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प्राचीनकाल से ही विश्व में मानव द्वारा अपने मनोरंजन हेतु विभिन्न साधनों को अपनाया गया है, हालांकि आज इनके स्वरूप बदल चुके हैं किंतु कई स्थानों पर आज भी इन पारंपरिक कलाओं जैसे कठपुतली, जादू और नृत्य आदि को देखा जा सकता है। मीम (mime) दिखाना भी इन्हीं पारंपरिक कला का हिस्सा है जिसकी उत्पत्ति प्राचीन यूनान के सिनेमाघरों से हुयी थी। प्रारंभ में मीम को एक नाटक के रूप में दर्शाया जाता था, जिनमें दैनिक जीवन के दृश्य, विस्तृत गति और इशारों, संवाद और कुछ गानों के माध्यम से प्रस्तुति की जाती थी। अभ्यास की विविधताओं ने प्राचीन आदिवासी, भारतीय और जापानी नाट्य विधाओं में भी अपना रास्ता खोज लिया, जिनमें मुख्यत: संगीत और नृत्य शैली के माध्यम से बताई गई कथाओं के साथ संगीत और नृत्य को प्रदर्शित करने वाली कला शामिल थी। विशेष रूप से, नकाबपोश रंगमंच की जापानी नोह परंपरा (Noh tradition), जिसने कई समकालीन फ्रांसीसी सिद्धांतकारों को प्रभावित किया।
इसका विस्तार रोमनों (Romans) के ग्रीस (Greece) पर आक्रमण के साथ शुरू हुआ, इसके पश्चात इस नाटकीय परंपरा को इटली (Italy) लाया गया। सोलहवीं शताब्दी से अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत तक मीम यूरोप (Europe) की प्रसिद्ध लोकप्रिय शैली कॉमेडिया डेलआर्ट (Commedia dell’arte) में समा गयी। कलाबाजियों की यह विशिष्ट कला, नकाबपोश प्रदर्शन, और अतिरंजित कॉमेडी (exaggerated comedy) निश्चित चरित्रों के संग्रह पर केंद्रित है, जो दैनिक जीवन के रेखाचित्र और परिदृश्यों को प्रदर्शित करता है। सड़क प्रदर्शन करने वालों की एक यात्रा मंडली ने 1576 में कॉमेडिया डेलआर्ट को फ्रांस तक पहुंचाया, यहां यह इटली से भी ज्यादा लोकप्रिय हुआ। डेबुराउ (Deburau ) को मीम का जनक माना जाता है, लेकिन लंबे समय तक फ्रेंचमैन (Frenchman) द्वारा इसे आगे बढ़ाया गया। डेबुराउ की मृत्यु पर, अभिनेता पॉल लेग्रैंड (Paul Legrand ) ने उन्हें थिएस डेस फंबुलेस (Théâtre des Funambules) में नए पिय्रोट (Pierrot) के रूप में कामयाबी दिलाई, इस चरित्र को और अधिक आत्मीय, भावुक आयाम दिया जो हम आज भी कई मीम में देख सकते हैं। 20 वीं शताब्दी में, जैक्स लेकोक (Jacques Lecoq) और एनेटाइन डेकरोक्स (ennetienne Decroux) जैसे फ्रांसीसी नाट्य विशेषज्ञों ने औपचारिक कलात्मक शैली के रूप में मीम को विकसित किया। चेहरे पर सफेदी लगाकर दर्शकों की भीड़ के बीच प्रदर्शन करने वाले मीम कलाकारों को आज दुनिया भर के विभिन्न शहरों में देखा जा सकता है। लेकिन थिएटर (theatre ) में यह शैली दर्शकों के लिए और भी अधिक लोकप्रिय बनी हुयी है।
भारत में मीम की परंपरा 3,000 साल से अधिक पुरानी है। इसका वर्णन प्राचीन ग्रंथ, नाट्यशास्त्र में किया गया है। मीम एक ऐसी कला है जिसे व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में जाने अनजाने में एक या दो बार जरूर करता है। शायद यही कारण है कि मीम अन्य सभी थिएटर गतिविधियों में पहला स्थान रखता है। भरत के नाट्यशास्त्र में, मुद्रा (हाथों से इशारा) के तहत भूमिका-निभाने के सूक्ष्म पहलुओं को बताया गया। इसलिए, यह अपनी विभिन्न तकनीकों को पूर्ण करने के लिए कठोर अभ्यासों की मांग करता है। दर्शक इन अमूक कलाकारों के बिना कुछ कहें सब कुछ बयां करने की प्रदर्शन कला से रोमांचित हो उठते हैं। पश्चिम बंगाल के जोगेश दत्ता ने अपने जीवन के लगभग 50 वर्ष मीम कला को समर्पित किए इन्हें भारत में मीम व्याकरण के निर्माता का श्रेय दिया जाता है, जो अपने पश्चिमी अवतार से काफी अलग है और यह काफी हद तक हमारे पारंपरिक नृत्य रूपों से प्रभावित थी।
कलकत्ता में स्थित जोगेश मीम अकादमी (Jogesh Mime Academy) के कलाकारों ने भारतीय मूकाभिनय की 3,000 साल पुरानी कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर किया है। यहां पर हर रविवार को व्यापक टू-डू (To-do) सूची होती है, जिसमें छात्र मीम विशेषज्ञ के समक्ष अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। यहां के कलाकार किसी कार्यक्रम से पहले अकादमी के ग्रीन रूम (green room) में तैयार होते हैं। 75 फीट (23 मीटर) की दुरी से चेहरे की अभिव्यक्तियां स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देती हैं। चूंकि मीम भावों की प्रमुखता पर निर्भर करता है, इसलिए वे अपने चेहरे को सफेद रंग से रंगते हैं और इसे और अधिक दर्शनीय बनाने के लिए भौहें और होंठ को अलग से चित्रित करते हैं। कलाकार अपनी बॉडी लैंग्वेज (body language) और हावभावों को निखारने के लिए काले रंग की बॉडीसूट (black bodysuits ) भी पहनते हैं।
मुखौटा, छाया, नृत्य और रंगमंच की सामग्री के माध्यम से मीम प्रदर्शन की कला को थिएटर फेस्टिवल (Theatre festivals) और कॉर्पोरेट प्रशिक्षण कार्यक्रम (corporate training programmes) ने जीवित रखा है। मीम में अमौखिक संकेतों में सुधार किया, सूक्ष्म अभिव्यक्तियों को जागृत किया, शरीर की गति के विषय में जागरूकता बढ़ाई और कलाकार की स्मृति, रचनात्मकता और सटीकता में सुधार किया। 2012 में दो बधिर मीम कलाकार सचिन सोलंकी, शिवशंकर गावडी ने बेइङ्ग् देअफ मीम (Being Deaf Mime) से नृत्य और मीम की शुरुआत की। वे अब छह व्यक्तियों का एक समूह हैं। मीम कला इतनी लोकप्रिय हो गयी कि 2013 से तीन मीडिया कंपनियों - ड्रीम्स 2 रियलिटी (Dreams 2 Reality), वाइड विंग्स मीडिया (Wide Wings Media) और रेंजेट तालीम (Rangeet Talim) द्वारा पुणे में मीम प्रतियोगिता मौनंतर (Maunaantar) का प्रारंभ किया गया। 8-10 जुलाई को आयोजित इस वर्ष के संस्करण में 20 समूहों ने भाग लिया। सचिन सोलंकी, शिवशंकर गावडी के समूह ने गोवा, कोयम्बटूर और मुंबई में प्रदर्शन के बाद, ब्लाइंड (Blind), मौनंतर 2016 के लिए एक नाटक रखा है, जिसमें हास्य और व्यंग्य के माध्यम से बधिरों की दुर्दशा को चित्रित किया गया है।
आंध्र के 39 वर्षीय अरुसम मधुसन (Arusam Madhusan) या मीम मधु द्वारा हैदराबाद हवाई अड्डे के पास दो एकड़ के भूखंड पर मीम स्कूल बनवाया जा रहा है, यह भारतीय मीम अकादमी चलाते हैं। मेलबोर्न (Melbourne), पर्थ (Perth ) और सिडनी (Sydney) में मधुसन के प्रदर्शनों से प्रभावित होकर, एक ऑस्ट्रेलियाई (Australian ) जो इस भूमि (मीम स्कूल) के मालिक हैं, इस भवन के निर्माण के लिए दो करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं। मधुसन अपनी मीम शैली में नाट्यशास्त्र के योग और यूरोपीय मीम, कलरीपायट्टु, ताई ची और बुटोह नृत्य के संयुक्त रूप को प्रदर्शित करते हैं। पूर्वोत्तर भारत में मीम की शुरूआत 1991 में गुवाहाटी के मोइनुल हक (Moinul Haque) और उनकी मीम अकादमी (Mime Academy) द्वारा की गयी। संगीत अकादमी पुरस्कार विजेता यह अपने 20 सदस्यीय मंडली के साथ मीम नाटकों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों पर प्रकाश डालते हैं।
मूक कला का यह स्वरूप कई वर्षों से पतन के कगार पर खड़ा है। इस अकादमी के छात्र अपनी कला के माध्यम से इसे जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं। जैसा कि ज्ञात है मीम शारीरिक भाषा पर विशेष बल देता है, इसलिए यह कलाकारों के लिए शारीरिक रूप से बहुत थका देने वाला कार्य होता है। भारत में मीम कलाकार के रूप में जीना बहुत मुश्किल है। अधिकांश विशेषज्ञों के पास बहुत सीमित कार्य बाकि रह गया है। रंगमंच के अन्य रूपों के विपरीत, मीम के लिए कोई लिखित स्क्रिप्ट (script) नहीं होती है। कलाकार अधिनियमित करता है इशारों और चेहरे के अभिनय के माध्यम से प्रदर्शन करता है।
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