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भारत में मृत ही नहीं वरन् जीवित वृक्षों से भी विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनाने का अभ्यास
सदियों से किया जा रहा है, पूर्वी भारत की खासी जनजाति द्वारा बनाया गया जीवित जड़ सेतु इसका
प्रत्यक्ष उदारण है।ट्री शेपिंग (Tree Shaping) (जिसे कई अन्य वैकल्पिक नामों से भी जाना जाता है)
विभिन्न संरचनाओं और कला को बनाने के लिए जीवित पेड़ों और अन्य काष्ठ के पौधों का
उपयोग प्रमुख माध्यम के रूप में किया जाता है।
विभिन्न कलाकार अपने पेड़ों को आकार देने के लिए अलग-अलग विधियों का अपयोग करते हैं।
अधिकतर कलाकार कलात्मक रचना में जीवित वृक्ष के तनों या शाखाओं और जड़ों का संयोजन
ग्राफ्टिंग(Grafting) का उपयोग करने के लिए करते हैं। बढ़ती पेड़ की शाखाओं को विभिन्न आकार
देने वाली कला या तकनीक को आर्बर स्कल्पचर (Arborsculpture)कहते हैं।इसमें ग्राफ्टिंग (Grafting) ,
झुकने और प्रूनिंग (Pruning) के माध्यम से पेड़ों को आर्बोर्सकुल्टर द्वारा निर्धारित आकृतियों में उगाया
जाता है। यह तकनीक एक वांछित आकार धारण करने के लिए पौधों या पेड़ों की एकजुट होने,
कैंबियम (Cambium) की नई परतों के बनने और एक नया आकार बनाए रखने की क्षमता पर निर्भर
करती है।
आर्बरस्कल्पचर पेड़ों की क्षमता पर निर्भर करता है कि वे ग्राफ्टिंग द्वारा एक साथ एकजुट हो सकें।
ग्राफ्टिंग एक पेड़ या किसी पेड़ के दो या दो से अधिक हिस्सों की छाल को कैम्बियम(cambium) परत
तक काटकर दोनों हिस्सों को एक साथ बांध दिया जाता है,ताकि कटे पेड़ के हिस्से एक साथ बढ़ें
और उनके मध्य एक अच्छा संपर्क बना रहे।
भारत के पूर्वोत्तर राज्य मेघालय के दक्षिणी भाग में स्थित जीवित जड़ सेतु स्थानीय जनजाति के
लोगों द्वारा जीवित वृक्षों की जड़ों से बनाये गये पुल हैं। जीवित वृक्षों की जड़ों को अनुवर्धित कर
इन्हें जलधाराओं को पार करने के लिए एक सुदढ़ पुल के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। जिस
पेड़ से सेतु या पुल बनता है, जब तक कि वो स्वस्थ बना रहता है तब तक सेतु की जड़ें स्वाभाविक
रूप से मोटी और मजबूत होती जाती हैं।ये पुल मेघालय के चेरापूँजी, नोन ग्रेट,लात्संयू आदि स्थानों
पर देखे जा सकते हैं।मेघालय के जनजातीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग वहां उगने वाले वृक्षों की जड़ों
और शाखाओं को एक दूसरे से सम्बद्ध कर पुल का रूप दे देते हैं। इस प्रकार के पुल ही जीवित जड़
पुल कहलाते हैं।
इनको बनाने में रबर फ़िग (फ़ाइकस इलास्टिका) (rubber fig (Ficus elastica))वृक्ष की हवाई जड़ों का
प्रयोग किया जाता है और इनका निर्माण खासी एवं जयन्तिया जनजाति के लोग ही किया करते
हैं।हम इस पेड़ को रबर के पेड की श्रेणी का भी मान सकते हैं। ऐसे पुलों में से कुछ की लम्बाई सौ
फुट तक है। जहां खासी लोगों को जरूरत होती है इस पेड़ की जड़ों को वे दिशा देते हैं और काफी
समय भी। बहुत सालों में जाकर ये पेड़ इस स्थिति में आ जाते हैं कि दोनों किनारों के पेड़ों की जड़ें
आपस में बंध जाती हैं। ये इतने जानदार भी होते हैं कि 50 लोगों का वजन एक साथ सह सकते
हैं।ऐसे सेतु नागालैण्ड में भी मिलते हैं।
सदियों से विश्वभर में व्यावहारिक और सौंदर्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लोगों द्वारा पेड़ों को
नया आकार देने और उन्हें मोड़ने के नये-नये तरीके विकसित किये जा रहे हैं। अधिकांश भागों में यह
तकनीक अलगाव में विकसित हुई किंतु बाद में पेड़ों को आकार देने की इन कला की तकनीकों या
विधियों को एक दूसरे से सीखा जाने लगा, और अब कलाकारों द्वारा इन पेड़ों को इमारतों से लेकर
फर्नीचर तक के महत्वाकांक्षी रूपों में विकसित करने का लक्ष्य रखा जाता है।
इसके मूल सिद्धांत की बात करें तो इस कला में सर्वप्रथम पेड़ों को संरचनाओं में ढालने के लिये
तैयार किया जाता है। इंडोनेशिया (Indonesia) और उत्तरपूर्वी भारत में, बरगद और रबर के पेड़ों की
जड़ों को सेतु बनाने के लिए बांस के तख्ते के चारों ओर लपेटा जाता है जो भयंकर मानसून का
सामना कर सकते हैं। यूरोप (Europe) में, बागवानों ने एक सपाट तल पर पेड़ों को तैयार करने की एक
तकनीक विकसित की, ताकि वह सपाट हो जाएं। इस तकनीक को एस्पालियर (Espalier) नाम दिया
गया, इसके बाद पेड़ों को औपचारिक पैटर्न (Patterns) और शब्दों की आकृति में निर्देशित किया जा
सकता है।
पुराने पेड़ों को आकार देने की रणनीतियों द्वारा अक्सर व्यावहारिक उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है।
इसलिए पेड़ की शाखाओं को प्लिचिंग तकनीक की सहयता से तैयार किया जाता है। पेड़ों को आकार
देने के मुख्यतः तीन तरीके हैं:
1. एरोपोनिक रूट कल्चर (Aeroponic Root Culture): इसमें एरोपोनिक रूप से जड़ों को बढ़ाया
जाता है। इसके लिये जड़ों को एक पोषक तत्व के समृद्ध मिश्रण में उगाया जाता है, जब
तक कि जड़ें पांच मीटर या उससे अधिक लंबाई की न हो जाएं, ताकि वे लचीली बने रहें। इस
पद्धति के पीछे विचार यह है कि बड़ी मात्रा में जड़ें विकसित की जा सकती हैं, जिनका
उपयोग भवन निर्माण सामग्री के रूप में किया जा सकता है। जैसे-जैसे जड़ें मोटी होंगी, वे
समय के साथ पेड़ों की एक ठोस दीवार बनाएंगी। परंतु यह विधि केवल उन पेड़ों के उपयोग
तक सीमित है, जिसमें वायवीय जड़ें विकसित होती हैं। इको-आर्किटेक्चर (Eco-Architecture)
तकनीक के माध्यम से भी बड़े पैमाने पर जड़ों को आकार दे कर स्थायी संरचनाएं बनाई और
विकसित की जा सकती हैं।
2. इंस्टेंट ट्री शेपिंग (Instant Tree Shaping-Arborsculpture): इंस्टेंट ट्री शेपिंग मूल रूप से 3D
प्लिचिंग है, जिसमें पेड़ की अशाखित 2-3 मीटर लंबी टहनी का उपयोग होता है। इनसे
डिज़ाइन (Design) बनाने के लिये इन टहनियों को मोड़ा और बुना जाता है तथा धातु की
सलाखों या रॉड (Rods) के पास तब तक रखा जाता है, जब तक कि पेड़ों में नए विकास के
छल्ले (केंबियम परत (Cambium Layer)) न बन जाएं। कुछ ट्री शेपर्स मेज (Tree Shapers
Table) , कुर्सी, पुल और यहाँ तक कि घर बनाने के लिए भी इस विधि का प्रयोग करने का
प्रयास कर रहे हैं।
3. ग्रेजुएल ट्री शेपिंग (Gradual Tree Shaping)।
वृक्षों को आकार देने की परियोजनाएं शहरों में होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड(carbon dioxide)
–ऑक्सीजन(oxygen) के असंतुलन को कम करने में अहम भूमिका निभा सकती हैं। इस प्रकार के कार्य
शुद्ध जलवायु के लिए अनुकूल वातावरण उत्पन्न करेंगे, जो मानव निवास के लिए सुखदायक हो
सकता है। वृक्षों की संख्या में हुयी वृद्धि वायु को शुद्ध करेगी।यह लंबे समय तक नवीकरणीय रह
सकते हैं और जब वे मृत हो जाएंगे तो उन्हें खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। यह वृक्ष
मृदा के कटाव को रोकेंगे और भूस्खलन को रोकने में सहायता करेंगे।पेड़ों को स्वस्थ रहने में मदद
करने के लिए बायोडिग्रेडेबल(Biodegradable) कचरे का इस्तेमाल किया जा सकता है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3ydhT3u
https://bit.ly/36Z23NT
https://bit.ly/3792ghf
https://bit.ly/3x6BCAc
https://bit.ly/3y7PDiA
चित्र संदर्भ
1. ईस्ट खासी हिल्स में जीवित जड़ सेतु का एक चित्रण (wikimedia)
2. पेड़ को आकार देने से बनी कुर्सी (आर्बर स्कल्पचर (Arborsculpture) का एक चित्रण (wikimedia)
3. एक्सल एरलैंडसन (Axel Erlandson) द्वारा बास्केट ट्री (Basket Tree) का एक चित्रण (wikimedia)
4. ग्रेजुएल ट्री शेपिंग (Gradual Tree Shaping) का एक चित्रण (wikimedia)
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