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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतम्।
धर्मस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
अर्थात "जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब तब मैं इस पृथ्वी पर जन्म लेता हूं। सज्जनों और साधु की रक्षा के लिए, दुर्जन और पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता हूं।"
हर युग में जन्म लेने की भगवान श्री कृष्ण की यह घोषणा और उसकी परंपरा से आभास होता है कि यह प्राचीन भारत के कुछ स्वतंत्र देवताओं के मिश्रण का भी प्रतीक है। इसमें आरंभिक देवता वासुदेव थे। वासुदेव वृषनिस जनजाति के प्रमुख देवताओं में से एक थे, जिसकी पुष्टि 5वी और 6ठी शताब्दी के पाणिनि की रचनाओं से होती है। इसके अलावा दूसरी शताब्दी का हेलिओडोरस स्तंभ (Heliodorus Pillar) के पुरालेख में भी इसका उल्लेख है। इस बात पर काफी विचार किया गया कि वृषनिस जनजाति और यादवों की जनजाति, जिसके प्रमुख देवता कृष्ण थे, का मिश्रण हुआ। वासुदेव कृष्ण मिलकर एक देवता बन गए, जो महाभारत में दिखाई देते हैं और उन्हें भगवान विष्णु के अवतार के रूप में महाभारत और भगवत गीता में पहचाना जाता है। चौथी शताब्दी में एक और परंपरा, 'गोपाल कृष्ण' की सामने आती है, जिसका अर्थ है गोवंश का रक्षक, यह भी कृष्ण परंपरा में मिल जाती है। भगवान श्री कृष्ण की कहानी के ऐतिहासिक और साहित्यिक सूत्र अनेक हैं।
आरंभिक पुरालेख स्रोत
180 BC के आसपास इंडो-ग्रीक(Indo-greek) राजा अगाथोक्लीज(Agathocles) ने कुछ सिक्के जारी किए थे, जिन पर कुछ देवताओं की आकृतियां थी। उन्हें भारत की वैष्णवी कल्पना से जोड़ा गया। 1960 में हेलिओडोरस स्तंभ पर ब्रह्मी लिपि की खोज मध्य प्रदेश के बेसनगर के कॉलोनियल एरा(Colonial Era) के पुरातत्ववेत्ताओं ने की थी। उनके अध्ययन के अनुसार यह 125 BC के आस पास का स्तंभ है। इसका नामकरण हेलिओडोरस, इंडो ग्रीक के नाम पर रखा गया है। ये ग्रीक राजा एंटीआलसीदस (Antialcidas) की तरफ से क्षेत्रीय काशी पुत्र भागभद्र को दिया गया था। एक लेख में लिखा है कि इसका निर्माण हेलिओडोरस ने कराया था और यह एक गरुड़ स्तंभ है( दोनों विष्णु और कृष्ण से संबंधित हैं।) इसके अलावा इस पुरालेख में कृष्ण से संबंधित कविता भी है, जो महाभारत के 11.7 अध्याय से ली गई है। इसमें यह कहा गया है कि अमरत्व प्राप्त करने और स्वर्ग जाने के लिए तीन काम ठीक से करने जरूरी है संयम, उदारता और जागरूकता।
कृष्ण के अस्तित्व का पहला प्रमाण मथुरा में मिली एक भू आकृति है, जो की पहली या दूसरी शताब्दी की निर्मित है। इसमें वासुदेव (कृष्ण के पिता) यमुना के बीच से एक टोकरी में शिशु कृष्ण को लेकर जाते दिखाए गए हैं। इसी आकृति में दूसरे छोर पर एक सात फन वाले सांप को उन्हें नदी पार करने में मदद करते दिखाया है, जहां एक मगरमच्छ भी चक्कर मार रहा था।
साहित्यिक स्रोत
कृष्ण के विषय में सबसे प्रारंभिक संदर्भ महाकाव्य महाभारत में मिलता है। इसमें कृष्ण को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में दिखाया गया है। महाभारत की बहुत सी कहानियों के केंद्र में कृष्ण का उल्लेख है। इसके 18 अध्याय के भीष्म पर्व में स्थित भगवत गीता में कृष्ण का अर्जुन को संदेश समाहित है। आठवीं और छठी शताब्दी BC के मध्य लिखे गए छांदोग्य उपनिषद भी प्राचीन भारत में कृष्ण के होने का प्रमाण है। मैक्स मूलर(Max Müller) ने भी इस ग्रंथ का अपने लेख में संदर्भ के रूप में प्रयोग किया है, जिसमें कृष्ण को देवकी पुत्र की संज्ञा दी गई है। पाणीनी की अष्टाध्याई में( 5 या 6ठी शताब्दी BC) एक ही सूत्र में वासुदेव और अर्जुन का पूजा ग्रहण करने का उल्लेख है।
द हिंदुइज्म एंड बुद्धिस्म एंड हिस्टोरिकल स्केच(Hinduism and Buddhism: An Historical Sketch): लेखक- सर चार्ल्स इलियट(Sir Charles Eliot)
इस किताब में लेखक सर चार्ल्स इलियट ने साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर भगवान श्री कृष्ण के जन्म के प्रमाण एकत्र करने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं कि भारतीय मंदिरों में स्थित देवताओं में विष्णु के अवतार के रूप में श्री कृष्ण का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन उनके जन्म के ऐतिहासिक प्रमाण स्पष्ट नहीं हैं।
ऋग्वेद में जिस शब्द का अर्थ काला या गहरा नीला है, उसका उपयोग एक अनजान व्यक्ति के लिए किया गया है। छांदोग्य उपनिषद,(3.66) कृष्ण- देवकी के पुत्र का जो उल्लेख है, इसके निर्देश अंगिरासा वंश के साधु गोरा द्वारा दिए गए हैं। इससे ऐसा लगता है कि शायद कृष्ण भी उसी वंश के रहे हो। आगे विद्वानों ने इस बारे में शायद ज्यादा चर्चा इसलिए नहीं किया क्योंकि उपनिषदों में कृष्ण के देवता होने का कोई उल्लेख नहीं है, वासुदेव कृष्ण का विख्यात नाम है, इसे अगर पाणिनि के कथन से जोड़ कर देखा जाए तो यह निष्कर्ष निकलता है कि यह वंश का नाम नहीं है, देवता का नाम है। अगर ऐसा होता तो वासुदेव को ईश्वर के रूप में चौथी शताब्दी BC में पहचान मिल जाती। सभी लेखों में इसका उल्लेख दूसरी शताब्दी BC में मिलता है और तृतीय अरण्यका की अंतिम किताब में मिलता है।
बौद्ध साहित्य में कृष्ण का उल्लेख 'कान्हा' के रूप में किया गया है, ध्वन्यात्मक रूप से यह कृष्ण के बराबर है। दीघा निकाया मे हम कन्हयानाज वंश के बारे में सुनते हैं और एक कान्हा के बारे में भी जो बाद में महान साधु हो गए। यह व्यक्ति हो सकता है कि ऋग्वेद का कृष्ण हो, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि वह हमारा कृष्ण ही है।
उपरोक्त सभी अवधारणाएं लेखक की व्यक्तिगत सोच और खोज पर आधारित हैं। इस पर विचार और शास्त्रार्थ किया जाना चाहिए।
मानो तो भगवान है, ना मानो तो पत्थर। कृष्ण भक्तों की उनके अस्तित्व में अटूट आस्था और विश्वास है और हमेशा रहेगा। 21वीं सदी में भी जिस गीता को हम सच की कसौटी मानते हैं वह समाज को भगवान कृष्ण की ही देन है।
चित्र सन्दर्भ:
पहले चित्र में कृष्ण की प्रतिमा का चित्रण है। (wikimedia)
दूसरे चित्र में वासुदेव यमुना के पार टोकरी में शिशु कृष्ण को ले जाते हुए टेराकोटा में दिखाए गए हैं।(wikimedia)
तीसरा चित्र 18वीं शताब्दी के एक सिक्के पर वासुदेव और कृष्ण की छवि को दर्शा रहा है।(wikimedia)
चौथा चित्र पहली शताब्दी ई.पू. का है तथा यह बलराम और कृष्ण को दिखा रहा है। (wikimedia)
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