धातु विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत हमेशा से ही आत्मनिर्भर रहा है

नगरीकरण- शहर व शक्ति
24-05-2021 10:12 AM
धातु विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत हमेशा से ही आत्मनिर्भर रहा है
धातुओं के उपयोग करने की कला ने इंसानो की जीवन शैली को आसान करने के साथ-साथ हमारे समय की भी बचत की है। प्राचीन समय से ही इनकी सहायता से ही भारत समेत पूरे विश्व में अनेक प्रकार के आविष्कार तथा खोज संभव हो पाई है। भारतीय उपमहाद्वीप में धातु विज्ञान का इतिहास तीसरी शताब्दी पूर्व शुरू हो गया था और यह ब्रिटिश राज में भी जारी रहा। सनातन धर्म में वैदिक युग के विभिन्न प्रारंभिक ग्रंथों में धातुओं और इससे संबंधित अवधारणाओं का वर्णन किया गया है। सनातन धर्म के सबसे आरम्भिक स्रोत ऋग्वेद में पहले से ही संस्कृत शब्द अयस (धातु) का उपयोग किया गया है। लंबे समय तक भारतीय संस्कृति और वाणिज्यिक संपर्कों ने ग्रीको-रोमन दुनिया के साथ धातुकर्म विज्ञान का आदान प्रदान किया। बाद में मुगलों के आगमन ने भारत में धातु विज्ञान तथा धातु के काम करने की विभिन्न परम्पराओं में और अधिक सुधार किया। लेकिन ब्रिटिश राज काल में शाही नीतियों के कारण भारत में धातु विज्ञान का प्रसार पहले की तुलना में मंद पद गया। क्योंकि धातु विज्ञान का उपयोग भारत के विभिन्न शासकों द्वारा सेना को मजबूत बनाने तथा युद्धों के दौरान इंग्लैंड का विरोध करने के लिए किया जाता था। पुरातत्वविदों द्वारा मध्य गंगा घाटी में हाल में की गई खुदाई से यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में लोहे से जुड़े उद्पाद बनाने का काम 1800 ईसा पूर्व में ही शुरू हो गया था। भारत के अनेक पुरातत्व स्थान ,जिनमे उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित मल्हार, दादूपुर, राजा नाला का टीला और लहुरादेवा जैसी जगहों पर 1800 - 1200 ईसा पूर्व के बीच की अवधि में लोहे के औजारों के आधार पर इन निष्कर्षों पर पहुंचा गया है। अवशेषों से यह ज्ञात होता है कि 13 वीं शताब्दी ईसा पूर्व भारत में निश्चित ही बड़े स्तर पर लोहे के गलाने के प्रयास किये गए थे। इस आधार पर प्रौद्योगिकी युग के शुरू होने की तारीख 16 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के रूप में तय की जा सकती है। अनुमानतः 300 ईसा पूर्व अथवा निश्चित रूप से 200 सीई तक, दक्षिण भारत में उच्च गुणवत्ता वाले स्टील का उत्पादन शुरू हो चुका था। जिसे बाद में यूरोपीय देशों द्वारा क्रूसिबल (crucible) तकनीक नाम दिया गया। इस प्रक्रिया के दौरान उच्च गुणवत्ता वाले गढ़े लोहे , लकड़ी के कोयले तथा कांच को एक साथ क्रूसिबल में उस समय तक गर्म किया जाता था, जब तक कि लोहा पिघल कर कार्बन को अवशोषित नहीं कर लेता, जिसके परिणामस्वरूप उच्च गुणवत्ता वाले कार्बन स्टील,का निर्माण होता था। जिसे अरबी में फुलाई (ولا) तथा यूरोपीय लोगों द्वारा वूट्ज़ (Wootz) कहा जाता है। इसके बाद स्टील का निर्यात पूरे एशिया और यूरोप में किया गया।
विल डुरंट (Will Durant) ने द स्टोरी ऑफ़ सिविलाइज़ेशन I: अवर ओरिएंटल हेरिटेज (The Story of Civilization I: Our Oriental Heritage:) में लिखा है: "उन्होंने प्राचीन भारत में कच्चा लोहा की रासायनिक उत्कृष्टता तथा गुप्त काल के उच्च औद्योगिक विकास के बारे लिखा है , जब इंपीरियल रोम (Imperial Rome) द्वारा भारत को बड़ी संभावना के रूप में देखा जा रहा था । उस समय भारत रासायनिक उद्योगों मे जैसे रंगाई, साबुन बनाना, कांच और सीमेंट के उद्पादन तथा छठी शताब्दी तक औद्योगिक रसायन विज्ञान , जिसमे कैल्सीनेशन, आसवन, उच्च बनाने की क्रिया, भाप, निर्धारण, बिना गर्मी के प्रकाश के उत्पादन में कुशलता हासिल कर चुका था। कहा जाता है कि राजा पोरस ने महान सिकंदर के सोना या चांदी नहीं, बल्कि विशेष रूप से मूल्यवान उपहार, “तीस पाउंड स्टील” चुना था। मुसलमानों ने इस हिंदू रासायनिक विज्ञान और उद्योग को समय के साथ पूर्वी और यूरोपीय देशों में फैलाया। उदाहरण के तौर पर "दमिश्क"(Damascus) ब्लेड के निर्माण के रहस्यों को भारत से फारसियों ने और फारसियों से अरबों ने जाना था। लखनऊ से 22 किमी दूर बंथरा के पास दादूपुर में खुदाई के निष्कर्षों के रेडियो कार्बन निर्धारण के बाद ताजा उत्खनन से पता चला है कि यहाँ लोहे की उपस्थिति के साथ-साथ अलग-अलग लाल बर्तन, महीन लाल बर्तन, काले फिसले हुए बर्तन और मुख्य रूप से कटोरे, व्यंजन और भंडारण जार आदि के आकार में काले और लाल बर्तन थे। यहाँ पर जली हुई हड्डियां भी बड़ी मात्रा में पाई गई थीं। बरामद ईख के निशान के साथ जले हुए टेराकोटा नोड्यूल से यह समझ आता कि यहां झोपड़ियां मवेशी और दुआब से बनी थीं। साथ ही यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि यहाँ पर राख से भरा एक बड़ा ओवन था जिसकी बाहरी सीमा कंकर, नोड्यूल से मजबूत थी।
यहाँ पर धूरी कलाकृतियों के साथ-साथ नुकीले कटे निशानों और कई सींगों की मौजूदगी से यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि इस क्षेत्र में हड्डी की कलाकृतियों के निर्माण हेतु कारखाना हो सकता था। इस उत्खनन के बाद खोजे गए अवशेष ने लखनऊ के इतिहास को कुल करीब 1500 ईसा पूर्व तक धकेल दिया। उत्तर प्रदेश में सोनभद्र और चंदौली में हुए उत्खनन से 1600 ईसा पूर्व के लोहे के अवशेष प्राप्त हुए। इन सभी अवशेषों की प्राप्ति से यह तो सिद्ध हो गया कि लखनऊ के आस पास का क्षेत्र लौह युग में सुचारू रूप से प्रचलित था। लेकिन यहां पर लोहे की उपस्थिति पर भी विशेष ध्यान दिया गया क्यों की पश्चिमी मूल के व्यक्तियों का दृष्टिकोण था कि भारत में लोहे को पश्चिम से, ईरान अथवा अन्य देशों से लाया गया था। लेकिन पुरातत्व विभाग उत्तर प्रदेश में मिले अवशेषों के आधार पर यह कहा जा सकता है की “भारत पहले से ही किसी दूसरे महाद्वीप पर निर्भर न होकर स्वयं लोहे के उत्पादन निर्माण तथा कला में निपूर्ण था” ।

संदर्भ
https://bit.ly/3ft7ok9
https://bit.ly/3eWtOLD
https://bit.ly/3otAap3
https://bit.ly/2Sc0MPq

चित्र संदर्भ
1. गुप्त राजा समुद्रगुप्त के सिक्के का एक चित्रण (wikimedia)
2 . विल डुरंट (Will Durant) ने द स्टोरी ऑफ़ सिविलाइज़ेशन I: अवर ओरिएंटल हेरिटेज का एक चित्रण (wikimedia)
3 . चंदौली में हुए उत्खनन प्राप्त अवशेषों का एक चित्रण (wikimedia)

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