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मांसाहारी लोग मुर्गे का मीट बड़े चाव से खाते हैं, लेकिन उनमें से बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि मुर्गे को साफ करते समय फेंके जाने वाले पंखों का अब विभिन्न चीजों में उपयोग किया जाने लगा है। कुछ उद्यमी बताते हैं कि मुर्गी के पंखों से प्लास्टिक बनाने पर शोध शुरू कर दिए गए हैं। हमारे बालों और नाखूनों के विपरीत, मुर्गी के पंख ज्यादातर केराटिन (Keratin) नामक एक मजबूत प्रोटीन (Protein) होते हैं। यह सब 1993 में शुरू हुआ था, मॉडर्न फार्मर (Modern Farmer) के अनुसार, जब यूएसडीए (USDA) के शोधकर्ता वाल्टर श्मिट (Walter Schmidt) ने चिकन के पंखों को कुछ उपयोगी बनाने का फैसला किया। उन्होंने इसे तला (जिसका स्वाद सूअर की चमड़ी की भांति पाया गया), इससे कागज बनाया (जो बुनावट और तंतुमहीन काग़ज़ की तरह निकला)।
इसका इस्तेमाल पाउडर मेकअप (Powder Makeup – श्मिट (Schmidt) के अनुसार, पंख के तंतुओं को पीसकर एक पाउडर का रूप दिया जाता है जो केराटिन को सौंदर्य उत्पादों में उपयोगी बनाता है।) और डायपर (Diapers - पंख का उपयोग डायपर में अवशोषित परत को बदलने के लिए भी किया जाता है जो आमतौर पर लकड़ी के गूदे से बना होता है।) इत्यादि में भी किया जा रहा है। वहीं नवीनतम विचार प्लास्टिक है। पंख को गर्म करके अन्य सामग्रियों के साथ मिश्रित कर प्लास्टिक में ढाला जा सकता है। और जैसा कि हम सब जानते हैं आज जूतों से लेकर दीवार के तापावरोधन से लेकर फर्नीचर तक में प्लास्टिक का इस्तेमाल किया जाता है। मुर्गी के पंखों के और भी कई अन्य उपयोग देखे गए हैं, जैसे तेल के फैलने पर उसे अवशोषित करना और तूफान से बचाव के लिए घर की छत बनाना आदि।
मनुष्य मुर्गे को मुख्य रूप से भोजन (मांस और अंडे दोनों का उपभोग करते हैं) के स्रोत के रूप में अधिक और सामान्यतः पालतू जानवरों के रूप में कम पालते हैं। मुर्गियों को हेलेनिस्टिक (Hellenistic) अवधि (4 वीं-दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व) तक भोजन के लिए नहीं पाला गया था, मूल रूप से मुर्गों की लड़ाई के लिए या विशेष समारोहों के लिए पाला गया था। मुर्गों की विभिन्न नस्लें होती हैं और हमारे द्वारा विशेष रूप से विभिन्न उद्देश्यों (जैसे अंडे, मांस, पंख) के लिए मुर्गी की विभिन्न नस्लों को पाला जाता है। मांस के लिए पाले जाने वाले मुर्गे को ब्रॉयलर (Broiler) कहा जाता है। मुर्गियां स्वाभाविक रूप से छह या अधिक वर्षों तक जीवित रहती हैं, लेकिन ब्रॉयलर नस्ल आमतौर पर संहार के आकार तक पहुंचने में छह सप्ताह से कम समय लेती है। एक जैविक ब्रॉयलर का आमतौर पर लगभग 14 सप्ताह की उम्र में संहार कर दिया जाता। अंडे के लिए मुख्य रूप से खेती की जाने वाली मुर्गियों को लैअर (Layer) मुर्गियां कहा जाता है। कुल मिलाकर, अकेले ब्रिटेन (Britain) में प्रति दिन 34 मिलियन से अधिक अंडे का उपभोग किया जाता है। कुछ मुर्गी की नस्लें प्रति वर्ष 300 से अधिक अंडे का उत्पादन कर सकती हैं, वे 367 दिनों में 371 अंडे देने वाली अंडे की उच्चतम प्रामाणिक दर को दर्ज करते हैं। वहीं भारत में मुर्गे की कई नसलें पाई जाती है, जो कुछ इस प्रकार हैं:
मुर्गी की केवल चार शुद्ध भारतीय नस्लें पाई जाती हैं:
एसील (Aseel) : एसील का शाब्दिक अर्थ वास्तविक या विशुद्ध है। एसील को अपनी तीक्ष्णता, शक्ति, राजसी ठाठ या दृढ़ता से लड़ने की गुणवत्ता के लिए जाना जाता है। इस देसी नस्ल को एसील नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसमें लड़ाई की पैतृक गुणवत्ता होती है। एसील की लोकप्रिय किस्में हैं, पीला (सुनहरा लाल), याकूब (काला और लाल), नूरी (सफेद), कगार (काला), चित्त (काले और सफेद धब्बों वाला), जावा (काला), सबजा (सफेद और सुनहरा या काला पीले या स्र्पहला रंग के साथ), तीकर (भूरा) और रेजा (हल्का लाल)।
चिट्टागोंग (Chittagong) : इसे मलय के नाम से भी जाना जाता है और इसे दोहरे उद्देश्य के लिए पाला जाता है। लोकप्रिय किस्में बादामी रंग, सफेद, काले, गहरे भूरे और धुमैले हैं।
कडाकानाथ (Kadaknath) : इस नस्ल के मुर्गे के पैरों की त्वचा, चोंच, टांगें, पैर की उंगलियां और तलवे का रंग काले रंग का होता है। काला रंगद्रव्य मेलेनिन (Melanin) के जमाव के कारण होता है।
बुसरा (Busra) : आकार में मध्यम, गहरा शरीर, हलके पंख और सतर्क क्रियाएं वाले होते हैं इस नस्ल के मुर्गे।
मुर्गे की अन्य नस्लों में शामिल है :
• झारसीम: झारखंड के लिए एक विशिष्ट ग्रामीण कुक्कुट किस्म।
• कामरूप: असम में मुफ्त श्रेणीबद्ध खेती के लिए एक दोहरे उद्देश्य की नस्ल।
• प्रतापधन: राजस्थान के लिए दोहरे उद्देश्य वाला पक्षी।
ऐसे ही भारत में कई अन्य नस्लें भी पाई जाती हैं, परंतु वर्तमान समय में भारत में भोजन के लिए पाले जाने वाले मुर्गियों को अधिक मात्रा में दुनिया की सबसे तगड़ी जीवाणुनाशक दवाएं दी जा रही है। वे ज्यादा मुनाफा पाने के लिए पक्षियों का वजन बढ़ाने के लिए जीवाणुनाशक दवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन इसकी ज्यादा मात्रा घातक भी हो सकती है। मनुष्य के लिए खतरनाक भी साबित होने वाले कीटाणु अगर अनुपचारित या सटीक उचार के बिना लंबे समय तक छोड़ दिए जाते हैं तो वे शक्तिशाली रोगजनकों में उत्परिवर्तन हो सकते हैं। ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म (Bureau of Investigative Journalism) के एक अध्ययन में पाया गया है कि एंटीबायोटिक ऑफ लास्ट रिज़ॉर्ट (Antibiotic of last resort) के रूप में वर्णित सैकड़ों टन कोलिस्टिन (Colistin) को मुख्य रूप से मुर्गियों के खेतों पर पशुओं के नियमित उपचार के लिए भारत भेजा जाता है। इस खोज का विषय मुख्य रूप से यह था कि इस तरह की शक्तिशाली दवाओं के उपयोग से दुनिया भर के कृषि पशुओं में प्रतिरोध की क्षमता बढ़ सकती है। कोलिस्टिन को निमोनिया सहित गंभीर बीमारियों से बचाव की अंतिम किस्म में से एक माना जाता है, जिसका इलाज अन्य दवाओं द्वारा नहीं किया जा सकता है। इन दवाओं के उच्च मात्रा में उपयोग किये जाने पर पिछली शताब्दी में आमतौर पर इलाज किए जाने वाले रोग एक बार फिर से घातक हो सकते हैं।
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