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उत्तर प्रदेश में हाल ही में उत्खनन से 1800 और 1000 ईसा पूर्व के बीच की परतों वाले रेडियोकार्बन (Radiocarbon) में लोहे की कलाकृतियाँ, भट्टियाँ, ट्युरेस (Tuyeres) और धातुमल प्राप्त हुए हैं। इससे यह सवाल फिर से उठता है कि क्या दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के आप्रवासियों के दौरान भारत में लौह-कार्य को लाया गया था या स्वतंत्र रूप से विकसित किया गया था। ऐसा माना जाता है कि भारत प्रारम्भिक लोहे का निर्माण करने वाला एक स्वतंत्र केंद्र था। ताम्रपाषाण काल से सम्बंधित पुरास्थल अहाड़ से उस काल की जमाव में लोहे की उपस्थिति ने एक अलग ही तथ्य प्रस्तुत कर दिया और यह सुझाव प्रस्तुत कर दिया की हो ना हो भारत में सोलहवीं शताब्दी ईसा पूर्व में लोहे के गलाने का कार्य शुरू हो चुका था। इसके बाद चित्रित धूसर मृदभांड और रेडिओ कार्बन (Radiocarbon) दिनांकन के आगमन ने इस तिथि को दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की ओर धकेलना शुरू कर दिया, एक ऐसी अवधि जो वास्तव में बीसवीं शताब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत में कुछ विद्वानों द्वारा पसंद की गई थी।
हाल ही में लखनऊ में हुए सरयू नदी और सई नदी के मैदानी इलाकों से अन्वेषण में कई ऐसे अवशेष प्राप्त हुए, जिन्होंने पुरातत्वविदों को यहाँ पर उत्खनन करने के लिए प्रोत्साहित किया। दादुपुर और लहुरदेवा का अन्वेषण और उत्खनन डॉ राकेश तिवारी द्वारा कराया गया था जो कि उत्तर प्रदेश पुरातत्त्व विभाग के निदेशक थें। इस उत्खनन के बाद खोजे गए अवशेष ने लखनऊ के इतिहास को कुल करीब 1500 ईसा पूर्व तक धकेल दिया। दादुपुर पर हुई खुदाई से तीन काल खंडों में विभाजित एक क्रम का पता चला है। पहली अवधि की सांस्कृतिक सामग्री में लोहे की कलाकृतियाँ हैं जैसे कि तीर-कमान। इस स्थल से लाल मृद्भांड, चिकने लाल मृद्भांड, चमकीले काले मृद्भांड, लाल और काले मिश्रित मृद्भांड आदि की प्राप्ति हुयी।
इसी के भंडार में लौह के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ से जले हुए मिट्टी के अवशेष प्राप्त होते हैं और झोपड़ियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो कि यहाँ के गृह निर्माण कला के उपर भी प्रकाश डालते हैं। यहाँ से अनेकों की संख्या में मिले हिरन के सींगों के औजार और हड्डियों के औजार यह साबित करते हैं की यहाँ पर अस्थियों से बने औजारों का उद्योग हुआ करता होगा। उत्तर प्रदेश में सोनभद्र और चंदौली में हुए उत्खनन में जहाँ से लोहे के अवशेष प्राप्त हुए उनकी तिथि 1600 ईसा पूर्व तक की है। लेकिन अब जब हम एक बिंदु पर चर्चा करते हैं कि चंदौली और सोनभद्र के क्षेत्र में लोहे की खदाने उपलब्ध हैं लेकिन लखनऊ में लोहे के कार्य का मिलना एक बड़ी बात है जोकि दोमट मिटटी के क्षेत्र में बसा है।
यहाँ से प्राप्त लोहे के अवशेष करीब 1500 ईसा पूर्व के हैं। अब यह इस बात पर भी जोर देता है कि हो ना हो यहाँ पर कच्चा लोहा कहीं और से मंगाया जाता रहा होगा। यह कथन प्राचीन व्यापार को भी सिद्ध करता है, दादुपुर से करीब 25 किलोमीटर दूर एक अन्य पुरास्थल से 1500 ईसा पूर्व से पहले के भी मानव के बसने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। दादुपुर का पुरास्थल सई नदी के किनारे पर बसा हुआ है। ऋग्वेद में सई नदी को संडिका नदी के नाम से पुकारा गया है, अब जैसा कि यह सत्य है कि ऋग्वेद की रचना 1500 ईसा पूर्व के करीब हुयी थी तो यह सिद्ध होता है कि इस स्थान पर उस समय मनुष्य निवास करते रहे थे। इन सभी तथ्यों से यह भी बात निकल कर आई कि यह मात्र एक कैंप (Camp) की तरह का बसाव या फिर सामयिक बसाव ना होकर एक स्थाई बसाव था। लाहुरदेवा से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उनसे सरयू नदी के पार पहली बार खेती या कृषि की बात स्वीकारी जाती है। यहीं से इंसानों द्वारा चावल की खेती किये जाने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन सभी अवशेषों की प्राप्ति से यह तो सिद्ध हो गया कि लखनऊ के आस पास का क्षेत्र लौह युग में सुचारू रूप से प्रचलित था।
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