वस्‍त्रों के उद्भव एवं विकास का एक संक्षिप्‍त परिचय

स्पर्शः रचना व कपड़े
09-02-2021 12:26 PM
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वस्‍त्रों के उद्भव एवं विकास का एक संक्षिप्‍त परिचय
वस्‍त्र हमारे वह धरोहर हैं जो हमारी सभ्‍यता एवं परंपरा को दर्शाते हैं। यह मात्र हमारे तन ढकने का कार्य नहीं करते वरन् हमारी संस्कृति, इतिहास और भौगोलिक विविधता के प्रचारक भी हैं। हमारा लखनऊ शहर भी अपनी फूल पत्ती की कढ़ाई और जरदोजी के काम के लिए जाना जाता है। मानव ने वास्‍तव में वस्‍त्र पहनना कब से प्रारंभ किया इसका पता लगाना चुनौतीपूर्ण कार्य होगा, प्रारंभिक साक्ष्‍यों के आधार से अनुमान लगाया जाता है कि मानव ने सर्वप्रथम जानवरों की खाल के कपड़े पहनना प्रारंभ किया होगा। ऐसे बहुत कम पुरातात्विक साक्ष्‍य उपलब्‍ध हैं जिनसे वस्‍त्रों के उपयोग की तिथि का सटीक अनुमान लगाया जा सके। पुरातत्वविदों द्वारा अलग-अलग अवधारणाएं दी गयी हैं। उदाहरण के लिए, आनुवांशिक त्वचा के रंग के अनुसंधान के आधार पर यह सिद्ध हुआ कि मानव शरीर से लगभग दस लाख वर्ष पहले बाल समाप्‍त हो गए थे और वस्‍त्र पहनने की शुरूआत करने के लिए गर्मियां आदर्श मौसम थीं। उपकरणों से जानवरों की खाल निकालने का कार्य 780,000 साल पहले प्रारंभ हो गया था, किंतु इस खाल का उपयोग आश्रय बनाने के लिए किया जाता था ना कि वस्‍त्र बनाने के लिए। लगभग 40,000 साल पहले सुइयां अस्तित्‍व में आयी लेकिन ये उपकरण अधिक जटिल कपड़ों की ओर इशारा करते हैं, जिसका अर्थ है कि कपड़े शायद पहले से ही अस्तित्‍व में आ गए थे।
फ्लोरिडा विश्वविद्यालय (University of Florida) के एक हालिया अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि मनुष्यों ने लगभग 170,000 वर्ष पहले वस्‍त्र पहनना शुरू किया था, यह हिम युग का द्वितीय अंतिम चरण था। इन्होंने इस तिथि का अनुमान जूँ के विकास का अध्ययन करके लगाया। वैज्ञानिकों ने देखा कि कपड़ों के जूँ, कपड़ों के लिए बहुत अच्छी तरह से अनुकूलित हैं। उन्होंने परिकल्पना की कि शरीर की जुंएं कपड़ों में रहने के लिए ही विकसित हुई होंगी अर्थात यह मानव के वस्‍त्र पहनने से पहले अस्तित्‍व में नहीं थी। अध्ययन में गणना करने के लिए जूँ के डीएनए अनुक्रमण (DNA Sequencing) का उपयोग किया गया। अध्ययन द्वारा निकाले गए निष्कर्ष दिखाते हैं कि कपड़े लगभग 70,000 साल पहले अस्तित्‍व में आ गए थे, जब मनुष्यों ने अफ्रीका से उत्तर की ओर ठंडी जलवायु में पलायन करना शुरू किया था। कपड़ों के आविष्कार ने ही मानव के पलायन की प्रक्रिया को संभव बनाया था। मिट्टी पर मिले टोकरियों और वस्त्रों के छापों के आधार पर कहा जा सकता है कि मानव ने लगभग 27,000 साल पहले बुनाई शुरू कर दी थी। लगभग 25,000 साल पहले की मिली महिलाओं की छोटी छोटी प्रतिमाओं में विभिन्‍न प्रकार के वस्‍त्र बनाए गए हैं जो इस समय तक बुनाई की तकनीक की ओर इशारा करती हैं। प्राचीन मिस्री (Egyptians) में लगभग 5500 ईसा पूर्व लिनन (linen) का उत्पादन शुरू हो गया था, जबकि चीनीयों (Chinese) ने लगभग 4000 ईसा पूर्व रेशम का उत्पादन शुरू किया। जॉर्जिया (Georgia) की एक गुफा में रंगे हुए पटसन तंतु या फ्लैक्स फाइबर (flax fibers) का पहला उदाहरण मिला जो 36,000 साल पहले का है। संभवत: उस समय तक कपड़ों को रंगने की कला विकसित हो गयी थी और उस दौरान के वस्‍त्र आज के पहनावे की उपेक्षा सरल थे। आगे चलकर वस्‍त्र निर्माण की विभिन्‍न तकनीकों का विकास हुआ दुनिया के कुछ क्षेत्रों में 1300 के दशक के मध्य के आसपास, कपड़ों का फैशन काफी हद तक बदलना शुरू हो गया था। और वस्‍त्र सरलता से जटिलता की और जाने लगे। औद्योगिक क्रांति ने निश्चित रूप से, वस्त्र उद्योग पर बहुत बड़ा प्रभाव डाला। अब कपड़े घर की बजाए बड़े पैमाने पर कारखानों पर बनाए जाने लगे। परिणामस्‍वरूप, कपड़े काफी सस्ते हो गए और लगातार फैशन (fashion) में भी बदलाव आया जो आज भी जारी है।
भारतीय उपमहाद्वीप में यदि वस्‍त्रों के इतिहास की बात की जाए तो इसके साक्ष्‍य सिंधु घाटी सभ्यता या उससे पहले से मिलते हैं। प्राचीन भारत में मुख्य रूप से कपास द्वारा निर्मित वस्‍त्र पहना प्रारंभ किए गए थे। भारत उन स्‍थानों में से एक था जहाँ पर सबसे पहले कपास की खेती की गयी थी और हड़प्पा काल के दौरान 2500 ईसा पूर्व से ही इसका उपयोग प्रारंभ कर दिया गया था। प्राचीन भारतीय कपड़ों के अवशेष सिंधु घाटी सभ्यता, पत्‍थरों की मूर्तियों, गुफा चित्रों, मंदिरों और स्मारकों में बने मानवीय चित्रों में देखे जा सकते हैं, जिसमें मुख्‍यत: भारतीय पारंपरिक परिधान साड़ी, पगड़ी, धोती आदि शामिल हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की पोशाक में विविध पृष्ठभूमि के आधार पर विविधता दिखाई देती है, उदाहरण के लिए पश्तूनी लोग पकोल टोपी और गले पर आभूषण पहनते थे, पंजाबी लोग पगड़ी, राजस्‍थानी लोग राजस्‍थानी शैली की चूड़ियाँ आदि पहनते थे यह विविधता भारतीय उपमहाद्वीप के हर हिस्‍से में दिखायी देती है।
वैदिक काल 1500 और 500 ईसा पूर्व के बीच की समय अवधि में पहने जाने वाले परिधानों में मुख्य रूप से एक ही कपड़ा होता था जो पूरे शरीर से होते हुए कंधे से लिपटा होता था। स्‍त्री पुरूष लगभग समान वस्‍त्र पहनते थे बस उनके पहनने के तरीके में भिन्‍नता थी। मौर्य काल के दौरान (322-185 ईसा पूर्व) पुरूष एवं महिलाओं के पहनावे में अंतर आया महिलाएं मुख्‍यत: काशीदकारी किए गए वस्‍त्र पहनने लगी थीं। और पुरूष अं‍तरिया (जंघिया शैली का वस्‍त्र) और तुनिक (छोटी आस्तीन और एक गोल गर्दन वाला सिला हुआ परिधान) पहनते थे। गुप्‍तकाल में महिलाओं ने लहंगा पहनना प्रारंभ कर दिया था और पुरूषों ने कालांतर में जांघिया शैली से लुंगी शैली का रूप ले लिया। उत्तरी और पूर्वी भारत के पुरूषों में लुंगी पहनने की शैली का विकास हुआ। गुप्त काल के बाद से, अलची मठ, बागान मंदिरों, पाल लघु चित्रों, जैन लघु चित्रों, एलोरा गुफाओं के चित्रों और भारतीय मूर्तियों जैसे चित्रों से भारतीय कपड़ों के भरपूर प्रमाण मिले हैं। मुगलकाल तक आते-आते भारतीय परिधानों में शाही अंदाज झलकने लगा। 7 वीं और 8 वीं शताब्दी में राजपूत क्षत्रिय एक नए समुदाय के रूप में उभरे। राजपूतों ने जीवन जीने के लिए एक पारंपरिक जीवन शैली का पालन किया जो उनकी सैन्‍य भावना, जातीयता और शिष्टता की भव्यता को दर्शाता है। भारत में औपनिवेशिक काल के दौरान कपड़ों में कई बदलाव हुए। जब से भारत में पश्चिमी शैली की पोशाक का पहनावा शुरू हुआ इसने लोगों के बीच जातीयता के टकराव को भी बदल दिया। टोपी को कई धर्मों के लोगों के द्वारा पहना जाता था जो एक सम्मान का संकेत थी। कुछ भारतीय बाहर आते जाते हुए पश्चिमी परिधान पहनने लगे जबकि घरों में अपने पारंपरिक परिधानों को ही पहनते थे। पश्चिमी कपड़ों ने विशेष रूप से महानगरों में लोकप्रियता बढ़ाई है। इससे भारतीय-पश्चिमी शैली का विकास भी हुआ है। बॉलीवुड (Bollywood) का भी उपमहाद्वीप के आसपास फैशन में एक बड़ा प्रभाव रहा है, विशेष रूप से भारतीय फैशन में।
अधिकांश संस्कृतियों में, कपड़ों के लिए लिंग भेद को उपयुक्त माना जाता है। ‍विभिन्‍न शैलियों, रंगों, कपड़ों और प्रकारों में अंतर है। पश्चिमी समाजों में, स्कर्ट (skirts), पोशाक या ड्रेस (dresses) और ऊँची एड़ी के जूतों को सामान्‍यत: महिलाओं के परिधान के रूप में इंगित किया जाता है। पतलून को विशेषत: पुरूषों का वस्‍त्र माना जाता था किंतु आज यह दोनों के लिए सामान्‍य हो गयी हैं। पुरुषों के कपड़े अक्सर अधिक व्यावहारिक होते हैं, लेकिन महिलाओं के लिए कपड़ों की शैलियों की एक विस्तृत श्रृंखला उपलब्ध है। कुछ संस्कृतियों में कानूनी तौर से पुरूषों और महिलाओं के कपड़े निर्धारित किए गए हैं। इस्लाम में महिलाओं को साधारण वस्‍त्र पहनने की अनुमति दी गयी है विशेष रूप से हिजाब। विभिन्न मुस्लिम समाजों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अपने शरीर को अधिक ढंकना पड़ता है। कुछ समाजों में, कपड़ों का उपयोग श्रेणी या स्थिति को इंगित करने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, प्राचीन रोम (Rome) में, केवल सीनेटर (senators) टायरियन (Tyrian) बैंगनी रंग से रंगे हुए वस्त्र पहन सकते थे। पारंपरिक हवाईयन (Hawaiian) समाज में, केवल उच्च श्रेणी के प्रमुख ही पंख वाले लबादे (cloaks) और पलाओ (palaoa), या नक्काशीदार व्हेल दांत पहन सकते थे। चीन में, गणतंत्र की स्थापना से पहले, केवल सम्राट पीला पहन सकते थे। इतिहास में ऐसे कई विचित्र कानून मौजूद थे।
कुछ वस्‍त्रों को धार्मिक स्थिति बताने के लिए पहना जाता है, कभी-कभी इन्‍हें केवल धार्मिक समारोहों के प्रदर्शन के दौरान ही पहना जाता है। उदाहरण के लिए, जैन और मुस्लिम पुरुष धार्मिक समारोहों को करते समय बिना सीले हुए कपड़े पहनते हैं। बिना सिला हुआ कपड़ा एकीकरण और पूर्ण भक्ति का प्रतीक है, जिसमें कोई विषयांतर नहीं होता है। सिख पगड़ी पहनते हैं क्योंकि यह उनके धर्म का एक हिस्सा है। कुछ धर्मों जैसे कि हिंदू, सिख, बौद्ध, इस्लाम और जैन में धार्मिक पोशाक की स्वच्छता सर्वोपरि होती है क्योंकि यह पवित्रता को दर्शाती है।
वर्तमान समय में फैली महामारी ने एक ऐसा परिदृश्‍य बना दिया है जहां आज इंसान, इंसान से डर रहा है। हम किसी के भी संपर्क में आने के बाद हाथ धो रहे हैं और सामाजिक दूरी का ध्‍यान रख रहे हैं। लेकिन आपने कभी ध्‍यान दिया है जो सामान हम बाहर से ला रहे हैं या जो कपड़े हमने पहने हैं। वे भी तो हमारे शरीर में कोरोना वायरस के संचारक बन सकते हैं बाहर से आकर हम हाथ तो धो लेते हैं पर उन कपड़ों का जो हम पहनकर आए हैं। नोवल कोरोनोवायरस (Novel Coronavirus) मानव शरीर के अतिरिक्‍त विभिन्‍न सतहों पर जीवित रहने में सक्षम है, जिसके परिणामस्वरूप स्‍पर्श करते ही संचरण हो जाता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह वायरस सतह के प्रकार के आधार पर कुछ घंटों तक कुछ दिनों तक जीवित रह सकता है। धातु और प्लास्टिक में यह वायरस 2 से 3 दिनों तक जीवित रह सकता है जबकि कपड़े को इसके अस्तित्व के लिए अनुकूल नहीं माना गया है। हालांकि कुछ परिस्थितियों में कपड़ों को धो लेना आवश्‍यक होता है। जैसे आप कोविड 19 से संक्रमित व्‍यक्ति के संपर्क में हैं तो आपको कपड़ों की स्‍वच्‍छता का विशेष ध्‍यान रखना होगा। घर पर कपड़े धोने के दौरान, वायरस को मारने से कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना चाहिए। इसके लिए अधिकांश घरेलू डिटर्जेंट (Detergent) पर्याप्त हैं।
संदर्भ:
https://bit.ly/3ro9UfZ
https://bit.ly/2MZ8k5a
https://bit.ly/2LlW26y
https://bit.ly/39ONaQc
https://bit.ly/2O0M0IW
चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र में सांस्कृतिक वेशभूषा को दिखाया गया है। (विकिमीडिया)
दूसरी तस्वीर में प्राचीन समय के वेशभूषा को दिखाया गया है। (प्रारंग)
तीसरी तस्वीर में चीनी सांस्कृतिक पोशाक को दिखाया गया है। (विकिमीडिया)
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