आत्मा और मानव जाति की मृत्यु, निर्णय और अंतिम नियति से सम्बंधित है, एस्केटोलॉजी

विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
24-11-2020 08:40 AM
आत्मा और मानव जाति की मृत्यु, निर्णय और अंतिम नियति से सम्बंधित है, एस्केटोलॉजी

पृथ्वी पर जन्म लेने वाले प्रत्येक जीव की एक निश्चित समय के बाद मृत्यु हो जाती है। जन्म और मृत्यु का यह चक्र निरंतर चलता रहता है, लेकिन क्या आप बता सकते हैं कि, इस ब्रह्मांड का अंत कब होगा? इस प्रश्न के उत्तर की जानकारी प्रत्यक्ष रूप से किसी को नहीं है, लेकिन परलोक सिद्धांत या एस्केटोलॉजी (Eschatology), इस प्रकार के कुछ प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहा है। परलोक सिद्धांत, धर्मशास्त्र का एक हिस्सा है, जो इतिहास की अंतिम घटनाओं, या मानवता की अंतिम नियति से संबंधित है। इस अवधारणा को आमतौर पर ‘दुनिया के अंत’ या ‘अंत समय’ के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार से परलोक सिद्धांत, धर्मशास्त्र की वह शाखा है, जो आत्मा और मानव जाति की मृत्यु, निर्णय और अंतिम नियति से संबंधित है। क्योंकि, हिंदू धर्म को व्यापक परंपराओं वाला धर्म माना जाता है, इसलिए किसी भी विशिष्टता के साथ हिंदू परलोक सिद्धांत का वर्णन करना मुश्किल है। लेकिन हिंदू धर्म की सभी शाखाएं वेद-ग्रंथों का अनुसरण करती हैं, इसलिए उनमें कुछ बुनियादी समानताएं मौजूद हैं। सामान्य तौर पर जीवन को मृत्यु के साथ एक नैतिक प्रगति के रूप में समझा जाता है, जो व्यक्ति को पुनर्जन्म से अंतिम मुक्ति की ओर ले जाती है, और इसमें मृत्यु केवल पुनर्जन्म के बीच का क्षणिक अंतर होती है। इसी तरह से, इतिहास का भी कोई अंत नहीं है और न ही ऐसा कोई सार्वभौमिक पुनरुत्थान या निर्णय है, जो समय के विनाश का प्रारंभ करे। हिंदू परलोक सिद्धांत की यदि बात करें तो, यह वैष्णव परंपरा में भगवान विष्णु के दसवें और अंतिम अवतार ‘कल्कि’ से सम्बंधित है। ऐसा माना जाता है, कि कल्कि का अवतार कलियुग के अंत से पहले होगा तथा इसके बाद हरिहर (भगवान विष्णु और शिव का संयुक्त रूप) ब्रह्मांड को समाप्त कर इसे फिर से पुनर्जीवित करेंगे। वर्तमान काल को कलियुग कहा जाता है, जो चार युगों में से अंतिम युग है। अन्य तीन युग सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग के नाम से जाने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि, प्रत्येक युग में मानवीय नैतिकता में लगातार गिरावट आयी है, और अंततः कलियुग में झगड़ा और पाखण्ड अपने चरम पर है। हिंदू धर्म के अनुसार, समय एक चक्र की भांति चल रहा है, जो कि, विभिन्न कल्पों (Kalpa) से मिलकर बना है। प्रत्येक कल्प में 432 करोड़ वर्ष माने जाते हैं, तथा एक कल्प बीत जाने के बाद प्रलय की घटना होती है। व्यक्तिगत स्तर पर जन्म, विकास, क्षय और नवीकरण के चक्र की लौकिक क्रम में पुनरावृत्ति तब तक होती रहती है, जब तक कि, इसमें दिव्य रूप से कोई हस्तक्षेप नहीं होता। कुछ शैव लोग मानते हैं कि, निर्माता या परमात्मा लगातार दुनिया को नष्ट कर रहा है, और इसे फिर से निर्मित कर रहा है। उनका मानना है कि, एक बड़े चक्र के बाद, सारा ब्रहमांड एक बिंदु पर संकुचित हो जायेगा और फिर उसी बिंदु से ब्रहमांड का फिर से विस्तार शुरू होगा। इस प्रकार सभी युग फिर से उसी धार्मिक क्रम में शुरू हो जायेंगे, तथा प्रत्येक युग के अंत में ईश्वर का अवतार धरती पर प्रकट होगा।
वेदों के अलावा, ब्रह्मांड के विनाश और उत्पत्ति को लेकर अनेकों मत अन्य हिंदू ग्रंथों में भी मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, पुराणों में ब्रह्मांड की रचना और विनाश को एक अधिक सटीक पैटर्न (Pattern) के रूप में दर्शाया गया है। पुराणों के अनुसार, प्राणियों की तरह ब्रह्मांड भी जन्म लेता है तथा एक निश्चित अवधि के बाद मर जाता है। इसके अनुसार अपनी शुरूआती अवस्था में ब्रह्मांड समुद्र में तैरते एक सुनहरे अंडे की भांति होता है। जब जगत निर्माता भगवान ब्रह्मा, अपने ध्यान से जाग्रत होते हैं, तब वे इसे तोड़ देते हैं, और अंडे के टूटते ही, पृथ्वी, सात आकाश और सात अधोलोकों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार एक नया समय चक्र शुरू होता है, जिसका संरक्षण भगवान विष्णु की देख-रेख में किया जाता है। इस समय चक्र में चार युग होते हैं, जिनमें से पहले अर्थात् सतयुग को शांत और निर्मल हृदय वाले लोगों का युग माना जाता है। इसके बाद त्रेतायुग, में नैतिकता अपेक्षाकृत कुछ कम होती है, लेकिन फिर भी कुछ अच्छे तत्व पृथ्वी को सुंदर बना देते हैं। तीसरे युग में परिस्थितियां थोड़ी जटिल हो जाती हैं, और दुख, बीमारी, मृत्यु आदि मानव जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। अंतिम युग अर्थात् कलियुग, को विघटन, युद्ध, संघर्ष, लघु जीवन काल, भौतिकवाद, वंशानुगतता और अनैतिकता का काल माना गया है, जिसके चरम पर पहुंच जाने से ब्रह्मांड का विनाश होना शुरू हो जाता है। इस विनाश के कारण ब्रह्मांड वापस सुनहरे अंडे के रूप में समुद्र में तैरने लगता है और तब तक तैरता रहता है, जब तक भगवान ब्रह्मा पुनः अपने ध्यान से नहीं जागते और उस अंडे को तोड़ नहीं देते। हर युग में ईश्वर के धरती पर अवतार लेने की अवधारणा, का संदर्भ श्रीमद्भगवद्गीता में भी मिलता है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि, ‘जब भी धर्म का विनाश होता है, और अधर्म की उत्पत्ति होती है, तब मैं प्रकट होता हूं। अच्छाई के संरक्षण के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए, मैं हर युग में पैदा हुआ हूं’।
कुछ इसी प्रकार की अवधारणाएं बहा-ई (Bahá’í) धर्म में भी मौजूद है, जो सभी धर्मों के लिए आवश्यक मूल्यों और सभी लोगों को एकता और समानता सिखाता है। इसे धार्मिक नेता, बहा-उ-उल्लाह (Baháʼu'lláh) द्वारा 1863 में स्थापित किया गया था, जिसका अनुसरण आज विभिन्न देशों और क्षेत्रों के अधिकांश लोग कर रहे हैं। हिंदू परलोक सिद्धांत के समान बहा-ई धर्म का भी यह विश्वास है कि, अलग-अलग समय और स्थानों पर ईश्वर, खुद को प्रकट करते है। इन दूतों को हिंदू धर्म में अवतार जबकि बहा-ई शिक्षाओं में ईश्वर की अभिव्यक्ति कहा जाता है। हालांकि इन दोनों में कुछ अंतर भी है, क्यों कि हिंदू धर्म में यह माना गया है कि, अवतार स्वयं मानव रूप में भगवान है और इस प्रकार वह ईश्वर ही है, जबकि बहा-ई विश्वास मानता है कि, ईश्वर की अभिव्यक्तियाँ, स्वयं ईश्वर नहीं हैं, वे केवल उनके प्रतिनिधि मात्र हैं। उनका मानना है कि, ईश्वर की अभिव्यक्तियों को ईश्वर के अवतारों के रूप में नहीं देखा जा सकता क्योंकि, ईश्वर को विभाजित करना संभव नहीं है। हालांकि वह एक साधारण मनुष्य भी नहीं है, क्योंकि उनमें मानवीय और दिव्य दोनों गुणों का समावेश होता है।

संदर्भ:
https://en.wikipedia.org/wiki/Hindu_eschatology
https://phnuggle.wordpress.com/the-list/hindu-eschatology/
https://bit.ly/2vhiaGQ
https://bahai-library.com/buck_eschatological_interface_messianism
https://en.wikipedia.org/wiki/Eschatology#Bah%C3%A1'%C3%AD
चित्र सन्दर्भ:
मुख्य चित्र में कल्कि अवतार को संदर्भित किया गया है। (Wikimedia)
दूसरे चित्र में जन्म-मृत्यु को संदर्भित करने वाले हिरण्यगर्भ (Golden Womb) को दिखाया गया है। (Wikipedia)
तीसरे चित्र में ब्रम्हा द्वारा सृस्टि के सृजन का सांकेतिक चित्रण है। (Freepik)
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