लखनऊ को अपनी एक अलग पहचान देता यहां का अवधी व्‍यंजन

स्वाद- खाद्य का इतिहास
28-05-2021 07:13 PM
लखनऊ को अपनी एक अलग पहचान देता यहां का अवधी व्‍यंजन

हमारा लखनऊ शहर और इसके आसपास के क्षेत्र अवधी व्यंजन या लखनवी भोजन के लिए प्रसिद्ध हैं। औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने अवध को "औध" कहा, जो कि "अयोध्या" से लिया गया था। इस क्षेत्र पर कई शासकों का शासन रहा लेकिन इतिहास में इसे "अवध के नवाब" के शासनकाल से जाना जाता है। नवाब आसफ-उद-दौला लखनऊ के पहले ज्ञात शासक थे, जिन्होंने शहर को एक सांस्‍कृतिक शहर के रूप में बदलना शुरू किया और इसके व्यंजनों को बढ़ावा दिया। उनके शासनकाल के दौरान, विभिन्‍न पाक-विज्ञान के ज्ञाता और कई खानसामाओं ने यहां आना शुरू किया। उन दिनों अनुभवी रसोइयों ने बड़ी मात्रा में यहां विभिन्‍न प्रकार के व्‍यंजन बनाए, इन्हें "बावर्ची" कहा जाता था, वे अपने काम में कुशल थे। उस समय बहुत सारी प्रतियोगिताएँ होती थीं, जहाँ रसोइए अपने स्वामी (दारोगा-ए-बावर्चीखाना) को खुश करने के लिए विभिन्न प्रकार के व्‍यंजन को बनाकर,अपने पाक कौशल से एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते थे।
अवधी व्यंजनों की सबसे प्रमुख विशेषता इसमें उपयोग किए गए मसालों का सावधानीपूर्वक मिश्रण है। कई बार, अवधी भोजन मुगलई भोजन के साथ भ्रमित हो जाता है।
हालाँकि अवधी शैली की पाक कला मुग़ल व्यंजनों से काफी आकर्षित हुई है, लेकिन दोनों के बीच महत्वपूर्ण अंतर हैं। अवधी व्‍यंजन तैयार करने की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है, जो इसमें परत दर परत स्‍वाद चढ़ाती है। मसालों की अत्‍यधिक उपयोगिता के कारण मुगलई भोजन वसा से भरपूर होता है जबकि अवधी व्यंजन बहुत नाज़ुक ज़ायके और सीमित मसाले के उपयोग के लिए जाना जाता है। रामपुर और लखनऊ भौगोलिक रूप से बहुत दूर नहीं हैं लेकिन उनकी पाक शैली बहुत अलग है। रामपुर के व्यंजन अफगानी संस्कृति से प्रभावित थे और वे मोटे तौर पर ज्यादा मसालों का उपयोग करते हैं जबकि अवधी व्यंजन लगभग 20 मसालों का उपयोग करते हैं लेकिन वे प्रत्येक सामग्री का स्वाद देते हैं। इसके अलावा धीमी खाना पकाने की प्रक्रिया भोजन से रस को भलि भांति अवशोषित करती है, जिससे सभी पोषक तत्व बरकरार रहते हैं।
कबाब अवधी भोजन का एक अभिन्न अंग है। लखनऊ में कबाब की शुरुआत का श्रेय अवध के पहले नवाब सादात अली खान को दिया जाता है।वर्षों से, जैसे-जैसे अवधी व्यंजन विकसित हुए, वैसे-वैसे लखनऊ में कबाब ने गलौटी कबाब और अन्य जैसे स्वादिष्ट व्यंजनों का निर्माण किया। लखनऊ को अपने कबाब पर गर्व है। काकोरी कबाब, गलावत के कबाब, शमी कबाब, बोटी कबाब, मजलिसी कबाब और सीक कबाब प्रसिद्ध किस्मों में से हैं।
काकोरी कवाब - काकोरी कबाब को शाह अबी अहदर साहिब की दरगाह में आशीर्वाद के साथ बनाया गया था। इसका नाम लखनऊ के बाहरी इलाके काकोरी शहर से लिया गया है। इस कबाब को मटन (Mutton) के कीमे और भारतीय मसालों से तैयार किया जाता है।
शमी कबाब- इसे कीमे से बनाया जाता है जिसमें सामान्‍यत: प्याज, धनिया और हरी मिर्च मिलाई जाती है।यह कबाब चटपटे मिश्रण और कच्चे हरे आम से भरी गोल पट्टी होते हैं। इन्हें खाने का सबसे अच्छा समय मई में होता है, जब आम छोटे होते हैं। जब आम का मौसम नहीं होता है, तो कच्‍चे आम के स्थान पर कमरख या करोंदा का प्रयोग किया जा सकता है, क्योंकि दोनों में तीखा स्वाद होता है जो कच्चे आम से मिलता जुलता है।
गलौटी कबाब –इसे कीमा और हरे पपीते से तैयार किया जाता है। यह माना जाता है कि इसे लखनऊ के एक नवाब के लिए बनाया गया था जो कमजोर दांतों के कारण नियमित कबाब नहीं खा सकते थे। लखनवी बिरयानी और काकोरी कबाब की तरह, यह अवधी व्यंजनों की पहचान है।
टुंडे के कबाब-जिसे गलौटी कबाब के नाम से भी जाना जाता है, भैंस के मांस के कीमे से बनाया हुआ एक व्यंजन है जो लखनऊ में लोकप्रिय है। यह अवधी व्यंजन का हिस्सा है। कहा जाता है कि इसमें 160 मसाले शामिल हैं।
कवाब वास्‍तम में एक दांतरहित नवाब के लिए बनाया गया था, आज लखनऊ के विश्‍व प्रसिद्ध ब्रांड टुंडे के कबाब ने आज इसकी दर्जनों किस्‍म तैयार कर दी हैं।100 से अधिक साल पुराने इस प्रतिष्ठान और इसके रसीले कबाब की इतनी प्रतिष्ठा है कि इसे आज एक खाद्य तीर्थयात्री माना जाता है।
मजलिसी कबाब - इसका एक लोकप्रिय नाम घुटवा कबाब है, जिसका अर्थ है चूर्णित मांस। यह वैकल्पिक नाम खाना पकाने की प्रक्रिया से निकलता है। इसमें कीमे को घंटों तक तला जाता है और फिर दम देकर पकाया जाता है, जो अंततः एक पेस्ट जैसा दिखता है
अवधी खाना आज उत्तर भारत के शहरों में काफी आम है। हालाँकि आधुनिक समय में यह पाक कला कही खो सी गयी है, शायद पुराने शहर लखनऊ और देश के कुछ अन्य इलाकों में ही इस व्यंजन के पारंपरिक स्वाद को कुछ हद तक बरकरार रखा गया है।आधुनिक समय के अनुकूलन अपरिहार्य थे क्योंकि नवाबों के समय में खाना पकाने में शामिल श्रम, परिष्कार, पेचीदगी और चालाकी को आज बनाए रखना मुश्किल है। बावर्ची की एक पूरी बटालियन लखनऊ के नवाबों की सेवा करती थी। प्रत्येक रसोइया का अपना गुप्त नुस्खा होता था जिसे वह नवाब को प्रभावित करने और पुरुस्कार हासिल करने के लिए इस्तेमाल करता था। उन्होंने न तो किसी के साथ नुस्खा साझा किया और न ही इसे अपने वंशजों को दिया। मजलिसी कबाब जैसे कुछ पुराने महत्वपूर्ण व्यंजनों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है इसलिए, उनके साथ ही कई व्यंजन ख़त्म हो गए हैं।
लखनवी भोजन के विशेषज्ञ मोहसिन कुरैशी लोगों द्वारा भूला दिए गए या फिर विलुप्‍ति के कगार पर खड़े अवधी भोजन को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं। वे अपनी पाक कला का श्रेय उस्ताद और खानसामा को देते हैं।मजलिसी कबाब (majlisi kebab) एक ऐसा व्यंजन है जिस पर उन्हें विशेष रूप से गर्व होता है।यह कबाब बारीक कटे मटन को धीमी गति से पकाने की तकनीक का उपयोग करके दम पर पकाया जाता है, जिसमें लंबा समय लगता है, गुटवां कबाब के रूप में भी जाने वाले इस कबाब को प्रारंभ में घंटों तक चलने वाले मजलिस या सामाजिक समारोहों के दौरान परोसा जाता था। कबाब और लखनऊ शहर का प्रेम प्रसंग सदियों पुराना है।आज ऐसे आयोजनों में चिकन टिक्का, गलावत कबाब और शीरमल परोसे जाते हैं। इसलिए कुरैशी जी ने इस कबाब को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है।

संदर्भ:
https://bit.ly/3hZJoIa
https://bit.ly/3vlq0sZ
https://bit.ly/34iwbCg
https://bit.ly/3hSJdyo
https://bit.ly/34ihGP8

चित्र संदर्भ
1. लखनवी शाही कोरमा तथा गलौटी कबाबी थाल का एक चित्रण (wikimedia)
2. अवध के कबाब का एक चित्रण (wikimedia)
3. नवाबी चिकन दम बिरयानी (wikimedia)
पिछला / Previous

Definitions of the Post Viewership Metrics

A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.

B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.

C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.

D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.