दरवाजों के आधार पर यदि कहा जाये की विभिन्न राजवंशों का पता चल सकता है, कारीगर का पता चल सकता है तो शायद ही कोई इस से इत्तेफाक रखे। दरवाजों का अपना एक अलग महत्व होता है तथा इनके नामों के पीछे कई कहानियाँ होती हैं चाहे वो बुलन्द दरवाजा हो या रूमी दरवाजा इन सबके नाम व कला के पीछे एक कहानी है।
दरवाजों के कई स्वरूप व आकार प्रकार होते हैं जिनसे उनकी कला व स्थापत्य का अंदाजा लगाया जा सकता है। दरवाजों का स्वरूप कई बार भौगोलिक दशा पर भी आधारित होता है। उत्तरप्रदेश में पहले कच्चे घरों (बखरी) में दो किवाड़ वाले दरवाजे लगते थे जिनके ऊपर दो अन्य लकड़ी के स्तम्भ आड़े रूप से रखे जाते थे जिनपर कई आकृतियाँ बनी होती थी जिनमें मोर मुख्य रूप से दिखाई देता था। ड्योढी हमेशा मोटे लकड़ी का बनी रहती थी तथा बाकी के दो खड़े स्तम्भ कई प्रकारों से अलंकृत किये हुये रहते थे। प्रत्येक दरवाजों के खुलने की दिशा भी वास्तु पर आधारित होती थी जैसे (उत्तर, पूरब आदि)। मुग़लकालीन व राजपूत कालीन दरवाजों को उनके मेहराबों के अनुसार बाँटा जा सकता है।
लखनऊ को कांस्टेंटिनोपल(इस्तांबुल) कहा जाता है जिसका सबसे बड़ा कारण है यहाँ का रूमी दरवाजा। रूमी दरवाजे का निर्माण सन् 1784 में किया गया था। इसके निर्माण के पीछे लखनऊ में आया अकाल था। असफ-उद-दौला ने रोजगार की उपलब्धता कराने के लिये इस दरवाजे का निर्माण करवाया था। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर इसका नाम रूमी दरवाजा क्यूँ पड़ा? रूमी दरवाजे की वास्तुकला तुर्की वास्तुकला से प्रेरित है, इसी प्रकार के कई दरवाजे इस्तांबुल में बनवाये गये थें वहाँ के दरवाजों को बाब कहा जाता है तथा वहाँ के इसी प्रकार के एक दरवाजे का नाम था बाब-ए-हुमायुँ। रूमी शब्द के प्रमुख दो अर्थ निकलते हैं प्रथम है मशहूर सूफी सन्त व लेखक थें तथा दूसरी रूमी का उद्भव रोम से हुआ है जो की उस वक्त का एक महान साम्राज्य हुआ करता था। लखनऊ में इस प्रकार के वास्तुकला के कारण ही लखनऊ को कांस्टेंटिनोपल कहा जाता है। रूमी दरवाजे का आकार करीब 60 फीट का है तथा इस दरवाजे को बनाने के लिए लाखौरी ईंट का प्रयोग किया गया है। धरवाजे को पलस्तर करने के लिये चूने का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत चित्र में इमामबाड़ा और रूमी दरवाजे को दिखाया गया है।
1. http://lucknow.me/Roomi-Gate.html
2. http://www.lucknow.org.uk/tourist-attractions/rumi-darwaza.html