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राजस्थान के रामगढ़ में भूवैज्ञानिकों की दो अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय टीमों द्वारा यहाँ मौजूद क्रेटर (Crater) के
बारे में किए गए कई अध्ययन करने के बाद यह पुष्टि की गई है कि यह एक क्षुद्रग्रह प्रभाव स्थल है। हालांकि
इस क्रेटर का सटीक आकार अभी भी बहस का विषय बना हुआ है। रामगढ़ के इस क्रेटर की शानदार भू-
आकृतिक विशेषताओं के कारण इसका पांच दशकों से अधिक समय तक अध्ययन किया गया, तथा यह रामगढ़
क्रेटर को भारत तीसरा प्रभाव संरचना बनाता है।वहीं तलछटी चट्टानों के विंध्य सुपरग्रुप (Vindhyan
Supergroup) में अब नष्ट हो गया क्रेटर मेसोप्रोटेरोज़ोइक युग (Mesoproterozoic age - लगभग 1600 से
1000 मिलियन वर्ष पहले) का है।अहमदाबाद में भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला के एक समूह सहित वैज्ञानिकों
ने प्रभाव स्थल पर चट्टानों की रासायनिक संरचना का विश्लेषण किया ताकि यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि
क्रेटर "तांबे से भरपूर लोहे के उल्कापिंड (उल्कापिंड एक क्षुद्रग्रह का एक टुकड़ा होता है)" के प्रभाव से बनाया
गया था। आकार में मोटे तौर पर आयताकार, रामगढ़ क्रेटर अमेरिका (America)के प्रसिद्ध बैरिंगर क्रेटर
(Barringer Crater) जैसा दिखता है।
रामगढ़ संरचना की खोज पहली बार 1869 में भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा की गई थी। लंदन (London)
की भूवैज्ञानिक संस्था ने इसे 1960 में एक 'क्रेटर' के रूप में पहचाना।दुनिया भर में, 204 प्रभाव क्रेटर बताए
गए हैं, जिनमें से दो भारत में हैं: दक्कन ट्रैप में लोनार क्रेटर (महाराष्ट्र) और बुंदेलखंड (मध्य प्रदेश) में ढाला
संरचना (यह भारत में और भूमध्यसागरीय और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच सबसे बड़ा क्रेटर है। संरचना का
व्यास 3 किमी अनुमानित है, जबकि अन्य स्रोतों का अनुमान है कि इसका व्यास 11 किमी है। लोनार झील के
बाद यह भारत में पाया जाने वाला दूसरा ऐसा क्रेटर है।यह रामगढ़ क्रेटर से 200 किमी पूर्व में है, 11 वीं
शताब्दी के भांड देवरा मंदिर का स्थान है जिसे 2018 में INTACH द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था।)।
वहीं लोनार क्रेटर बेसाल्ट चट्टान (Basalt Rock) में बना सबसे कम उम्र का और सबसे अधिक संरक्षित प्रहार
क्रेटर है और यह संपूर्ण पृथ्वी पर इस प्रकार का एकमात्र गड्ढा है। लगभग पच्चीस हज़ार वर्ष पहले एक उल्का
जो एक मिलियन टन से अधिक वजन का था, 90,000 किमी प्रति घंटे की अनुमानित गति से पृथ्वी पर गिरा,
जिससे लोनार झील के गड्ढे का निर्माण हुआ। लोनार झील जैव विविधता से घिरी हुई है, इसके निकट एक
वन्यजीव अभ्यारण्य है जो एक अद्वितीय पारिस्थितिकी से भरपूर है।इस झील का पानी क्षारीय और खारा
है, लोनार झील ऐसे सूक्ष्म जीवों का समर्थन करती है जो शायद ही कभी पृथ्वी पर पाए जाते हैं। हरे-भरे जंगल
से घिरे इस झील के चारों ओर सदियों पुराने परित्यक्त मंदिर जो अब केवल कीड़ों और चमगादड़ों का घर हैं,
और खनिजों के टुकड़े जैसे मास्कलीनाइट (Maskelynite) पाए जाते हैं। मास्कलीनाइट एक प्रकार का प्राकृतिक
रूप से पाया जाने वाला शीशा है जो केवल अत्यधिक उच्च-वेग के प्रभावों द्वारा बनता है। वहीं नासा (NASA)के
अनुसार, इस सामग्री की उपस्थिति और ज्वालामुखी बेसाल्ट में क्रेटर की स्थिति लोनार को चंद्रमा की सतह पर
प्रहार क्रेटर के लिए एक अच्छा एनालॉग (Analogue) बनाती है।
दिलचस्प बात यह है कि क्रेटर स्थल से हाल ही में खोजा गया जीवाणु अवसाद (Bacterial strain) (बैसिलस
ओडिसी (Bacillus odyssey)) मंगल ग्रह पर पाए जाने वाले पदार्थ जैसा दिखता है।टेक्सास टेक यूनिवर्सिटी
(Texas Tech University) के प्रोफेसर शंकर चटर्जी द्वारा बताया गया, कि शिव क्रेटर परिकल्पना यह समझाने
की कोशिश करती है कि कैसे डायनासोर पृथ्वी से कैसे विलुप्त हुए। माना जाता है कि शिव क्रेटर की अश्रु-
आकार की संरचना मुंबई के अपतटीय क्षेत्र में है जिसमें बॉम्बे हाई और सूरत डिप्रेशन शामिल हैं।सिद्धांत के
अनुसार, लगभग 40 किमी व्यास वाला एक विशाल क्षुद्रग्रह, भारत के पश्चिमी तट (बॉम्बे हाई के पास) में
दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिससे 500 किमी चौड़ा गड्ढा बन गया।
पृथ्वी पर बने उल्कापिंड प्रहार क्रेटर सबसे दिलचस्प भूवैज्ञानिक संरचनाओं में से एक हैं।यह क्रेटर गोलाकार या
उसके जैसे आकार के होते हैं, इनका निर्माण विस्फोटन से होता है, यह विस्फोट ज्वालामुखी, अंतरिक्ष से गिरे
उल्कापिंड या फिर ज़मीन के अन्दर अन्य किसी गतिविधि के कारण होते हैं। जबकि इनमें से अधिकांश क्रेटर
भूगर्भीय समय के विशाल विस्तार में प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा नष्ट हो गए हैं,साथ ही इनमें से कई
'एस्ट्रोब्लेम्स' (Astroblemes - ग्रीक में शाब्दिक अर्थ सितारा घाव) अभी भी कुचले और विकृत आधारशिला के
एक गोलाकार भूवैज्ञानिक निशान के रूप में बने हुए हैं।अक्सर अंतरिक्ष के धूमकेतु या क्षुद्रग्रहों के चट्टानी
टुकड़े पृथ्वी के वायुमण्डल के संपर्क में आते ही विस्फोटित हो जाते हैं, इनमें से कुछ एक वायुमण्डल को
पार करते हुए पृथ्वी तक पहुंच जाते हैं, जिन्हें उल्कापिण्ड कहा जाता है। यह उल्कापिण्ड प्रत्येक वर्ष
पृथ्वी पर गिरते हैं किंतु इनको खोज पाना लगभग असंभव कार्य है, क्योंकि वे निर्जन जंगल के विशाल क्षेत्रों
में या समुद्र के खुले पानी में गिरते हैं।जब ये वायुमण्डल से टकराते हैं तो एक विस्फोट होता है जिससे तीव्र
प्रकाश निकलता है, इसे हम पृथ्वी से देख सकते हैं।विस्फोट के बाद इनमें से अधिकांश धूल मिट्टी बन जाते
हैं और कुछ उल्का पृथ्वी के भीतर प्रवेश कर जाते हैं।अंतरिक्ष में होने वाली उल्का वर्षा को पृथ्वी से देखा
तो जा सकता है किंतु इन उल्कापिण्डों के अवशेषों को पृथ्वी में खोजा नहीं जा सकता है।पृथ्वी में कुछ
ऐसी उल्कापीण्डिय घटना भी हुई हैं जिसने आज तक अपनी छाप छोड़ी है।
संदर्भ :-
https://go.nature.com/2YP5Ug2
https://bit.ly/3p4cFW0
https://bit.ly/3mSyJjA
https://bit.ly/3vf1Sta
https://bit.ly/3AHz39C
चित्र संदर्भ
1. हवाई जहाज से देखने पर रामगढ़ क्रेटर का एक चित्रण (wikimedia)
2. गूगल मैप से देखने पर रामगढ़ क्रेटर का एक चित्रण (google earth)
3. पृथ्वी की ओर बढ़ते उल्का पिंड का एक चित्रण (flickr)
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