाय से कई शक्तिशाली राजवंशों का
उदय हुआ, जिसमें सबसे उल्लेखनीय राजवंश दक्षिण कन्नड़ के अलुपास (Alupas of Dakshina
Kannada) हैं, जिन्होंने 1300 वर्षों तक शासन किया! यह समुदाय अभी भी अस्तित्व में है, और समय के
साथ उन्होंने शेट्टी, राय, अल्वा, चौटा आदि उपनामों को अपनाया है।
मध्ययुगीन काल में, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के पश्चिमी और उत्तरी भारत के राज्यों में आमतौर पर
भाड़े के सैनिक भर्ती किये जाते थे। बाद में उन्हें मराठों और अंग्रेजों द्वारा भी भर्ती किया गया। उन्होंने
1857 के भारतीय विद्रोह में भी प्रमुख भूमिका निभाई।
आज भारत और पाकिस्तान में रहने वाला एक जातीय समूह, जिन्हे सिद्धि, शीदी या हब्शी के नाम से भी
जाना जाता है, इनमें से कई लोग व्यापारी, नाविक, गिरमिटिया नौकर, दास और भाड़े के सैनिक थे। माना
जाता है कि हब्शी या सिद्दी 628 ईस्वी में भरूच बंदरगाह पर भारत पहुंचे थे। कुछ सिद्दी जंगलों में
समुदायों को स्थापित करने के कारण, गुलामी से बच गए, और कुछ ने जंजीरा द्वीप पर जंजीरा राज्य की
छोटी सिद्दी रियासतों की और बारहवीं शताब्दी की शुरुआत में काठियावाड़ में जाफराबाद राज्य की
स्थापना की।
भाड़े के सैनिकों के परिवार से संबंध रखने के बावजूद लोकप्रिय होने वाले व्यक्तियों में क्लाउड मार्टिन
(Claude Martin) का नाम भी अक्सर उभरकर आता है! दरअसल मेजर-जनरल क्लाउड मार्टिन (5
जनवरी 1735 - 13 सितंबर 1800) एक फ्रांसीसी सेना अधिकारी थे, जिन्होंने पहले फ्रांसीसी और बाद में
औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनियों में अपनी सेवा प्रदान की।
मार्टिन, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल सेना में मेजर-जनरल के पद तक पहुंचे। मार्टिन का जन्म
फ्रांस के ल्योन (Lyon of France) में एक विनम्र पृष्ठभूमि में हुआ था, और वह एक स्व-निर्मित (self-
made) व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने लेखन, इमारतों और मरणोपरांत स्थापित शैक्षणिक संस्थानों के रूप में
एक पर्याप्त स्थायी विरासत छोड़ी।
आगे चलकर लखनऊ में बसे मार्टिन के नाम पर, दो लखनऊ में , दो कलकत्ता में और छह ल्योन में कुल दसस्कूल हैं! भारत में एक छोटे से गांव का नाम भी उन्हीं के नाम पर “मार्टिन पुरवा” रखा गया था।
क्लाउड मार्टिन का जन्म 5 जनवरी 1735 को रु डे ला पाल्मे, ल्योंस , फ्रांस (Rue de la Palme, Lyons,
France) में हुआ था। वह एक ताबूत बनाने वाले व्यक्ति फ्लेरी मार्टिन (Fleury Martin) (1708-1755)
और कसाई की बेटी ऐनी वैजिनेय (Daughter Anne Vagina) (1702-1735) के पुत्र थे।
1751 में 16 साल की उम्र में मार्टिन ने फ्रांसीसी कंपनी डेस इंडेस Des Indes) के साथ काम किया! बाद में
उन्हें भारत में तैनात किया गया, जहां उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरोध में, कर्नाटक युद्धों में
कमांडर और गवर्नर जोसेफ फ्रांस्वा डुप्लेक्स और जनरल थॉमस आर्थर लैली (Joseph François Duplex
and General Thomas Arthur Lally) के अधीन काम किया था।
1761 में जब फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी की अपनी कॉलोनी खो दी, तो उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल
सेना में सेवा स्वीकार कर ली।1763 में, अंततः वह मेजर जनरल के पद पर काबिज़ हो गए। सन 1776 में,
मार्टिन को अवध के नवाब , आसफ-उद-दौला के लिए लखनऊ में शस्त्रागार के अधीक्षक की नियुक्ति को
स्वीकार करने की अनुमति दी गई! उनकी रैंक बरकरार रखी गई लेकिन अंततः उन्हें आधे वेतन पर रखा
गया। वे 1776 से अपनी मृत्यु तक लखनऊ में ही रहे। 13 सितंबर 1800 को टाउन हाउस, लखनऊ (Town
House, Lucknow) में क्लॉड मार्टिन की मृत्यु हो गई। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, उन्हें लखनऊ में
कॉन्स्टेंटिया (Constantia) के तहखाने में विशेष रूप से तैयार किये गए ताबूत में दफनाया गया।
संदर्भ
https://bit.ly/3MaXMJS
https://bit.ly/3L4Vmvm
https://bit.ly/3wh71li
चित्र संदर्भ
1 क्लाउड मार्टिन कॉलेज लखनऊ को दर्शाता एक चित्रण (Now Lucknow)
2. ब्रिटिश सैनिकों को दर्शाता एक चित्रण (Public Domain Collections)
3. क्लाउड मार्टिन को दर्शाता एक चित्रण (lookandlearn)
4. ला मार्टिनियर कॉलेज, मेजर-जनरल क्लाउड मार्टिन (1735-1800) द्वारा बनाया गया था, (इसे कॉन्स्टेंटिया कहा जाता था) को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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